Tag Archives: Vivek Vichar

आप महामना हो जायेंगे, बस एक काम कीजिये… – पूज्य बापू जी


आप बुराई रहित हो जायेंगे तो भलाई तो सहज में हो जायेगी । और भगवान को भले लोग पसंद हैं, वे तो ढूँढ रहे हैं । भला दिल तो भगवान चाहते हैं प्रकट होने के लिए । जो दूसरों से द्वेष रखते हैं, उनमें अवगुण देखते हैं, दूसरी जगह सुख ढूँढते हैं ऐसे मनुष्य तो बहुत भटक रहे हैं । संत कबीर जी ने कहाः

देश दिशांतर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।

जा देखै सुख उपजै, बा का पड़ा दुकाल ।।

‘देश-देशान्तरों में घूमकर मैंने देखा तो मनुष्यों की कमी नहीं है परंतु जिनके दर्शन से निर्दोष, निर्विकार, सच्चा सुख उत्पन्न हो ऐसे मानव का अत्यंत अभाव है, वे अत्यंत दुर्लभ हैं ।’

आप अगर भगवान को चाहेंगे न, तो लोग आपको चाहेंगे । आपका हृदय भगवान के ध्यान में, ज्ञान में शीतल होगा तो आपके तन के परमाणु वातावरण को शीतलता देंगे । बर्फ की शीतलता अलग बात है और वह अंतःकरण की शीतलता अलग बात है । आपकी आँखों से वे शांतिदायक परम शीतल तरंगे निकलेंगी ।

नजरों से वे निहाल हो जाते हैं, जो ब्रह्मज्ञानी की नज़रों में आ जाते हैं ।

संतों के लिए कितने लोग क्या-क्या बोलते हैं, कितना-कितना कुप्रचार चलता रहता है फिर भी एक-एक सच्चे संत के पीछे हजारों लाखों-करोड़ों लोग अभी तक चल रहे हैं । हमारे गुरु जी ने हमको बुलाया नहीं था, हम ही तो गये थे और उनके सिद्धान्त पर चलने को हम स्वयं ही तत्पर हुए । संत तुलसीदास जी ने थोड़े ही किसी को न्योता दिया था ? उनके रामायण पर चलकर लोग खुद ही अपना भाग्य बना रहे हैं ।

जो लोग कुमानव हैं, कुमना हैं, शराब-कबाब के सेवन में, निंदा-चुगली में लगे रहते हैं, वे चाहे संतों के लिए भक्तों के लिए कुछ-का-कुछ बोलें फिर भी लाखों करोड़ों लोग चलते ही हैं संतों के पीछे, कुछ मिलता है उनको तभी तो !

तो तीन प्रकार के लोग हैं- कुमना लोग, सुमना लोग और महामना लोग । आप अपना नम्बर लगा दीजिये महामना में । कुमना से तो बचे तभी इधर सत्संग में पहुँचे तो अब सुमना में से भी महामना में जायेंगे, बस आप महान तत्त्व ( परमात्म तत्त्व के ज्ञान को पाने ) का उद्देश्य बना लीजिये, महान सुख पाने का उद्देश्य बना लीजिये, महान ज्ञानस्वरूप अपने ‘मैं’ को पहचानने का उद्देश्य बना लीजिये, महामना हो जाइये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 2 अंक 353

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपने जीवन में थोड़े नियम डाल दो – पूज्य बापू जी


यजुर्वेद में आया है कि व्रतेन दीक्षामाप्नोति… व्रत करने से जीवन में दक्षता आती है । दक्षता से दृढ़ता आती है, दृढ़ता से श्रद्धा में परिपक्वता आती है और श्रद्धा से परमात्मप्राप्ति की योग्यता निखर जाती है । जिसके जीवन में कोई नियम, व्रत नहीं है उसका असली विकास भी नहीं होता है ।

शास्त्र कहते हैं- सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानम्… परमात्मा तो है लेकिन सत्त्वगुण नहीं हैं, राजसी खुराक, राजसी उठना-बैठना, यह-वह… जीवन में व्रत नियम नहीं है तो आप भगत भगतड़े बन जाते हैं और ठगे भी जाते हैं कई जगहों पर ।

साँईं चाहते हैं आपका तन तंदुरुस्त रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश हो । तो आप सीधा पकड़ो न बुद्धिदाता को, जिसमें रात्रि को बुद्धि विश्राम करती है उसी को बोलोः ‘मैं जैसा-तैसा हूँ, तुम्हारा हूँ ।…’ यह एकदम सीधा संबंध है । 95 प्रतिशत तो इसी से आपकी आध्यात्मिकता सफल हो जायेगी । बाकी 5 प्रतिशत में से 2-3 प्रतिशत तुम करो, 2-3 प्रतिशत मैं साँईं के खजाने से धक्का मार दूँगा ।

मैं एकदम सरल उपाय बताता हूँ कि ईश्वर को अपना और अपने को ईश्वर का मानो । फिर व्यवहार में सच्चरित्रता हो, वाणी में विनय हो, मन में माधुर्य हो, चित्त में चैतन्य का चिंतन हो, हाथ में दान हो और मुख में नाम ( भगवन्नाम ) हो तो बेड़ा पार हो गया ! तुम्हारा तो हो गया और तुम जिसके सम्पर्क में आओगे या जो तुम्हारी वाणी सुनेगा या चिंतन करेगा उसको भी सत्संग का रंग लग जायेगा ।

सत्संग तो सुना, अब दृढ़ व्रतवाले हो जाओ । ऐसे लोगों से अपना मेलजोल न रखो जो संसार को सच्चा मानकर काम, क्रोध, लोभ, भय, चुगली, गपशप में अपना मनुष्य जीवन बरबाद कर रहे हैं । ऐसे लोगों से प्रभावित मत हो और ऐसे लोगों को महत्त्व मत दो ।

साँईं टेऊँराम जी ने कहा कि ″इन सात चीजों का ध्यान रखें- 1 सत्संग व सत्पुरुषों के अनुभव का आश्रय 2 सत्शास्त्रों का अध्ययन 3 प्रातःकालीन भगवन्नाम जप 4 थोड़ा-बोलना, थोड़ा खाना, थोड़ा सोना 5 शुद्ध आहार करना 6 ब्रह्मचर्य का पालन 7 सादगी ।″

इस प्रकार आपके अंदर सत्त्वगुण बढ़ जायेगा तो फिर बुद्धि में परमात्मा की प्राप्ति की ललक लगते ही कोई महापुरुष मिल जायेंगे तो हो जायेगा काम…

आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस ।

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस ।।

ऐसा नहीं लिखा कि मिला जीव से ईस । वास्तव में हमारा आत्मा और परमात्मा दोनों एक ही सत्ता है, जीने की वासना और बेवकूफी से ‘जीव’ कहलाते हैं और उस जीव में भी अधिक वासनाएँ हो जाती हैं तो फिर ‘जंतु’ कहलाते हैं ।

श्रीकृष्ण ने जगाने के लिए ऐसे लोगों को कड़क शब्द कहा हैः तेन मुह्यन्ति जन्तवः… जैसे दीया जल रहा है, उसमें जन्तु जल-जल के गिर रहे हैं, तप-तप के मर रहे हैं और नये आते हैं तो फिर वे भी वहीं जा रहे हैं । ऐसे ही ‘आई लव यू, आई लव यू…’ करके संसार में तबाही हुई, फिर से वही करता है मनुष्य ! तो यह जंतु जैसी आदत है । कुत्ते 6 महीने में एक बार संसारी व्यवहार करते हैं पर मनुष्य का तो आजकल बुरा हाल है फिर एण्ड्रायड फोन आ गये तो छोटी उम्र में ही क्या-क्या देख के तबाही हो रही है उसका कोई वर्णन ही नहीं है । क्या बुरा परिणाम आयेगा सोच नहीं सकते हैं ।

फिर भी झूलेलाल को प्रकट करने वाले पूर्वजों को खूब-खूब नमन है कि उन्होंने दृढ़ता से व्रत का आश्रय लेकर वरुणदेव का प्राकट्य करके  सिंधी साँईंयों के लिए द्वार खोल दिये । और वरुणदेव केवल सिंधियों के नहीं हैं, वे तो आत्मस्वरूप हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं । जो भी उनको मानेगा उसको आनंद है । जो भी उनकी सीख को मानेगा उसको लाभ है । तो अपने जीवन में व्रत, उद्देश्य की ऊँचाई आदि को पकड़ रखो, बड़ा भारी काम होगा । आपस में एकता करनी चाहिए । कलियुग में संगठन की बड़ी महिमा है । संगठन में भी भगवान के नाम का आसरा और दृढ़ता हो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 10, 27 अंक 353

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपने सुख को ज्ञान का अनुयायी बनाओ


प्रश्नः हमें यह ज्ञान तो है कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं परंतु जब सम्मुख कोई प्रलोभन या आकर्षण आ जाता है तब ज्ञान के विपरीत आचरण होने लगता है । इसका क्या कारण है ?

उत्तरः जब तक ज्ञान और सुख एक साथ रहते हैं तब तक अनुचित आचरण नहीं होता । जब सुख ज्ञान से अलग हो जाता है और ज्ञान सुख के पीछे-पीछे चलने लगता है तब अनुचित आचरण होता है । इसको यों समझिये कि हम जानते तो हैं कि झूठ बोलना अनुचित है, पाप है, चोरी करना अनुचित है, पाप है परंतु झूठ बोलने से या चोरी करने से मुझे सुख मिलेगा’ यह कल्पना हो जाती है तो मन सुख के पक्ष में हो जाता है और ज्ञान का साथ छोड़ देता है । ज्ञान स्वामी है, सुख उसका सेवक है । जहाँ ज्ञान के अनुसार आचरण होगा वह सुख साथ-साथ चलेगा । परंतु जब सुख के पीछे-पीछे ज्ञान चलने लगता है तब ज्ञान अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं रहता, विपरीत हो जाता है अर्थात् अज्ञान हो जाता है । यही कारण है कि हमारे मन में सुख का पक्षपात भर गया है और ज्ञान के अनुसार जीवन में रुचि नहीं रही है । इस रुचि को उत्पन्न करने के लिए थोड़ा कष्ट सहकर भी अपने ज्ञान के अनुसार जीवन जीना चाहिए । सुख क्षणिक होता है । ज्ञान के विपरीत होने  पर तो वह दुःखदायी भी हो जाता है । अतः तपस्या, सहिष्णुता और निष्कामता के द्वारा अपने सुख को ज्ञान का अनुयायी बनाना चाहिए तब पाप के प्रलोभन और आकर्षण अपने अंतःकरण पर प्रभाव नहीं जमायेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 23 अंक 352

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ