आत्मारामी संत पूज्य बापू जी के आशीर्वाद से ही मुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम नारायण रखा । पूरे परिवार में एक खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने मन ही मन पूज्य गुरुदेव की पूजा-अर्चना की। मैं खुशी से फूली न समा रही थी।
मैंने सुना था कि कोई आत्मवेत्ता संत अपनी आत्मानंद की मस्ती में गोता लगाकर जो बोल देते हैं वह पत्थर पर लकीर हो जाता है। पूज्य बापू जी के द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए दिये गये प्रसाद के एक साल बाद मैं पूज्य गुरुदेव की कृपा को नवजात शिशु के रूप में प्रत्यक्ष देख रही थी।
लेकिन सब एक दिन से नहीं रहते।
कुछ दिन बीते कि अचानक दिनांकः 24-7-96 को नारायण का स्वास्थ्य बिगड़ा। उसको अस्पताल में दाखिल किया। डॉक्टर ने सभी परीक्षण करके बताया कि आपके पुत्र को जहरी मलेरिया हो गया।
डॉक्टर ने तत्काल दवा व इंजैक्शन आदि से उसका उपचार आरम्भ किया लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता जा रहा था। वैसे-वैसे उसकी तबीयत बिगड़ती ही जा रही थी। डॉक्टर ने आशा छोड़ दी थी, फिर भी प्रयत्न चालू रखा था।
नारायण के मस्तिष्क में मलेरिया का बुरा असर हो चुका था। सारे शरीर में तनाव शुरु हो गया। पूरा शरीर अकड़ गया। नाड़ी की धड़कनें बढ़ गयीं। मुँह से झाग आना शुरु हो गया। फिर एकाएक उसका शरीर ठंडा हो गया। हृदय की धड़कनें सी बंद हो गयीं। शरीर निस्तेज हो गया। गर्दन एक ओर झुक गयी। मैं फफककर रो पड़ी। मैं उस विधि के विधान के आगे कर भी क्या सकती थी ? अब सिर्फ एक ही रास्ता था।
मैंने उस निस्तेज शरीर के सामने बैठकर गुरुमंत्र का जप शुरु कर दिया। दृढ़ संकल्प किया कि मेरा बच्चा ठीक हो जायेगा तो श्री आसारामायण का पाठ करूँगी। दूसरी तरफ मेरी बेटी ने श्रीमदभगवदगीता के 18 वें अध्याय का पाठ प्रारंभ कर दिया था। पाठ पूरा होते ही उसने गुरुमंत्र का जप शुरु किया व सामने कटोरी में रखे पानी में निहारा। फिर वही पानी गुरु मंत्र का जप करते-करते नारायण पर छाँटा।
आश्चर्य !
बच्चे के शरीर में थोड़ी हलचल हुई। इस हलचल को देखकर हमारे हृदयों में कुछ आशाओं का संचार हुआ। कुछ ही क्षणों में नारायण ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। शरीर में एक दिव्य चेतना का संचार हुआ। मेरी आँखों से आनंदाश्रुओं की अविरत धारा बह निकली।
जिनके कृपा-प्रसाद से उसे यह जन्म मिला, उन्हीं की करूणा-कृपा से उसे नया जीवनदान मिला। मैं आज ऐसे सदगुरुदेव के सत्संग सान्निध्य व मंत्रदीक्षा के कारण मिले धैर्य, श्रद्धा, भक्ति के कारण अपने आप में धन्यता का अनुभव कर रही हूँ।
चंद्रिकाबहन प्रवीणचंद पांचाल, लुणावाड़ा, पंचमहाल।
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विपत्ति में गुरुदेव की दिव्य प्रेरणा ने बचाया
मैं राजेन्द्र प्रसाद शर्मा मन्डी बोर्ड उज्जैन में सब इंजीनियर पद पर कार्यरत हूँ। दिनांक 4 अप्रैल 96 को रात्रि करीब 10-30 बजे हरदा इन्दौर मार्ग पर चापड़ा से इन्दौर के लिए टैक्सी से रवाना हुआ। साथ में मेरे एक करीबी मित्र भी थे। रास्ते में टैक्सी का टायर पंक्चर हुआ। ड्रायवर ने पच्चीस-तीस मिनट के श्रम से टायर बदल दिया। रात्रि के 11 बज चुके थे। वहाँ से चार-पाँच कि.मी. ही चले थे कि हम पर विपत्तियों का पहाड़ टूटा। जंगल में घाट पर करनावद फाटा से चढ़ते ही कंजरों ने गाड़ी को घेर लिया और पत्थर बरसाने लगे। हमने टैक्सी भगानी चाही लेकिन सड़क पर झाड़-झंखार डाल रखे थे। अब क्या होगा ? मेरे मन में तुरंत विचार आयाः अपने रक्षक तो पूज्य सदगुरुदेव हैं। मैंने मौन होकर बापू को याद कियाः प्रभु ! मैं तो बस, आपका ही हूँ।
तेरे फूलों से भी प्यार तेरे काँटों से भी प्यार।
जो भी देना चाहे दे दे किरतार।।
ग्वालियर सत्संग-कार्यक्रम में पूज्य बापू ने प्रपत्तियोग का समर्पण भाव बताया थाः ʹतेरा हूँ… तेरा हूँ….ʹ बस फिर क्या था ? ʹतेरा हूँ…ʹ की महिमा याद आ गई। मेरे मुँह से निकल पड़ाः
“ड्राइवर ! गाड़ी को झाड़-झंखार के ऊपर से ही कुदा दो।”
वही हुआ। गाड़ी वहाँ से ऐसे दौड़ी कि गाँव की चौकी पर ही जाकर रुकी। हमने रिपोर्ट लिखाई। पुलिस स्थल घटना स्थल को रवाना हुआ और हम अपने सफर में चल पड़े। दूसरे दिन 5 अप्रैल को इन्दौर से प्रकाशित सभी समाचार पत्रों में छपा था कि उस रास्ते आ रही शिवशक्ति बस को लूटा गया। हम दोनों मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे क्योंकि वह बस हमारे पीछे-पीछे ही आ रही थी।
गुरुदेव कृपा से हम विपत्तियों से किस तरह बचे यह पूरा-पूरा वर्णन करना हमारे बस की बात नहीं। मैं तो बस, इतना ही कहूँगा कि विपत्ति में पूरी श्रद्धा से ऐसे आत्मारामी संतों का स्मरण करने पर दिव्य प्रेरणा मिलती ही है। श्रद्धाहीन, नास्तिक निगुरे बेचारे क्या जानें ?
गुरुदेव का चरणसेवक,
राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, 2/6, अलखधाम नगर, उज्जैन (म.प्र.)
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