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Anmol Yuktiyan

दीप-प्रज्वलन अनिवार्य क्यों ?



भारतीय संस्कृति में धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ, सामाजिक व
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दीपक प्रज्वलित करने की परम्परा है । दीपक
हमें अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने का
संदेश देता है । आरती करते समय दीपक जलाने के पीछे उद्देश्य यही
होता है कि प्रभु हमें अज्ञान-अंधकार से आत्मिक ज्ञान-प्रकाश की ओर ले
चलें । मृत्यु से अमरता की ओर ले चलें ।
मनुष्य पुरुषार्थ कर ससांर से अंधकार दूर करके ज्ञान का प्रकाश
फैलाये ऐसा संदेश दीपक हमें देता है । दीपावली पर्व में, अमावस्या की
अँधेरी रात में दीप जलाने के पीछे भी यही उद्देश्य छुपा हुआ है । घर
में तुलसी की क्यारी के पास भी दीपक जलाये जाते हैं । किसी भी नये
कार्य की शुरुआत भी दीप जलाकर की जाती है । अच्छे संस्कारी पुत्र को
भी कुल दीपक कहा जाता है ।
दीपक की लौ किस दिशा में हो ?
पुज्य बाप जी के सत्संग-अमृत में आता हैः “आप दीया जलाते हैं,
आरती करते हैं, इसका बहुत पुण्य माना गया है परंतु आरती के दीपक
की बत्ती या लौ अगर पूर्व की तऱफ है तो आपको धन-लाभ में मदद
मिलेगी, यदि दक्षिण की तरफ है तो धन-हानि और पश्चिम की तरफ है
तो दुःख व विघ्न लायेगी । इसीलिए घर में ऐसी जगह पर आरती करें
जहाँ या तो पूर्व की तरफ लौ हो या तो उत्तर की तरफ । ऋषियों ने
कितना-कितना सूक्ष्म खोजा है !
लौ दीपक के मध्य में लगाना शुभ फलदायी है । इसी प्रकार दीपक
के चारों और लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है ।
दीपक के समक्ष इन श्लोकों के पठन से विशेष लाभ होता हैः

शुभं करोतु कल्याणमारोग्यं सुखसम्पदाम्
शत्रु बुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ।।
‘शुभ एवं कल्याणकारी, स्वास्थ्य एवं सुख-सम्पदा प्रदान करने वाली
तथा शत्रुबुद्धि का नाश करने वाली हे दीपज्योति ! मैं तुम्हें नमस्कार
करता हूँ ।’
दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्नजनार्दनः ।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ते ।।
‘उस परब्रह्म-प्रकाशस्वरूपा दीपज्योति को नमस्कार है । वह
विष्णुस्वरूपा दीपज्योति मेरे पाप को नष्ट करे ।’
ज्योतिषामपि तज्जयोतिस्तमसः परमुच्यते । (गीताः 13.17)
ज्योतियों की ज्योति आत्मज्योति है । जिसको सूर्य प्रकाशित नहीं
कर सकता बल्कि जो सूर्य को प्रकाश देती है, चंदा जिसको चमका नहीं
सकता अपितु जो चंदा को चमकाती है वह आत्मज्योति है । महाप्रलय
में वह नहीं बुझती । उसके प्रतीकरूप में यह दीपक की ज्योति
जगमगाते हैं ।
दीपज्योतिः परब्रह्म… अंतरात्मा ज्योतिस्वरूप है, उसको नहीं जाना
इसलिए साधक बाहर की ज्योति जगाकर अपने गुरुदेव की आरती कहते
हैं-
ज्योत से ज्योत जगाओ सद्गुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ ।
मेरा अंतर तिमिर मिटाओ, सद्गुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ ।
अंतर में युग-युग सरे सोयी, चितिशक्ति को जगाओ ।।….
यह अंदर की ज्योत जगाने के लिए बाहर की ज्योत जगाते हैं ।
इससे बाहर के वातावरण में भी लाभ होता है ।

दीपो हरतु मे पापं…. दीपज्योति पापों का शमन करती है, उत्साह
बढ़ाती है लेकिन दीपज्योति को भी जलाने के लिए तो आत्मज्योति
चाहिए और दीपज्योति को नेत्रौं द्वारा देखने के लिए भी आत्मज्योंति है
और नेत्रज्योति है तभी दीप ज्योति है, वाह मेरे प्रभु ! भगवान का
चिंतन हो गया न ! आपस में मिलो तो उसी का कथन करो, उसी का
चिंतन करो, आपका हृदय उसके ज्ञान से भर जाय ।
दीप-प्रज्वलन का वैज्ञानिक रहस्य
दीया इसलिए जलाते हैं कि वातावरण में जो रोगाणु होते हैं, हलके
परमाणु होते हैं वे मिटें । मोमबत्ती जलाते हैं तो अधिक मात्रा में कार्बन
पैदा होता है और दीपक जलाते हैं तो दीपज्योति से नकारात्मक शक्तियों
का नाश होता है, सात्त्विकता पैदा होती है, हानिकारक जीवाणु समाप्त
होते हैं ।”
घी या तेल का दीपक जलने से निकलने वाला धूआँ घर के
वातावरण के लिए शोधक (प्यूरीफायर) का काम करता है और स्वच्छ व
मनमोहक वातावरण) रोगप्रतिरोधी तंत्र को मजबूत करने में सहायक है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 344
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संत की युक्ति से भगवदाकार वृत्ति व पति की सद्गति


एक महिला संत के पास गयी और बोली ″बाबा जी ! मेरे पति मर गये । मैं उनके बिना नहीं जी सकती । मैं जरा सी आँख बन्द करती हूँ तो मुझे वे दिखते हैं । मेरे तन में, मन में, जीवन में वे छा गये हैं । अब मेरे को कुछ अच्छा नहीं लगता । मेरे पति का कल्याण भी हो ऐसा भी करो और मेरे को भी कुछ मिल जाये कल्याण का मार्ग । लेकिन मेरे पति का ध्यान मत छुड़ाना ।″

संतः ″नहीं छुड़ाऊँगा बेटी ! तेरे पति तुझे दिखता है तो भावना कर कि पति भगवान की तरफ जा रहे हैं । ऐसा रोज अभ्यास कर ।″

माई 2-5 दिन का अभ्यास हुआ । करके संत के पास गयी तो उन्होंने पूछाः ″अब क्या लगता है बेटी ?″

″हाँ बाबा जी ! भगवान की तरफ मेरे पति सचमुच जाते हैं ऐसा लगता है ।″

संत ने फिर कहाः ″बेटी ! अब ऐसी भावना करना कि ‘भगवान अपनी बाँहें पसार रहे हैं । अब फिर पति उनके चरणों में जाते हैं प्रणाम के लिए ।’ प्रणाम करते-करते तेरे पति एक दिन भगवान में समा जायेंगे ।″

″अच्छा बाबा जी ! उनको भगवान मिल जायेंगे ?″

″हाँ, मिल जायेंगे ।″

माई भावना करने लगी कि ‘पति भगवान की तरफ जा रहे हैं । हाँ, हाँ ! जा रहे हैं… भगवान को यह मिले… मिले… मिले….!’ और थोड़े ही दिनों में उसकी कल्पना साकार हुई ।

पति की आकृति जो प्रेत हो के भटकने वाली थी वह भगवान में मिलकर अदृश्य हो गयी और उस माई के चित्त में भगवदाकार वृत्ति बन गयी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 21. अंक 321

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मृतक की सच्ची सेवा


एक माता जी ने स्वामी शरणानंदजी को बहुत दुःखी होकर कहाः ″महाराज ! कुछ ही समय पहले मेरे पति का अचानक देहावसान हो गया । ऐसा क्यों हुआ ? अब मैं क्या करूँ ?″

शरणानंदजी ने उन्हें जीवन का रहस्य बताया कि ″हिन्दू धर्म के अनुसार स्थूल शरीर के न रहने पर भी सूक्ष्म तथा कारण शरीर उस समय तक रहता है जब तक कि प्राणी देहाभिमान का अंत कर समस्त वासनाओं से पूर्णतया मुक्त न हो जाय । ऐसी दशा में मृतक प्राणी के जो कर्तव्य हैं, उस पर ध्यान देना चाहिए ।

स्वधर्मनिष्ठ पत्नी अपने पति की आत्मशांति के लिए बहुत कुछ कर सकती है । वैधव्य धर्म सती धर्म से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । सती तो अपने शरीर को भौतिक अग्नि में दग्ध करती है और फिर पतिलोक को प्राप्त करती है किंतु विधवा (ब्रह्मवेत्ता संत-महापुरुष के सत्संग-अनुसार जीवन-यापन कर) अपने सूक्ष्म तथा कारण शरीर दोनों को ज्ञानाग्नि में दग्ध करके जीवन में ही मृत्यु का अनुभव कर सकती है, स्वयं जीवन्मुक्त होकर पति की आत्मा को भी मुक्त कर सकती है ।

देखो माँ ! पत्नी पति की अर्धांगिनी है । अतः पत्नी की साधना से पति का कल्याण हो सकता है । इस समय आपका हृदय घोर दुःखी है परन्तु हमें दुःख से भी कुछ सीखना है । दुःख को व्यर्थ जाने देना या उससे भयभीत हो जाना भूल है । दुःख हमें त्याग का पाठ पढ़ाने आता है । अतः जब-जब पतिदेव के वियोग की वेदना उत्पन्न हो तब-तब उनकी आत्मा की शान्ति के लिए सर्वसमर्थ प्रभु से प्रार्थना करो । मृतक प्राणी का चिंतन करने से उसे विशेष कष्ट होता है, कारण कि सूक्ष्म शरीर कुछ काल तक उसी वायुमण्डल में विचरता है जहाँ-जहाँ उसका सम्बन्ध होता है । जब-जब वह अपने प्रियजनों को दुःखी देखता है तब-तब उसे बहुत दुःख होता है । अतः आपका धर्म है कि आप उन्हें दुःखी न करें । उनके कल्याणार्थ साधन अवश्य करें पर मोहजनित चिंतन न करें ।″

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 343

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