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हर हृदय में ईश्वर हैं फिर भी दीनता-दरिद्रता क्यों ?


सारे शास्त्रों की घोषणा है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वत्र विद्यमान है । यह सत्य है पर इससे व्यक्ति के अंतःकरण की समस्याओं का समाधान नहीं होता है । संत तुलसीदास जी कहते हैं-

अस प्रभु हृदयँ अछल अविकारी ।

सकल जीव जग दीन दुखारी ।। ( श्री रामचरित. बा. कां. 22.4 )

ऐसा ईश्वर जो प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में अविकारी रूप में विद्यमान है, उसके रहते हुए भी व्यक्ति के हृदय की दीनता और दरिद्रता में कोई अंत दिखाई नहीं देता है ।

फिर आगे कहते हैं-

नाम निरूपन नाम जतन तें ।

सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ।।

भगवन्नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) भगवन्नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक भगवन्नाम-जपरूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न जानने से उसका मूल्य ।

रत्न आपके पास हो या मार्ग में कहीं पड़ा हुआ मिल जाय पर अगर आपको ऐसा लग रहा हो कि ‘यह काँच का टुकड़ा है’ तो रत्न पास होने पर भी उसके द्वारा सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं । इसलिए आवश्यकता है किसी रत्न पारखी जौहरी की जो आपको बता सके कि ‘यह काँच का टुकड़ा नहीं बल्कि कीमती रत्न है ।’ यद्यपि वही रत्न पहले भी था पर ज्ञान के अभाव में उस समय आनंद की अनुभूति नहीं हो रही थी और ज्ञान होते ही जीवन में प्रसन्नता होने लगी ।

रत्न पास होने पर भी उससे न शीत का निवारण होगा, न भूख मिटेगी और न दरिद्रता ही मिटेगी । जब जौहरी परखकर बता दे कि ‘यह हीरा है ।’ तब हमारे अंतःकरण में विश्वास होगा । बिना जानकारी वाला व्यक्ति कहे तो उसके कथन पर हमें विश्वास नहीं होगा । पारखी अर्थात् सद्गुरु… जिन्होंने रत्न के मूल्य को अर्थात् भगवन्नाम जप की महिमा को जाना है तथा जिनके प्रति हमारे मन में पूर्ण विश्वास है । संत तुलसीदास जी इसको समझाते हुए कहते हैं कि ‘पहले हम रत्न को जानें, फिर रत्न को देकर उसका मूल्य प्राप्त करें और फिर मूल्य से जब अन्न, वस्त्र तथा अन्य वस्तुएँ ले आयेंगे तो उनके उपयोग से हमारी शीत, भूख आदि का निवारण होगा ।’

मंत्रजप का स्वरूप भी ठीक इसी प्रकार का है । सद्गुरु से मंत्र की दीक्षा लेकर उसका जप करना चाहिए । ‘मंत्र सद्गुरु-प्रदत्त हो’ कहने का अभिप्राय यही है कि सद्गुरु रत्नों के पारखी हैं, जो उसके मूल्यों को जानते हैं । भगवन्नाम के पारखी सद्गुरुदेव से भगवन्नाम का अर्थ समझकर उसका अर्थ चिन्तनपूर्वक जप करने से साधक निहाल हो जाता है ।

ईश्वर निर्गुण-निराकार रूप में सर्वव्यापक होते हुए भी व्यक्ति की समस्या ( हृदय की दीनता-दरिद्रता आदि ) का समाधान तब तक नहीं कर पायेगा । जब तक व्यक्ति को सद्गुरु द्वारा उसे हृदय में प्रकट करने की कला का ज्ञान न हो जाय और वह उस ज्ञान को जीवन में न ले आये । फिर जैसे रत्न से मूल्य प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार सर्वव्यापक ईश्वर भी हमारे अंतःकरण में सत् रूप, चेतनरूप, आनंदरूप में प्रकट होकर हमारी समस्याओं का समाधान करते हैं ।

ईश्वर का होना तो ठीक है लेकिन ईश्वर की स्मृति और ईश्वर का ज्ञान न होने के कारण ईश्वर का हमारे साथ होना भी न होने के बराबर हो रहा है । – पूज्य बापू जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 11, 13 अंक 347

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…ऐसों से नहीं ब्रह्मवेत्ता, महापुरुषों से ही मंगल होता है – पूज्य बापू जी


जो अपने को सुधारने से बचाना चाहता है वही जल्दी गुरु बनने का शौक रखता है । जो अपने को उपदेश देने से कतराता है वही उपदेशक बनने का शौक रखता है । अपने को उपदेश दो । दूसरों को उपदेश देने में, दूसरों को ठीक करने में मत लगो, अपने को ठीक करने में लगो फिर तुम जो बोलोगे वह उपदेश हो जायेगा । और तुम्हारी दृष्टि जिधर जायेगी उधर पवित्र वातावरण हो जायेगा ।

जो लोग उपदेश देने या सत्संग करने के बहाने गुरु या उपदेशक बनने की कोशिश करते हैं वे यदि सावधान नहीं रहे तो मुँह के बल गिरते हैं । मेरा एक गुरुभाई था, मुझे बेचकर चने खा जाय और मुझे पता भी न चले इतना होशियार था । बहुत सुंदर लेक्चर करता था । मैं सत्संग नहीं बोल रहा हूँ, ‘लेक्चर’ बोल रहा हूँ । मेरे को तू-तड़ाके की भाषा से संबोधित करता था फिर भी मैं उसको मान देता था ।

जगद्गुरु शंकराचार्य जैसे लोग उसका लेक्चर सुनने के लिए लालायित रहते थे ऐसा उपदेशक था लेकिन बाद में ऐसा मुँह के बल गिरा कि उसका अंत समय बहुत दयाजनक हो गया ।

लोगों ने वाहवाही की फिर किसी ने एक प्रश्न किया तो उसने जवाब दिया ।

लोगों ने कहाः ″लीलाशाहजी बापू तो इस बारे में ऐसा बोलते हैं ।″

वह बोलाः ″क्या करें, बापू जी (साँईं श्री लीलाशाह जी) ने उपनिषदें नहीं पढ़ीं, बापू जी शास्त्र नहीं जानते ।″

अब वह मूर्ख मेरे गुरु जी का शिष्य था और बोलने लगा कि ″बापू जी ने नहीं पढ़ा ।″

बापू जी पढ़ा तो नहीं था परंतु सारी पढ़ाई जहाँ से आती है, बापू जी तो वहाँ पहुँचे थे । मेरे गुरुदेव तो हस्ताक्षर करने में भी कुछ मिनट लगाते थे, इसका मतलब शायद ‘क ख ग…’ भी विद्यालय में जा के सीखे होंगे या नहीं ! फिर भी मेरे गुरुदेव बड़े-बड़े लोगों को ऐसा सिखाते थे कि लोग दंग रह जायें ! मेरे गुरुदेव जी उसके भी तो गुरु जी थे ।

भक्तों ने जा के साँईं जी (श्री लीलाशाह जी महाराज) को कहा तो वे नाराज हो गये । साँईं ने कहाः ″अच्छा, तू पढ़ा-लिखा है तो जा भटक ।″

गुरुजी के हृदय से वह उतर गया तो अंत में ऐसे भटक-भटक के मर गया ।

एक बार तो अहमदाबाद में भी भीख माँगने आया । मुझसे बोलाः ″मैं आश्रम बनाना चाहता हूँ, आप पैसे दो !″ किसी से 25 रुपये लेता, किसी से 50 रुपये लेता ।

बोलताः ″कोई 100 रुपये दे तो मैं अपने आश्रम में उनका नाम लिखूँगा ।″

कहाँ उपदेशक, धर्मगुरु और कहाँ 50-100 रुपये की भीख माँगे ! कितना गिर गया ! इसलिए जब तक सद्गुरु-तत्त्व का बोध नहीं होता तब तक उपदेशक बनना, गुरु बनना खतरे से खाली नहीं है । हाँ, और मजहबों में प्रचारक हैं, जैसे पादरी आदि ये पगार ले के अपना करते हैं, वह उनकी अपनी जगह है लेकिन सद्गुरुओं की ऊँचाई अपनी है ।

लाख पगारदार प्रचारक मिलकर भी हमारा उतना मंगल नहीं कर सकते हैं जितना एक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का अस्तित्वमात्र हमारा मंगल कर सकता है । उनको छूकर जो हवाएँ जाती हैं वे भी बहुत काम करती हैं फिर उनकी वाणी और दृष्टि का तो कहना ही क्या है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 6, 10 अंक 347

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ढोंगी ठगों से सावधान बनो – साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज



संत असंत पहचानो । ढोंगी लोग क्या करते हैं कि ‘कन्या-मन्या
कुर्र… तू मेरा चेला, मैं तेरा गुर्र… रूपये की थैली इधर धर, तू चाहे तर
चाहे मर ।’ आज यह हाल है । उन ढोंगी लुटेरों से बचो । गुरु अर्थात्
पिता, गुरु होना हँसी की बात है क्या ? अतः ठगों से सावधान बनो ।
सत्पुरुष बिल्कुल थोड़े हैं । वह सवार ही नहीं जिसने घोड़े से धक्का न
खाया हो, ऐसे ही वह गुरु न होगा जो शिष्य न बना हो ।
कन्या मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र… – पूज्य बापू जी
अति परिचयात् अवज्ञा । देखो, आजकल कुछ लोग ऐसे हैं जिनको
(दूसरों के) गुरुमंत्र बदलने और गुरु बनने का शौक है । खुद गुरु बनने
का प्रयास करते हैं । मेरे गुरु जी सत्संग में कहते थेः कन्या-मन्या
कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र… (ठग महिला गुरु बन बैठी हो तो ऐसा
कहना पड़ेगाः ‘कन्या मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र…) हम भी
बार-बार बोलते हैं ।
मेरे गुरुदेव हँसी-हँसी में कह देते कि
गोपो वीझी टोपो गिस्की वेठो गादीअ ते..
गोपा गुरुपद का टोपा डाल के गद्दी पर बैठ गया कि मैं भी गुरु हूँ
लेकिन गुरुओं की कमाई तो करनी पड़ती है । गुरु-तत्त्व, परमेश्वर को
पाना होता है न, हम तो रात्रियाँ जगह हैं । गुरुओं के उपदेश को राम
जी सुनते और रात भर विचार करते । प्रभात को फिर संध्या करते और
सत्संग में पहुँचते थे । भगवान भी गुरुपद के आगे शिष्य बन जाते हैं ।
ऐसा गुरुपद कोई मजाक की बात नहीं है । लेकिन आजकल कुछ लोग
हमारे चेलों को अपने चेले बना लेते हैं । हमने किसी शिष्य को ‘ॐ गुरु’

मंत्र दिया, यह वैदिक मंत्र है । वे उसके गुरु बन के बोलते हैं- ‘गुरु ॐ –
यह मंत्र जपो ।”
गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मन्तत्रत्यागाद्दरिद्रता ।
गुरुमंत्रपरित्यागी रौरवं नरकं व्रजेत ।।
गुरु का त्याग करने से (सूझबूझ , अपनी अमरता के ज्ञान की,
स्वास्थ्य सुख-शांति की) मृत्यु होती है (और जीवत्व बना रहकर जन्म
मृत्यु होते रहते हैं) । मंत्र को छोड़ने से दरिद्रता आती है और गुरु एवं
मंत्र दोनों का त्याग करने से रौरव नरक मिलता है (वर्तमान जीवन में
भी नारकीय दुःख, अशांति प्रवेश करते है) ।
वह तन-मन-धन से दरिद्र हो जाता है । न घर का न घाट का ।…
उनकी गति दयनीय होती है । खैर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता । सबका
मंगल, सबका भला हो । साधना में लग जाओ ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 346
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