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वासना-प्रधान नहीं विवेक-प्रधान व्यवहार हो – पूज्य बापू जी


पति पत्नी को बोलता है कि ‘भोग-वासना में सहयोग देना तेरा कर्तव्य है ।’ और पत्नी समझती है कि ‘तुम हमारी वासना के पुतले बने रहो यह तुम्हारा कर्तव्य है ।’ नहीं-नहीं, ये दोनों एक दूसरे को खड्डे में गिराते हैं । पति सोचे कि ‘पत्नी के चित्त, शरीर और मन में आरोग्यता आये, ऐसा सत्संग, ऐसा संग, ऐसे विचार देना या दिलाने की व्यवस्था करना मेरा कर्तव्य है’ और पत्नी चाहे कि ‘पति की कमर न टूटे, कमर मजबूत रहे, शरीर मजबूत रहे, मन मजबूत रहे ऐसे व्यवहार, खुराक और सेवा से, ऐसे आचरण से पति के तन की, मन की बुद्धि की और आत्मा की उन्नति करना मेरा कर्तव्य है ।’

तो कर्तव्य बुद्धि से पति पत्नी को देखे और पत्नी पति की सेवा करे तो दोनों एक दूसरे के गुरु होकर गुरुपद में जगने में सफल हो सकते हैं । लेकिन पत्नी चाहे कि ‘पति मेरे कहने में चले’ और पति चाहता है कि ‘पत्नी मेरे कहने में चले’ तो यह विवेक की कमी है । विवेक की कमी होने से व्यक्ति दूसरे को अपने अधिकार के अधीन करना चाहता है । यह समझता नहीं कि जो तुम्हारा है वह औरों का भी है, बहुतों का है । पति तुम्हारा है तो वह किन्हीं माँ-बाप का बेटा भी तो है, उसको उधर भी कर्तव्य निभाने दो और किन्हीं गुरु का शिष्य भी है, उधर भी उसको कर्तव्य निभाने दो । लोग जिसको अपना मानते हैं उससे विवेक-प्रधान व्यवहार नहीं करते, वासना-प्रधान व्यवहार करते हैं । जब अपने वालों के साथ वासना-प्रधान व्यवहार होता है तो अविवेक जगता है, आसुरी भाव जगता है और जब अपने वालों के प्रति विवेक-प्रधान व्यवहार होता है तो सुर भाव – देवत्व भाव जगता है और दैवी गुणों की सम्पदा हमारे चित्त में आती है – निर्भयता, तत्परता, सद्गुरु-उपासना, ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर उपासना) आदि सद्गुण विकसित होते हैं और दैवी सम्पदा के 26 लक्षणों में से जितने-जितने लक्षण जितने अंश में बढ़ते हैं उतने अंश में हम अपने आत्मदेव की निकटता का अनुभव करते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 349

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बुद्धि का विकास और नाश कैसे होता है ? – पूज्य बापू जी


बुद्धि का नाश कैसे होता है और विकास कैसे होता है ? विद्यार्थियों को तो खास समझना चाहिए न ! बुद्धि नष्ट कैसे होती है ? बुद्धि शोकेन नश्यति । भूतकाल की बातें याद करके ‘ऐसा नहीं हुआ, वैसा नहीं हुआ…’ ऐसा करके जो चिंता करते हैं न, उनकी बुद्धि का नाश होता है और ‘मैं ऐसा करके ऐसा बनूँगा…’ यह चिंतन बुद्धि-नाश तो नहीं करता लेकिन बुद्धि को भ्रमित कर देता है । और ‘मैं कौन हूँ ? सुख-दुःख को देखने वाला कौन ? बचपन बीत गया फिर भी जो नहीं बीता वह कौन ? जवानी बदल रही है, सुख-दुःख बदल रहा है, सब बदल रहा है इसको जानने वाला मैं कौन हूँ ? प्रभु ! मुझे बताओ…’ इस प्रकार का चिंतन, थोड़ा अपने को खोजना, भगवान के नाम का जप और शास्त्र का पठन करना – इससे बुद्धि ऐसी बढ़ेगी, ऐसी बढ़ेगी कि दुनिया का प्रसिद्ध बुद्धिमान भी उसके चरणों में सिर झुकायेगा ।

रमण महर्षि के पास पॉल ब्रंटन कैसा सिर झुकाता है और रमण महर्षि तो हाई स्कूल तक पढ़े थे । उनकी कितनी बुद्धि बढ़ी की मोरारजी भाई देसाई कहते हैं- ″मैं प्रधानमंत्री बना तब भी मुझे उतनी शांति नहीं मिली, उतना सुख नहीं मिला जितना रमण महर्षि के चरणों में बैठने से मिला ।″ तो आत्मविश्रांति से कितनी बुद्धि बढ़ती है, बोलो ! प्रधानमंत्री पर भी कृपा करने योग्य बुद्धि हो गयी रमण महर्षि की ।

जप करने से, ध्यान करने से बुद्धि का विकास होता है । जरा-जरा बात में दुःखी काहे को होना ? जरा-जरा बात में प्रभावित काहे को होना ? ‘यह मिल गया, यह मिल गया…’ मिल गया तो क्या है ! ज्यादा सुखी-दुःखी होना यह कम बुद्धि वालों का काम है । जैसे बच्चे की कम बुद्धि होती है तो जरा-से चॉकलेट में, जरा-सी चीज में खुश हो जाता है और जरा-सी चीज हटी तो दुःखी हो जाता है लेकिन जब बड़ा होता है तो चार आने का चॉकलेट आया तो क्या, गया तो क्या ! ऐसे ही संसार की जरा-जरा सुविधा में जो अपने को भाग्यशाली मानता है उसकी बुद्धि का विकास नहीं होता और जो जरा-से नुकसान में अपने को अभागा मानता है उसकी बुद्धि मारी जाती है । अरे ! यह सपना है, आता-जाता है । जो रहता है उस नित्य तत्त्व में जो टिके उसकी बुद्धि तो गजब की विकसित होती है ! सुख-दुःख में, लाभ-हानि में, मान-अपमान में सम रहना तो बुद्धि परमात्मा में स्थित रहेगी और स्थित बुद्धि ही महान हो जायेगी ।

बुद्धि बढ़ाने के 4 तरीके

एक तो शास्त्र का पठन, दूसरा भगवन्नाम-जप करके फिर भगवान का ध्यान, तीसरा पवित्र स्थानों ( जैसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के आध्यात्मिक स्पंदनों से सम्पन्न आश्रम ) में जाना और चौथा परमात्मा को पाये हुए महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य – इन 4 से तो गजब की बुद्धि बढ़ती है !

विद्या के 6 विघ्न

स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्व प्रेमभावोऽथ भोगिता ।

अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ।।

‘स्वच्छन्दता अर्थात् मनमुखता, धन की इच्छा, किसी के ( विकारी ) प्रेम में पड़ जाना, भोगप्रिय होना, अनम्रता, आलस्य – ये 6 विद्या के विघ्न हैं ।’ ( सुभाषितरत्नाकर )

बल ही जीवन है

बल ही जीवन है, दुर्बलता मौत है । जो नकारात्मक विचार करने वाले हैं वे दुर्बल हैं, जो विषय विकारों के विचार में उलझता है वह दुर्बल होता है लेकिन जो निर्विकार नारायण का चिंतन, ध्यान करता है और अंतरात्मा का माधुर्य पाता है उसका मनोबल, बुद्धिबल और आत्मज्ञान बढ़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 18, 19 अंक 349

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बल ही जीवन है – पूज्य बापू जी



बल ही जीवन है, दुर्बलता मौत है । जो नकारात्मक विचार करने
वाले हैं वे दुर्बल हैं, जो विषय-विकारों के विचार में उलझता है वह दुर्बल
होता है लेकिन जो निर्विकार नारायण का चिंतन, ध्यान करता है और
अंतरात्मा का माधुर्य पाता है उसका मनोबल, बुद्धिबल और आत्मज्ञान
बढ़ता है ।