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Tatva Gyan

जीवन को साधनामय बनाने की कला – पूज्य बापू जी


उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः । षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ।। व्यक्ति ठीक उद्यम करे, साहसी बने, थोड़ा धैर्य रखे… । जीवन में देखा जाय तो मनुष्य जीवन साधन-जीवन है, साधनामय जीवन है । हर रोज़ अपने-आप जीवन को साधन-जीवन बनाने का अवसर आता है । बस, इस अवसर को न गँवाकर उसका सदुपयोग किया जाय तो मनुष्य का सर्वांगीण विकास मोक्ष तक पहुँचा सकता है । सुख आये तो उसको भोगे नहीं, बहुत लोगों में बाँटे तो यह साधना हो गयी । दुःख आये तो उससे दबे नहीं, दुःख के निमित्त को खोजकर दुःख कैसे आया उसको जान ले । एक तो बाहर से दुःख का निमित्त आता है – आँधी-तूफान, गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास, अपमान आदि से, दूसरा, अंदर में दुःखाकार वृत्ति पैदा होती है और तीसरा, बेवकूफी होती है कि ‘मैं दुःखी हूँ’ तभी व्यक्ति दुःखी होता है । अगर बाहर दुःख का निमित्त आ जाय तो धैर्य रखें, उसकी अनित्यता का विचार करें- जैसे, ‘आँधी आयी तो क्या है, थोड़ी भूख लगी तो क्या है, यह सब गुज़र जायेगा, समय और परिस्थितियाँ – सब नाश को प्राप्त हो रहे हैं ।’ दुःखाकार वृत्ति पैदा हो तो ज्ञानाकार वृत्ति से दुःखाकार वृत्ति को काट दें और ‘मैं दुःखी हूँ’ ऐसी बेवकूफी न करें तो दुःख भी साधना बन जायेगा । ऐसे ही सुख आता है समष्टि प्रारब्ध (सामूहिक प्रारब्ध) से, अपने प्रारब्ध से, वाहवाही से – निमित्तों से । वाहवाही हुई… उस सुख का भोक्ता बन जाय कि ‘मैं सुखी हूँ’ तो भोगी बन जायेगा, असाधन हो जायेगा । सुखद-दुःखद परिस्थितियाँ आयें तो देखे कि ‘कब तक टिकेंगी ? ये बीतने वाली हैं । दुःख नहीं आया था तब भी हम थे और सुख नहीं आया था तब भी हम थे । हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप ! हम भगवान के और भगवान हमारे हैं ।’ तो सुख-दुःख भी साधना हो जायेंगे, मान-अपमान भी साधना हो जायेंगे, अनुकूलता-प्रतिकूलता भी साधना हो जायेंगी, विरोध और यश भी साधना हो जायेंगे । हम गलती क्या करते हैं कि दुःख का निमित्त बाहर से आता है – माँ ने कुछ बोल दिया, बाप ने कुछ बोल दिया तो चिढ़ गये, झिझक गये… । उस समय यह सोचें कि ‘माँ-बाप, आचार्य-गुरु कुछ बोलते हैं तो हमारी भलाई के लिए बोलते हैं कि बुराई के लिए ?’ अंदर में दुःखाकार वृत्ति पैदा हो तो मन को समझायें कि ‘इसमें दुःखी होने की क्या जरूरत है, माँ कोई दुश्मन है क्या ? माँ कोई शेरनी है क्या कि खा जायेंगे ? आचार्य-शिक्षक कोई हमारे दुश्मन हैं क्या ?’ बोलेः ‘अरे महाराज ! हमारे स्कूल में या हमारे पड़ोस में तो हमको बड़ी-बड़ी आँखें दिखाते और डराते हैं !’ अब वे डराते हैं तो आप क्यों डरते हैं ? आप गलती करेंगे तो डरेंगे और गलती नहीं है तो काहे को डरना ? उस समय क्या करो कि जीभ को ऊपर तालू में लगा दो और मन में ‘ॐ ॐ…’ जपो, कोई भी कितना भी धमकाये, गुंडागिरी, दादागिरी करे तब भी कुछ नहीं हो सकता है, ऐसा जीवन में साधन होता है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 34 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

उद्गम-स्थान में बुद्धि को विश्रांति दिलाकर पुष्ट बनायें – पूज्य बापू जी


बुद्धि का उद्गम स्थान क्या है ? लोग बोलते हैं ‘पाश्चात्य जगत के विद्वानों का यह मानना है कि संसार का अनुभव करने से बुद्धि बढ़ती है, बनती है ।’ किंतु अपनी वैदिक संस्कृति व प्राचीन ऋषियों का कहना है कि ‘बुद्धि का अधिष्ठान, उद्गम-स्थान संसार नहीं है, आत्मा है और उस आत्मा-परमात्मा में से ही बुद्धि का निश्चय स्फुरित होता है ।’ बाहर से सीख-सीख के बुद्धि किसी विषय में पारंगत होती है लेकिन बुद्धि का मूल आत्मा है । भगवान को हम अपना मान के जप करेंगे तो भगवान में ज्यों-ज्यों बुद्धि विश्रांति पायेगी त्यों-त्यों पुष्ट होती जायेगी । मीराबाई के पद सुनकर जो शांति मिलती है, संत कबीर जी की साखियों से जो ज्ञान और शांति मिलती है, संत तुकाराम जी के अभंगों से और अन्य आत्मारामी संतों के वचनों से जो ज्ञान और आनंद आता है, शांति मिलती है ऐसे अभंग, पद, साखियाँ कोई विद्वान बना ले या ऐसे वचन बोल दे तो भी उनसे उतनी शांति, ज्ञान, पुण्य नहीं हो सकता है । लोग बोलते हैं तो भाषण हो जाता है, लेक्चर (व्याख्यान) हो जाता है पर संत बोलते हैं तो सत्संग हो जाता है क्योंकि वे अपनी बुद्धि को भगवान में विश्रांति दिलाकर फिर परहित की भावना से बोलते हैं । तो भगवान को अपना मानना, अपने को भगवान का मानना, ऐसे करके भगवान से प्रीति करना । इससे क्या होगा कि बुद्धि में भगवान का योग आयेगा (ज्ञाननिष्ठा आयेगी) । इससे खूब अंतःप्रेरणा मिलेगी, अंतरात्मा का आराम मिलेगा, अंतरात्मा का ज्ञान प्रकाशित होगा । स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 30 अंक 359 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

बंधन केवल मान्यता है


जीव बंधन से जकड़ा हुआ है । कर्म में बंधन है पाप-पुण्य का । भोग में बंधन है सुख-दुःख का । प्रेम में बंधन है संयोग-वियोग का । सृष्टि में चारों ओर भय, बंधन और परतंत्रता ही नज़र आते हैं । ऐसे में भय से, बंधन से, पराधीनता से मुक्ति कैसे हो, यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है । श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । ‘वेदों और पुराणों में बहुत से उपाय बतलाये हैं’ (श्रीरामचरित. उ.कां. 116.3) परंतु कोई काम नहीं बन पाता । यदि कदाचित अपना आपा ही ब्रह्म निकल आवे तो सब समस्याएँ हल हो सकती है । ब्रह्मज्ञान का यही प्रयोजन है । अपने को ब्रह्म समझना बहुत आवश्यक है । जब तक आप अपने को शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि या अहंकार समझते रहोगे अर्थात् अपने को परिच्छिन्न (सीमित) समझते रहोगे तब तक इनके बंधनों से मुक्ति नहीं मिल सकती । आपकी समूची पराधीनता मिटाने के लिए ब्रह्मज्ञान है । जन्म-मरण अपने सत्स्वरूप के विपरीत है, अज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप के विपरीत है और दुःखी होना अपनी आनंदस्वरूपता के विपरीत है । हम जो हैं (सच्चिदानंद अद्वय (एकमात्र)), अपने विपरीत जीवन व्यतीत कर रहे हैं । जैसे डाकू लोग करोड़पति सेठ को पकड़ के जंगल में किसी अँधेरी कोठरी में बंद कर दें, वैसी ही स्थिति मनुष्य की है । अतः आओ, अपने ब्रह्मस्वरूप को जानें और सम्पूर्ण बंधनों से, जन्म-मरण से, अज्ञान से, दुःख से, आवागमन से और परिच्छिन्नत्व से मुक्त हो जायें । यह जीवन का परम पुरुषार्थ है । सचमुच विचार करक देखें तो हमारे में कहीं बंधन की सिद्धि नहीं होती । इसलिए बंधन केवल मान्यता है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 15 अंक 359 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ