परिप्रश्नेन….

परिप्रश्नेन….


प्रश्नः मंत्रदीक्षा लेने से जीवन में परिवर्तन किस प्रकार होता है ?

पूज्य बापू जीः मंत्रदीक्षा का अर्थ है कि हमारी दिशा बदले, हमारा सोचने का ढंग बदले । मंत्रदीक्षा मिलते ही छूमंतर हो जायेगा ऐसा नहीं है । मंत्रदीक्षा मिलने से आपको धड़ाक-धूम हो के बस ढेर अशर्फियाँ गिर जायेंगी…. नहीं । मंत्रदीक्षा लेने से तुरंत ही आपके रोग भाग जायेंगे, आपका दुःख भाग जायेगा, आपके पाप भाग जायेंगे, आपको भगवान मिल जायेंगे….. ऐसा नहीं बल्कि मंत्रदीक्षा लेने से दिशा बदलेगी । बेवकूफी बदलने के बाद सारा बदला हुआ प्रतीत होगा । अज्ञान मिटता चला जायेगा, रस बढ़ता चला जायेगा । ज्यों-ज्यों भोजन करते हैं त्यों-त्यों भूख मिटती जाती है, पुष्टि आती जाती है ऐसे ही मंत्र का, ध्यान का अभ्यास करते-करते सुख की भूख मिटती जायेगी, सुख भीतर प्रकट होता जायेगा । और जो भीतर सुख हुआ तो बाहर किस बात का दुःख ! इससे बड़ा लाभ और हो क्या सकता है ! छूमंतर करके लॉटरी से जो रातों रात मालदार होते हैं वे भी अशांत हैं । हम न तुम्हें मालदान बनाना चाहते हैं, न कंगाल बनाना चाहते हैं, न मध्यम रखना चाहते हैं । हम तो चाहते हैं कि तुम्हारा जिसके साथ सच्चा संबंध है उस सत्यस्वरूप परमात्मा में तुम्हारी प्रीति हो जाय, उस सत्यस्वरूप का तुम्हें बोध हो जाय, आनंद आ जाय तो असत्य परिस्थितियों का आकर्षण ही न रहे । यह मिथ्या संसार तुम्हारे लिए खेल हो जाय, खिलौना हो जाय । मुक्ति और स्वर्ग भी तुम्हारे लिए नन्हें हो जायें ऐसे आत्मस्वर्ग का द्वार तुम खोल दो बस । मंत्र बड़ी मदद करता है मन-बुद्धि को बदलने में । और मन-बुद्धि बदल गये तो महाराज ! शरीर के कण तो वैसे भी सात्विक हो ही जाते हैं । और शरीर के कण सात्विक हुए तो रोग दूर रहते हैं । सुमति के प्रभाव से रोजी-रोटी में बरकत आती है, अपयश दूर होता है, यश तो बढ़ता है किंतु यश का अभिमान नहीं होता, भगवान की कथा और भगवान का दैवी कार्य प्यारा लगने लगता है – इस प्रकार के 33 से भी अधिक फायदे होते हैं ।

प्रश्नः पापी और पुण्यात्मा मनुष्य की पहचान क्या है ?

पूज्य बापू जीः पापी मनुष्य की पहचान है कि आत्मा का ख्याल नहीं, नश्वर शरीर के भोग विलास में जीवन को खपा दे, जीवन की शाम के पहले जीवनदाता को पाने का पता न पाये । किये हुए गलत निर्णय, गलत आकर्षण, गलत कर्म का पश्चाताप नहीं करे और जीवनभर उसी में लगा रहे यह पापी मनुष्य की पहचान है ।

आत्मशक्ति का, अंतर की प्रेरणा का नश्वर शरीर के लिए, उसके ऐश के लिए खर्च करना यह पापी मनुष्य की पहचान है और शाश्वत आत्मा के लिए शरीर का उपयोग करना यह पुण्यात्मा मनुष्य की पहचान है । भाई ! शरीर है तो चलो, इससे ज्ञान-ध्यान होगा इसलिए इसे जरा खिला दिया । ऐसा नहीं कि ऐश-आराम चाहिए, सुविधा चाहिए । सुविधा लेने में जो पड़ता है वह आत्मा का उपयोग करके शरीर को महत्त्व देता है और जो भगवान की तरफ चलता है वह शरीर का उपयोग करके भगवद्भाव, भगवद्ज्ञान को महत्त्व देता है ।

सही कर्म क्या है, सही निर्णय क्या है ? आत्मा की उन्नति, आत्मा की प्राप्ति…. और देह उसका साधन है – यह सही निर्णय है और इसके अनुरूप कर्म सही कर्म हैं । देहें कई मिलीं और कई चली गयीं फिर भी जो नहीं जाता उस अंतर्यामी परमात्मा को पहचानने की दृष्टि आये तो यह पुण्यात्मा की दृष्टि है और देह की सुख-सुविधाओं में अपने को गरकाब करते रहना, दुष्कर्म, दुराचार में लगे रहना यह पापी चित्त की पहचान है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2020, पृष्ठ संख्या 34 अंक 331

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