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व्यवहार में ये 5 बातें लाओ, फिर देखो… – पूज्य बापू जी



अपने अल्प जीवन में मनुष्य ऐसा काम करे कि चौरासी-चौरासी
लाख योनियों के बंधन कट जायें, ऐसा काम न करें कि चौरासी लाख
योनियों में भटकता रहे, दुःखी होता रहे । जिसको अंतःकरण की शुद्धि
करनी है उसको व्यवहार में 5 बातें ध्यान में रखनी चाहिए।

  1. स्वार्थ का त्यागः मेहमान को खिलाओ-पिलाओ, किसी से मिलो
    पर ‘ये भाई साहब काम आयेंगे, वे साहब काम आयेंगे…’ इस भाव से
    मत मिलो । इस भाव से मिलोगे तो उतना काम नहीं आयेंगे जितना
    निःस्वार्थ भाव से मिलोगे तो काम आयेंगे । तो स्वार्थ रखकर जब तुम
    गिड़गिड़ाते हो तो अंदर से छोटे हो जाते हो और तुम्हारा दूसरे विद्यार्थी
    लोग उठा लेते हैं । तुम जब निःस्वार्थ हो के मिलते हो और व्यवहार
    करते हो तब सामने वाले के हृदय में जो हृदयेश्वर बैठा है वह तुम्हारे
    लिए ठीक मदद करने के लिए उसको प्रेरित कर देगा । तो ‘ये साहब
    मददरूप होंगे, ये साहब काम आयेगे, फलाना काम आयेगा, ढिमका काम
    आयेगा…’ इस प्रकार के आकर्षण से अंतःकरण मलिन करके जो व्यवहार
    किया जाता है उसका फल मधुर नहीं होता है । व्यवहार करो उत्तम ढंग
    से, स्वार्थ त्याग करके, स्नेह से ।
    मोह, स्वार्थ से बच्चों को पालना, परिवार को पालना, स्वार्थ या
    मोह से पति की सेवा करना या पत्नी को खुश रखना – इससे तो पति-
    पत्नी या कुटुम्बी एक-दूसरे के शत्रु हो जाते हैं । परमात्मा को प्रसन्न
    करने के नाते पति की सेवा करो और परमात्मा को प्रसन्न करने की
    खातिर पत्नी का पोषण करो और बच्चों में जो परमात्मा है उसकी सेवा
    की खातिर बच्चों का पालन करो । ऐसा नहीं कि बच्चे बड़े होंगे फिर
    हमारी सेवा करेंगे, हम बूढ़े होंगे तब बच्चे हमको कमा के खिलायेंगे ।

इस भाव से जो बच्चों को पोसते हैं उनके बच्चे बड़े होकर उनको ऐसा
दुःख देते हैं कि वे बूढ़े हो के ताकते ही रह जाते हैं कि ‘हमने इतनी-
इतनी मेहनत की, इसे पाल-पोसकर बड़ा किया, क्या-क्या इच्छाएँ रखीं,
उम्मीदें कीं और अब पत्नी आ गयी तो हमसे अलग हो गया !’ ऐसे
लोग कराहते रहते हैं । जो भरोसा ईश्वर पर करना चाहिए वह चीज़
वस्तु और स्वार्थियों पर किया तो अंत में धोखा और पश्चाताप ही हाथ
लगेगा । जो प्रेम परमात्मा से करना चाहिए था वह प्रेम पुत्र-परिवार से
किया, जो कर्म ईश्वर के नाते करने चाहिए थे वे कर्म तुमने स्वार्थ के
नाते किये इसलिए बुढ़ापे में रोना पड़ रहा है । जो भरोसा परमेश्वर पर
रखना चाहिए था वह भरोसा अगर पुत्रों पर रखा तो जरूर गड़बड़ कर
देगा । तो तुम भरोसा तो भगवान पर रखो और कर्म संसार में करो ।
कनिष्ठ व्यवहार नहीं, पापाचार नहीं, अच्छा सुन्दर, पवित्र व्यवहार
करो । सेल्समैन भी अच्छी मीठी बातें कर सकता है किंतु उसके पीछे
उसका स्वार्थ होता है और यह जरूरी नहीं क सेल्समैन मीठी बातें करता
है तो वह सदा के लिए सुखी हो जाता है, नहीं । व्यवसाय के तौर पर
सेल्समैनशिप करो, मीठी बातें करो लेकिन उसमें स्वार्थ न रखो तो भी
सेल्समैनशिप तो चलेगी ।
नज़र बदली तो नज़ारे बदले ।
किश्ती ने बदला रूख तो किनारे बदले ।।
किश्ती रूख बदले तो किनारे बदल जायेंगे ऐसे ही जो स्वार्थमयी
बुद्धिवृत्ति है उसमें निःस्वार्थता, हित की भावना आ जाय तो जीवन के
नज़ारे बदल जायेंगे । जिन दुःख, पीड़ा, मुसीबत, अशांति, समस्या और
चिंता में मरे जा रहे हैं उनकी जगह सुख, शांति निर्भीकता, आनन्द आने

लगेंगे और यहाँ भी सुखी और परलोक में भी सुखी – ऐसा मार्ग मिल
जायेगा ।
परहित बस जिन्ह के मन माहिं ।
तिन्ह कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ।।
(श्री रामचरित. अर.का. 30.5)
जिनके चित्त में दूसरों की भलाई छुपी है और जो दूसरों की भलाई
के लिए सब काम करते हैं उनके लिए जगत में दुर्लभ कुछ भी नहीं
होता है । ऐहिक चीजें भी दुर्लभ नहीं होती और भगवान भी उनके लिए
दुर्लभ नहीं होते हैं ।
तस्याहं सुलभः पार्थ… (गीताः 8.14)
संत कबीर जी ने कहा हैः
कबिरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर ।
पीछे-पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ।।
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये सद्गुरु मिलें तो भी सस्ता जान ।।
वह सद्गुरुदेव आत्मतत्त्व आपको मिल सकता है चालू व्यवहार में,
जैसे सच्चाई से व्यवहार करने वाले तुलाधार व्यापारी को मिला ।

  1. अहंकार का त्यागः जीवन अहंकार को सजाने के लिए नहीं.
    परमात्मा से प्रीति करने के लिए है । धन का अहंकार, सत्ता का अहंकार,
    सौंदर्य या बुद्धिमत्ता का अहंकार निरहंकार नारायण साथ में होते हुए भी
    उससे मिलने नहीं देता । जो धन, बुद्धि, योग्यता घमंड करता है वह
    जीवन में सच्ची उन्नति नहीं कर पाता । वह रावण की नाई करा-कराया
    चौपट कर देता है । लेकिन सद्गुरु वसिष्ठ जी का सान्निध्य-सत्संग
    पाकर श्रीराम जी आप अमानी रहते और दूसरों को मान देते । वे कभी

किसी को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करते, अहंकार-अभिमान को परे
ही रखते थे ।

  1. सत्य-आचरणः सत्य के आचरण से अंतर्यामी ईश्वर प्रसन्न होते
    हैं, अपने सत्य स्वरूप के प्रति निष्ठा दृढ़ होती है एवं हृदय में ईश्वरीय
    शक्ति, शांति, प्रेरणा प्रकट हो जाती है, ईश्वरप्रसादजा मति बनती है ।
    सत्यनिष्ठ व्यक्ति के सामने चाहे कैसी भी विपत्ति आ जाय, वह सत्य
    का त्याग नहीं करता ।
    सब धर्म अपने पूर्ण कर, छोटे बड़े से या बड़े ।
    मत सत्य से तू डिग कभी, आपत्ति कैसी ही पड़े ।।
    सत्य का आचरण करने वाला निर्भय रहता है । उसका आत्मबल
    बढ़ता है । असत्य से सत्य अनंत गुना बलवान है । जो बात-बात में
    झूठ बोल देते हैं उनका विश्वास कोई नहीं करता है । फिर एक झूठ को
    छिपाने के लिए कई बार झूठ बोलना पड़ता है । अतः इन सब बातों से
    बचने के लिए पहले से ही सत्य का आचरण करना चाहिए । सत्य का
    आचरण करने वाला सदैव सबका प्रिय हो जाता है ।
    शास्त्रों में भी आता हैः सत्यं वद । धर्मं चर । सत्य बोलो । धर्म
    का आचरण करो ।’ (तैत्तीरीय उपनिषद)
    जीवन की वास्तविक उन्नति सत्य में ही निहित है । सत्यवादी
    राजा हरिश्चन्द्रजी और गाँधी जी की सत्यता की सुवास अब भी महक
    रही है ।
  2. विनयः विनययुक्त व्यवहार जो है वह शत्रु को भी अपना मित्र
    बना लेता है तो मित्र को अपना बनाने में देर कितनी ! और मित्रों का
    मित्र परमात्मा है, उसको अपना बनाने में देर कितनी भैया ! तो अपने
    व्यवहार में विनय हो, वाणी में विनय हो । नम्र व्यक्ति बड़े-बड़े कष्टों

और क्लेशों से छूट जाता है और दूसरों के हृदय में भी अपना प्रभाव
छोड़ जाता है । नम्रता व्यक्ति को महान बनाती है लेकिन इसका
मतलब यह नहीं है कि जहाँ-तहाँ ठगों, बदमाशों और लच्चों को भी
प्रणाम करते रहें । नम्रता कहाँ और कैसे दिखानी है यह विवेक भी होना
चाहिए । अपने से छोटे लोगों से मिलो तब करुणा रखो । अपने से
उत्तम व्यक्तियों से मिलो तब हृदय में आदर-रखो । आत्मवेत्ता सत्पुरुषों
से मिलो तब हृदय में श्रद्धा, भक्ति एवं विनय रखो । अपने समकक्ष
लोगों से व्यवहार करने का प्रसंग आने पर हृदय में भगवान श्रीराम की
तरह प्रेम रखो । अति उद्दंड लोग तुम्हारे सम्पर्क में आकर अगर बदल
न पायें तो ऐसे लोगों से दूर रह के अपना समय बचाओ ।

  1. प्रेमः तुम्हारे जीवन में प्रेम हो । जहाँ प्रेम होता है न, वहाँ
    परिश्रम का ख्याल नहीं होता । जैसे 8 साल की बच्ची अपने नन्हें-मुन्ने
    भाई को प्यार करती है तो 4-6 किलो के भाई को उठाकर 4 मंजिल
    तक ऊपर ले जाती है । उसे कोई कहे कि अरे ! 10 मिनट पहले 1
    लिटर दूध लाने के लिए कहा तो तू बोल रही थी कि ‘मेरे से न उठेगा !
    और अब….’
    तो वह बोलती हैः ‘नहीं-नहीं, इसमें कोई वज़न नहीं ।’ क्योंकि भैया
    से प्रेम है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ बोझा नहीं लगता और जहाँ प्रेम नहीं
    है वहाँ थोड़ा सा काम भी बोझा हो जाता है ।
    तो व्यवहार में ये 5 बातें आ जायें तो अंतःकरण शुद्ध होगा ।
    शुद्ध अंतःकरण वाला ध्यान में बैठेगा तो ध्यान जल्दी लगेगा, ज्ञान की
    बात उसे जल्दी समझ में आयेगी, ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को पहचानने की
    बुद्धि मिल जायेगी, उनके उपदेश को झेलने की बुद्धि मिल जायेगी ।
    स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 23-25 अंक 362

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अब ‘आर बेला नाई’ – पूज्य बापू जी



कोलकाता की एक घटना है । किसी सेठ के यहाँ दूध देने वाली
ग्वालिन आती थी । उसने दूध देने के बाद मुनीम से पैसे माँगे । मुनीम
ने कहाः “अभी थोड़ा हिसाब कर रहा हूँ, बाद में आना ।”
वह गयी, उसको जहाँ कहीं दूध देना था, देकर थोड़ी देर के बाद
आयी । मुनीम व्यस्त था, उसने फिर कहाः “थोड़ी देर के बाद आना ।”
उसको जो कुछ खरीदना था, खरीद के फिर आयी । मुनीम ने
कहाः “इतनी जल्दी क्या है, जरा बाद में आना ।”
‘बाद में, बाद में….’ करते-करते शाम हो गयी । ग्वालिन को सूरज
डूबता हुआ दिखा । उसने कहाः “मुनीम जी हमको पैसा दे दो ।”
मुनीम ने कहाः “तू चक्कर मार के आ जा । मैं इतना थोड़ा सा
काम कर लूँ फिर दे दूँगा पैसे ।”
जाकर आयी तब तक सूरज डूब गया । अब तो ग्वालिन ने मुनीम
की तरफ ताका कि ‘यह काम कब निपटायेगा, कब पूरा करेगा !’
ग्वालिन का धैर्य टूटा और उसने झिड़कते हुए कहाः “पैसा दे दो, अब
मेरे पास समय नहीं है, जल्दी करो… पैसा दे दो ।”
उसकी झिड़कने वाली आवाज सेठ के कानों में पड़ी । ग्वालिन ने
फिर कहाः “बाबा ! पैसा दे दो । आर बेला नाई…’ यानी अब और समय
नहीं है ।
सेठ का कोई पुण्य उदय हुआ । सेठ ने मुनीम को कहाः “मुनीम !
आर बेला नाई… जिंदगी के दिन बीत गये, काम समेटो ।”
मुनीम चौंका । सेठ कहता हैः “इसमें आश्चर्य करने की बात नहीं
है, उसने ठीक कहा है । मेरे भी 50 वर्ष हो गये, अब ज्यादा समय नहीं
जिंदगी ।”

बहुत पसारा मत करो, कर थोड़े की आस ।
बहुत पसारा जिन किया, वे भी गये निराश ।।
क्या करिये क्या जोड़िये, थोड़े जीवन काज ।
छोड़ी-छोड़ी सब जात है, देह गेह (घर) धन राज ।।
हाड़ (कुल या वंश की परम्परा से मनुष्य का गौरव महत्त्व)
बढ़ा हरिभजन कर, द्रव्य (धऩ) बढ़ा कछु देय ।
अक्ल बढ़ी उपकार कर, जीवन का फल एह (यह) ।।
अक्ल बढ़ी आत्मज्ञान पा, जीवन का फल एह ।
सेठ का पुण्य मानो उसके भीतर उभर-उभरकर प्रेरणा दे रहा हैः
“आर बेला नाई ।”
और, और, और… नहीं, जितने है उसमें से भी समेटकर समय
बचाओ ।
पानी केरा बुलबुला (पानी के बुदबुदे के समान), यह मानव की
जात ।
देखत ही छुप जात है, ज्यों तारा प्रभात ।।
कबिरा यह तन जात है, राख सके तो राख ।
खाली हाथों वे गये जिन्हें करोड़ और लाख ।।
मानो उसका अंतरात्मा उसको झकझोर रहा है ‘अब और समय नहीं
है ।’
सेठ ने कहाः “मुनीम ! जल्दी करो, काम समेटो, अब मुझे व्यापार
नहीं करना है, विस्तार नहीं करना है ।” और वह बुद्धिमान सेठ
वास्तविक सेठ होने के रास्ते चल पड़ा ।
‘जितना है उतने का मैं तो क्या, मेरे पुत्र और पौत्र तक ब्याज भी
नहीं खा सकते हैं, फिर ‘हाय-हाय’ कब तक ? अब हरि-हरि करना है ।’

उसने बना रखी थी अपने घऱ में एक छोटी-मोटी कुटिया । थोड़ा बहुत
ध्यान भजन करता था ।
ध्यान का फल यह है कि अपनी बुद्धि की बेवकूफी देखने लग
जाय, अपने मन की मलिनता दिखने लग जाय । अपने बंधनों को
व्यक्ति देखने लग जायेगा, ध्यान ऐसी चीज है ।
सेठ 1-2 घंटा सुबह-शाम जो ध्यान-भजन करता था, उसने उसे
अब और बढ़ाया । तीर्थों में रहने लगा और विरक्त ब्रह्मवेत्ता महापरुषों
का संग करने लगा । सेठ के पुण्यपुंज से, ध्यान-भजन के प्रभाव से
बच्चों की बुद्धि भी शुद्ध रही । बच्चे जितना सँभाल सके, उनको
सँभलाया ।
अपनी बुद्धि को शुद्ध रखना है तो कमाई का 10 प्रतिशत दान-
पुण्य किया करो और वह दान-पुण्य भगवान के रास्ते जाने वालों की
सेवा में लगेगा तो दान होगा और गरीब गुरबे, अनाथ को दोगे तो वह
दया होगी ।
भगवान का एक ऐसा करुणामय प्रसाद उसके चित्त में प्रकट हुआ
कि उसे सत्संग रुचने लगा और विवेक जग गया । ‘जिसे सँभाल-सँभाल
के मर जाओ फिर भी वह न सँभले वह क्या है और जिससे हजार बार
विमुख हो जाओ फिर भी जो न मिटे वह क्या है ? सदियों से जिसको
पीठ देकर बैठे हैं फिर भी जो नहीं मिटता है वह मेरा ‘मैं’ चैतन्य आत्मा
है और जिसे युगों से सँभालते आये और हर जन्म में मृत्यु के झटके ने
छीन लिया वह माया है । पिछले जन्म में भी सँभाला था पुत्र को,
परिवार को, धन को, यौवन को किंतु मृत्यु के एक झटके ने सब पराया
कर दिया । उससे पहले भी यही हाल हुआ, उससे पहले भी, उससे पहले

भी… और इस वक्त भी यही होने वाला है ।’ ऐसा उसकी बुद्धि में
विवेक जगा ।
सत्संग का फल यह है कि विवेक जग जाय । नित्य क्या है,
अनित्य क्या है, शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है, मैं कौन हूँ और वास्तव
में मेरा कौन है यह विवेक जग जाय । उसे सत्संग मिला, सत्संग से
विवेक जगा । अपने ‘मैं’ को और ‘मेरे’ को ठीक से जानने लगा । वह
विवेक नहीं है इसलिए लोग अपने असली ‘मैं’ को नहीं जानते हैं और
असली ‘मेरे’ को भी नहीं जानते हैं । नकली हाड़-मांस के पिंजर को ‘मैं’
मानते हैं बेवकूफी से ।
उस सेठ का मोह दूर हो गया । मोह दूर हो गया तो फिर शूल भी
दूर हो गये – बेटे का क्या होगा, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा
?… ये सारी चिंताएँ उससे दूर भागीं । वह जितात्मा परमात्मा में
समाहित-चित्त होने लगा । उसके चित्त में शांति, माधुर्य, आनंद स्थिर
होने लगे । कभी-कभार प्रकाश दिखे तो कभी हास्य प्रकट हो, कभी नृत्य
प्रकट हो । अब तो सेठ के चित्त में द्वेष के समय द्वेष नहीं होता,
चिंता के समय चिंता नहीं होती, भय के समय भय नहीं होता और रोग
के समय वह अपने को रोगी नहीं मानता है । रोग आया है तो जायेगा
– यह ज्ञान उसका बिल्कुल प्रकट ज्ञान है । (सबके जीवन का प्रत्यक्ष
अनुभव है )। वह रोग में ज्यादा दिन रोगी नहीं रह पाता था । सेठ को
यह अनुभव हुआ कि
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हर्ष शोक व्यापै नहीं, तब गुरु आपै आप ।।
वह तो खुद गुरु हो गया ।
ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 20, 21 अंक 362

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सूरज जब गर्मी करे तब बरसन की आस – पूज्य बापू जी



योग में, भक्ति में प्रवेश करने वाले साधकों को प्रारम्भ में किसी
के जीवन चरित्र द्वारा अथवा किसी के सत्संग द्वारा कुछ-न-कुछ
अलौकिक लाभ होने लगता है तो उनकी श्रद्धा बँधती है और जब श्रद्धा
बँधती है और यात्रा करने लगते हैं तो बीच में विघ्न आ जाते हैं – यश
के मान के, अहंकार सजाने के ।
जीवन्मुक्त महात्मा निजानन्द स्वामी का एक शिष्य उनकी
आज्ञाओं का पूरा पालन करता हुआ एकांत में भजन करता था ।
एकांतवास के कारण उसकी चित्तवृत्तियों का विकास कम हुआ और उसमें
कुछ प्रभाव, आकर्षण पैदा हुआ । गुरुपूनम के दिन वह अपने गुरुदेव के
श्रीचरणों में सिर झुकाने को गया तो और गुरुभाई उसको देखकर बड़े
मान के शब्दों के साथ उसका स्वागत करने लगे ।
किसी ने कहाः “तुम्हें देखकर हमारी आँखें चाहती हैं कि बार-बार
तुम्हें देखें । तुम्हारे में क्या अद्भुत आकर्षण है !”
दूसरे भाई ने कहाः “तुम मानो प्रेम की मूर्ति बन गये हो ।”
तीसरे ने कहाः “तुम्हारे वचन सुनकर हमारे कान अघाते नहीं ।”
चौथे ने कहाः “सचमुच ! बुद्धिमान भी तुम ऐसे हो कि मानो
बृहस्पति !”
गुरुदेव अपनी कुटिया में यह गपशप सुन रहे थे । बाहर आये और
अपने उस खास प्यारे शिष्य को डाँटाः “चल रे पाखंडी ! पापी ! दुष्ट !
गुरुपूनम को मुँह दिखाने को आया ! मेरे को मुँह मत दिखा, भाग जा
यहाँ से, निकल !”
अपमानयुक्त वचन कहकर उसे भगा दिया । गुरुपूजन को जो
छोटी-मोटी विधि थी वह 5-25 शिष्यों के बीच की, हो गयी । जो

अंतेवासी शिष्य थे उन्होंने कहाः “गुरुदेव ! हमारे उस गुरुभाई को आपने
इतना डाँटा और वह आपको नमन करके चला गया ! उसकी तो ख्याति
खूब है, जहाँ रहता है वहाँ सत्संग करता है । उसके नम्रता, प्रेम,
सदाचार, परदुःखकातरता, प्राणिमात्र का हित चाहना – ये सदगुण
साधनकाल में इतने खिले हैं, उसकी वाणी में इतना ओज है कि हम
जब उसके आश्रम में गये थे तब देखा कि उसके शिष्यों में भी उसके
सद्गुण आने लगे हैं । फिर भी आपने उसको ऐसा डाँटा… उसमें ऐसा
कोई दोष था क्या ?”
निजानंदजी ने कहाः “मूर्खो ! उसमें दोष नहीं था, दोष तुममें था ।
तुम उसकी प्रशंसा कर रहे थे । तुम अगर उसके सच्चे मित्र होते तो
उसके मुँह पर उसकी प्रशंसा नहीं करते । प्रशंसा पचाना बच्चों का खेल
नहीं है ।”
मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाय ।
चाह उसी की राखता, सो भी अति दुःख पाय ।।
जिसकी प्रगति रोकनी हो, जिसका विकास थामना हो उसकी उसके
मुँह पर प्रशंसा कर दो । सुनने में तो बड़ी मीठी लगती है वह परंतु फिर
विकास रुक जाता है, ध्यान भजन का समय भी प्रशंसा में नष्ट हो
जाता है । सेवा का कार्य भी प्रशंसा पाने में कुर्बान कर दिया जाता है ।
फिर जहाँ प्रशंसा होती है वहीं सेवा की जाती है, जहाँ अखबारों में छपता
है वहीं मवेशी शिविर चालू किये जाते हैं, कहीं सेवा का मौका मिले तो
गुप्त रूप से (बिना प्रशंसा की चाह के) सहायता के लिए हाथ लम्बा
करने की क्षमताएँ दूर हो जाती हैं ।
जहाँ बड़े-बड़े नाम और चित्र छापते-लगाते हैं और प्रसिद्धियाँ होती
हैं वहीं कुछ देने-लेने की बात होती है, नहीं तो ‘चाहे पड़ोसी भूखा मरे,

हमें क्या ?’… ऐसे दोष आ जाते हैं । यह प्रशंसा मधुर अमृत जैसा
दिखने वाला एक ऐसा धीमा जहर है इसे पीते-पीते पीने वाला अपना
ध्यान-भजन, सेवा और सारी योग्यताएँ क्षीण कर लेता है और उसमें
भीतर से सूक्ष्म अहंकार उत्पन्न होता जाता है ।
निजानंद जी ने शिष्यों से कहाः “मुझे उसने सद्गुरु की जगह पर
स्थापित किया है, उसका अहित न हो इसका ध्यान रखना मेरा कर्तव्य
है । वह तो मेरा प्राण है, मैं तो उसे बहुत चाहता हूँ लेकिन तुम उसकी
प्रशंसा करके उसको गिरा रहे थे । मैं एक-एक को समझाऊँ तो मेरा
बहुत समय खर्च होगा और मैं तुम लोगों को अगर डाँटूँ तो तुम पचा न
सकोगे, वह तो पचा सकता था इसलिए मैंने उसको डाँट दिया ।”
ऋषि प्रसाद, जनवरी 2023, पृष्ठ संख्या 24,26 अंक 361
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