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Rishi Prasad 268 Apr 2015

अखंड सौभाग्य देने वाला वटसावित्री व्रत 19 जून 2016


वटसावित्री पर्व नारी-सशक्तिकरण का पर्व है, जो को अपने सामर्थ्य की याद दिलाता है। यह आत्मविश्वास व दृढ़ता को बनाये रखने की प्रेरणा देता है, साथ ही ऊँचा दार्शनिक सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि हमें अपने मूल आत्म-तत्त्व की ओर, आत्म-सामर्थ्य की ओर लौटना चाहिए।
वटवृक्ष की महत्ता
भारत के महान वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु न क्रेस्कोग्राफ संयंत्र की खोज कर यह सिद्ध कर दिखाया कि वृक्षों में भी हमारी तरह चैतन्य सत्ता का वास होता है। इस खोज से भारतीय संस्कृति की वृक्षोपासना के आगे सारा विश्व नतमस्तक हो गया।
वटवृक्ष विशाल एवं अचल होता है। हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएँ की हैं। यह मन में स्थिरता लाने में मदद करता है एवं संकल्प को अडिग बना देता है। इस व्रत की नींव रखने के पीछे ऋषियों का यह उद्देश्य प्रतीत होता है कि अचल सौभाग्य एवं पति की दीर्घायु चाहने वाली महिलाओं को वटवृक्ष की पूजा उपासना के द्वारा उसकी इसी विशेषता का लाभ मिले और पर्यावरण सुरक्षा भी हो जाय। हमारे शास्त्रों के अनुसार वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श, परिक्रमा तथा सेवा से पाप दूर होते हैं तथा दुःख, समस्याएँ एवं रोग नष्ट होते हैं। ‘भावप्रकाश निघंटु’ ग्रंथ में वटवृक्ष को शीतलता-प्रदायक, सभी रोगों को दूर करने वाला तथा विष-दोष निवारक बताया गया है।
महान पतिव्रता सावित्री के दृढ़ संकल्प व ज्ञानसम्पन्न प्रश्नोत्तर की वजह से यमराज ने विवश होकर वटवृक्ष के नीचे ही उनके पति सत्यवान को जीवनदान दिया था। इसीलिए इस दिन विवाहित महिलाएँ अपने सुहाग की रक्षा, पति की दीर्घायु और आत्मोन्नति हेतु वटवृक्ष की 108 परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेट कर संकल्प करती हैं। साथ में अपने पुत्रों की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी संकल्प किया जाता है। वटवृक्ष की व्याख्या इस प्रकार की गयी है।
वटानि वेष्टयति मूलेन वृक्षांतरमिति वटे।
‘जो वृक्ष स्वयं को अपनी ही जड़ों से घेर ले, उसे वट कहते हैं।’
वटवृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल की ओर लौटना चाहिए और अपना संकल्पबल, आत्म-सामर्थ्य जगाना चाहिए। इसी से हम मौलिक रह सकते हैं। मूलतः हम सभी एक ही परमात्मा के अभिन्न अंग हैं। हमें अपनी मूल प्रवृत्तियों को, दैवी गुणों को महत्त्व देना चाहिए। यही सुखी जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। वटसावित्री पर्व पर सावित्री की तरह स्वयं को दृढ़प्रतिज्ञ बनायें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 21, अंक 268
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नियमनिष्ठा महकाये जीवन की बगिया


व्रत से जीवन में दृढ़ता आती है।
व्रतेन दीक्षामाप्नोति…..
अव्रती व्यक्ति काम करते हुए ऊब जायेगा, पलायन कर जायेगा, दूसरे को दोष देगा परंतु व्रती आदमी दूसरे को दोष नहीं देगा। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों व्रत-कार्य साफल्य ले आयेगा।
गांधी जी के आश्रम का नियम था कि भोजन की हर पंगत के लिए दो घंटियाँ बजने के बाद रसोई घर का दरवाजा बन्द कर दिया जाता था। दूसरी घंटी बजने के बाद आने वाले व्यक्तियों को अगली पंगत के लिए इंतजार करना पड़ता था।
गांधी जी हमेशा तो सही समय पर रसोई घर पहुँच जाते थे किंतु एक दिन उन्हें पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी, दरवाजा बन्द हो चुका था। गांधी जी मानते थे कि ‘आश्रम का बनाया नियम सबके लिए समान है।’ अतः वे बाहर ही अगली पंगत का इंतजार करते रहे। यदि वे जाना चाहते तो उन्हें कौन रोक सकता था परंतु गांधी जी में छोटे से नियम के प्रति भी दृढ़ता थी। इस प्रकार नियम पालन से ही उनमें आत्मबल, सहनशीलता आदि गुणों का विकास हुआ, जिनके प्रभाव से वे स्वतंत्रता-संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा पाये।
नियम भले ही छोटा सा ही क्यों न हो, अगर उसका दृढ़ता पूर्वक पालन किया जाय तो, संकल्पशक्ति बढ़ती है, आत्मविश्वास जागता है, मन वश होता है तथा दोषों व कुसंस्कारों से छुटकारा पाने का बल मिलता है। ‘ऋग्वेद’ (9.61.24) में आता हैः व्रतेषु जागृहि। ‘आप अपने व्रत नियमों के प्रति सदा जागृत रहें।’
पूज्य बापू जी के आश्रमों में भी पूज्य श्री के निर्देशानुसार बनाये गये शास्त्रोचित खान-पान, रहन सहन, साधना-सेवा आदि के नियमों व व्रतों का पालन होता है, जिससे यहाँ आने वाले साधक सहज में शीघ्र उन्नति कर अलौकिक अऩुभवों के धनी बन जाते हैं।
पूज्य बापू जी कहते हैं- “अपने चित्त में परमात्मा को पाने के लिए दिव्य, पवित्र, आत्मसाक्षात्कार में सीधे साथ दें ऐसे व्रत-नियम डाल दें। जरा-जरा बात में सुख के लालच में, दुःख के भय में फिसल पड़ते हैं। नहीं….. जैसे गांधी जी ने अपने जीवन में व्रत रख दिये थे-सप्ताह में एक दिन न बोलने का व्रत, ब्रह्मचर्य का, सत्य का, प्रार्थना का व्रत…. ऐसा ही कोई व्रत अपने जीवन में, अपने चित्त में रख दें जिससे अपने लक्ष्य की तरफ दृढ़ता से चल सकें और अपना ईश्वरीय अंश विकसित कर सकें।”
महापुरुषों के जीवन को निहारा जाय तो उसमें किसी न किसी व्रत नियम का प्रकाश अवश्य मिलेगा। श्री रमण महर्षि का मौन-व्रत, पितामह भीष्म, आद्य शंकराचार्य जी आदि का ब्रह्मचर्य-व्रत तथा कणाद, पिप्पलाद आदि ऋषियों के आहारसंबंधी व्रत इतिहास प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मनिष्ठ पूज्य बापू जी की भी नियमनिष्ठा सभी के लिए प्रकाशस्तम्भ है। पूज्य श्री आत्मसाक्षात्कार जैसी पराकाष्ठा पर पहुँचने के बाद भी आज भी अपना नियम किये बिना कुछ नहीं सेवन करते। प्रतिदिन सत्संग करना भी पूज्यश्री के जीवन का एक अभिन्न अंग है। वर्ष में एक दिन भी पूज्य श्री बिना सत्संग के नहीं रहते। आज कारागृह में भी अपनी सत्संग की कुंजियों द्वारा कैदियों तथा कर्मचारियों का जीवन उन्नत कर रहे हैं। कैसी है महाराजश्री के जीवन में नियमनिष्ठा की सुवास, जो सर्व-मांगल्य के भाव से ओतप्रोत है ! वास्तव में नियम पालन ब्रह्मज्ञानप्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन है। जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिए नियमों का बंधन नहीं है परंतु समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से वे आत्मारामी महापुरुष भी नियमों को स्वीकार कर लेते हैं, यह उनकी कितनी करूणा-कृपा है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 18, अंक 266
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