सावधान रहो

सावधान रहो


पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

विश्राम में अदभुत बल है। कितना भी भोजन करो किन्तु बिना आराम के थकान नहीं मिटती है। शरीर की विश्रांति से शरीर की थकान मिटती है और चित्त की विश्रांति से जन्मों-जन्मों की मानसिक थकान मिटती है। मानसिक थकान मिटने से मन प्रेम रस से परिपूर्ण होने लगता है। विश्रांति से दोषों की निवृत्ति और आवश्यक सामर्थ्य की प्राप्ति होती है। जैसे बुढ़ापे में रोगप्रतिकारक शक्ति घटती है तो कई प्रकार की बीमारियाँ उभर आती हैं ऐसे ही हमारा मन जब कमजोर हो जाता है तो अलग-अलग विकारों का रोग प्रगट हो जाता है। फिर हम अपने को दीन हीन और तुच्छ मानने लगते हैं। फलतः दीन-हीन और तुच्छ योनियों में भटकने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

यदि चित्त को विश्रांति दिलाने की कला आ जाये तो चित्त शुद्ध, साफ-सुथरा और पवित्र हो जायेगा। जैसे आईना साफ हो तो उसमें प्रतिबिंब ठीक से दिखता है ऐसे ही विश्रांति से हमारा मन पवित्र हो जाता है तो परमेश्वर के स्वरूप की ठीक अनुभूति होती है।

भोग, सुविधाएँ, लापरवाही हमें खोखला बना देती हैं जबकि विघ्न-बाधाएँ और सतर्कता जीवन-संग्राम में विजयी और सजाग बनाती हैं।

जापान में एक प्रसिद्ध बूढ़ा था। एक बार उसने कुछ जवानों को बुलाकर कहाः “इस पेड़ की आखिरी डाल पर कोई चढ़ सकता है?”

जवानों में तो होड़ लग गई। एक जवान आखिरी डाल पर पहुँच गया, हालाँकि वह डाल खतरे से खाली न थी। वह जवान सोचने लगाः “मैं इतनी खतरनाक जगह पर खड़ा हूँ और वह बूढ़ा देखता तक नहीं है। बातों में लगा है !ʹ वह जवान थोड़ी देर उस जीवन-मृत्यु के बीच झोंके खिलाने वाली डाल पर खड़ा रहा और फिर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। जब करीब 18-20 फीट दूरी बाकी रह गयी तब बूढ़ा बोलाः “ऐ जवान ! संभलकर उतरना… सावधानी से उतरना नहीं तो फ्रेकचर हो जायेगा।”

जवान को हुआ कि यह बूढ़ा पागल है क्या ? जब सबसे ऊँची आखिरी डाल पर था, जीवन-मृत्यु के बीच खेल रहा था तब तो यह बातों में लगा रहा और अब जब जमीन के करीब हूँ तब कहता है ʹसावधान रहना !ʹ

वह युवक नीचे उतरा और बोलाः “आप कमाल के व्यक्ति हैं ! जहाँ खतरा था, मैं मृत्यु के करीब था वहाँ तो आपने कहा नहीं कि सावधान रहना और जब निश्चिंतता की जगह पर आया तब आपने कहा कि सावधान रहना !”

तब बूढ़ा बोलाः “मैं जमाने का खाया हुआ हूँ। मुझे बड़ा अनुभव है। कब बोलना और कब मौन रहना यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। कब संकेत करना यह भी मैं जानता हूँ। जब तुम आखिरी डाल पर थे तब तुम स्वयं ही सावधान थे। तब मुझे कहने की जरूरत ही नहीं थी लेकिन जब नीचे उतरे, थोड़ी निश्चिंत जगह पर आये तभी लापरवाही की संभावना आ जाती है और जब मनुष्य लापरवाह हो जाता है तभी गड़बड़ी होती है। वह लापरवाह होता है तभी गिरता है।”

भोग व्यक्ति को भीतर से कमजोर कर देते हैं। जितनी ऐहिक सुख-सुविधा और ऐश-आराम की चीजें मिल जाती हैं और आदमी अपने को सुखी करने की होड़ में लगता है उतना ही वह अपने लिए भविष्य में दुःख की खाई खोदता चला जाता है। इसलिए मनुष्य को सदैव सावधान रहना चाहिए कि मन में विषय-विकार कहीं डेरा तो नहीं डाल रहे हैं ? दूसरों का ऐश-आराम देखकर हमारा मन कहीं ऐश-आराम की गंदी ख्वाहिश में तो नहीं मर रहा है ? अगर दूसरों का कुछ देखकर अपने में गंदगी आने लगे तो फिर दूसरों के गुण देखो। सोचोः ʹजैसी समाधि बुद्ध की लगी ऐसी हमारी कब लगेगी। महावीर की नाईं हम निर्विकल्प समाधि में कब पहुँचेगे ?ʹ राजा भर्तृहरि कहते हैः “हे प्रभु ! मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं इस राज-पाट के भोग विलास की खटपट से बचकर, एकान्त अरण्य में किसी गिरि-गुफा में बैठा रहूँगा और ʹशिव…शिव…ʹ करके शांत आत्मा में विश्रांति पाकर समाधिस्थ हो जाऊँगा ? मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि जंगल के बूढ़े हिरण मेरे शरीर को शिला समझकर, अपने सींगों की खुजली मिटाने के लिए इस शरीर से घर्षण करेंगे ? उऩ्हें भी संकोच न हो और मुझे भी पता न चले। ऐसी मेरी निर्विकल्प समाधि के दिन कब आयेंगे। भोलेनाथ ! क्या मैं जीवनभर इन्हीं भोग-विलासों में पड़ा रहूँगा ?”

जब मनुष्य बाहर की निंदा-स्तुति को सत्य समझने लगता है, स्वीकार करने लगता है, तब भीतर से खोखला होना शुरु हो जाता है। बाहर की वाहवाही को अगर तुमने सच्चा समझा तो कमजोर हो जाओगे। अतः ऐसे किन्हीं आत्मानुभव से तृप्त सदगुरु को खोज लो जो कि तुम्हारी वाहवाही के बीच में भी लगाम खींचकर तुम्हारे मन को संयत कर सकें। इसी में तुम्हारा कल्याण है।

दुर्जन की करूणा बुरी, भलो साँई को त्रास।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 57

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