गीता में प्रपत्तियोग

गीता में प्रपत्तियोग


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “हे अर्जुन ! मेरे में आविष्ट चित्तवाले उन भक्तों का मैं मृत्युरूप संसार-समुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।” गीताः 12.7

संसार एक सागर है। जैसे सागर में जल-ही-जल है ऐसे ही संसार में मृत्यु ही मृत्यु है। जो पैदा होता है, मृत्यु की ओर उसकी यात्रा शुरु हो जाती है। जो संयोग है वह वियोग में बदल जाता है। जो संग्रह है वह विनाश में बदल जाता है।

ऐसा कोई शरीर नहीं जिसके साथ मृत्यु न जुड़ी हो। ऐसा कोई संयोग नहीं जिसके साथ वियोग न जुड़ा हो। ऐसा कोई संग्रह या भोग नहीं जिसका विनाश या वियोग न होता हो।

संसार मानेः संसरति इति संसारः। जो सरकता जाये उसे संसार कहते हैं। सिक्ख धर्म के आदिगुरु नानकदेव ने कहा हैः

राम गयो रावण गयो ताको बहु परिवार।

कह नानक कछु थिर नहीं सपने ज्यों संसार।।

शिवजी ने भी कहा हैः

उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना।

सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।

जहाँ खूब दूध होता है उसे दुग्धालय बोलते हैं। जहाँ पुस्तकें होती हैं उसे पुस्तकालय बोलते हैं। जहाँ औषधियाँ होती हैं उसे औषधालय बोलते हैं। ऐसे ही जहाँ दुःख-ही-दुःख है उस संसार को दुःखालय कहा गया है। यह दुःखालय तो है ही, साथ ही विनाशशील भी है।

फिर भी ऐसे दुःखालय और विनाशील संसार में भी एक सुखस्वरूप भगवान का अनुभव किया जा सकता है। मरणधर्मा शरीर में अमर ईश्वर का एहसास हो सकता है। नश्वर में शाश्वत की मुलाकात करने की संभावनाएँ छुपी हैं। इसलिए मनुष्य जीवन सबसे श्रेष्ठ और दुर्लभ माना जाता है।

संसार की ऐसी कोई वस्तु नहीं, ऐसी कोई परिस्थिति नहीं, ऐसी घटना नहीं, ऐसा कोई संयोग नहीं, ऐसा कोई संबंध नहीं, जो सदा रहे। सब नाश की तरफ जा रहे हैं।

खून पसीना बहाता जा तान के चादर सोता जा।

यह किश्ती तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।

कितना भी इसको थामने का प्रयास करो किन्तु संसार की चीजें और संसार कभी थमा नहीं है। वह बदलता रहता है।

चाँद सफर में, सितारे सफर में।

दरिया सफर में, दरिया के किनारे सफर में।।

जहाँ बस्तियाँ थीं, वे बस्तियाँ सागर में कहाँ खो गयीं ? पता तक नहीं है। जहाँ समुद्र लहराता था वहाँ सड़कें बन गयीं और गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। जहाँ पानी उछलकूद करता था, वहाँ तो दस-दस मंजिली इमारतें दिखाई देती हैं और जहाँ मकान थे वे पूरे के पूरे गायब हो गये दरिया में। मोहन-जो-दड़ो केवल एक ही नहीं है, सारी दुनिया मोहन-जो-दड़ो की तरह हो जाती है समय पाकर।

देखत नैन चल्यो जग जाई। का माँगू कछु थिर न रहाई।।

देखते-देखते इस संसार की परिस्थितियाँ चली जा रही हैं, क्या माँगूं ?

अनित्यानि शरीराणि वैभवो नैव शाश्वतः।

नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः।।

शरीर अनित्य है। वैभव शाश्वत नहीं है और हम रोज मृत्यु की तरफ जा रहे हैं। अतः हमारा कर्तव्य यह है कि धर्म का संग्रह कर लें और धर्म का संग्रह करने वाले पुरुष के लिए भगवान वचन देते हैं-

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।

हे अर्जुन ! जैसे धनवान व्यक्ति की पत्नी अगर भीख माँगे तो उस धनवान व्यक्ति की इज्जत का सवाल है। ऐसे ही मेरा भक्त संसार के सागर में बार-बार गोते खाये और जन्मे मरे तो मेरी इज्जत का सवाल है। जो मेरा होकर मेरा भजन करता है, उसे पार होने की चिंता नहीं करनी चाहिए। जो मेरा होकर मेरा भजन करता है उसे  भोजन, छाजन, नीर की भी चिंता नहीं करनी चाहिए। उसे कभी उदास या चिंतित नहीं होना चाहिए और कभी संदेह नहीं करना चाहिए। जैसे पतिव्रता स्त्री कभी यह नहीं सोचती कि ʹपति मेरा भरण पोषण करेगा कि नहीं ? मुझे सुख देगा कि नहीं ?ʹ ऐसे ही दृढ़ भक्त जब मेरे होकर भजन करते हैं तो फिर वे कोई संशय या संदेह नहीं करते।

संशय सबको खात है संशय सबका पीर।

संशय की फाकी करे उसका नाम फकीर।।

भिखमंगे का नाम फकीर नहीं है  वरन् जिसने संशय की फाँकी कर ली उसका नाम फकीर है। भगवान हमारा भजन सुनते होंगे कि नहीं, भजन फलता होगा कि नहीं, यह संशय मत आने दो। ʹहमारा क्या होगा ?ʹ अरे !

भोजन छाजन नीर की चिंता करे सो मूढ़।

भक्त चिंता ना करे निज पद में आरूढ़।।

निज पद में आरूढ़ चिंता करे सो कैसी ?

खुशी है ता में प्राप्त अवस्था जैसी।।

किसी ने कहा हैः

गम की अँधेरी रात में, दिल को न बेकरार कर।

सुबह जरूर आयेगी, सुबह का इंतजार कर।।

…..और तेरा परमेश्वर ही तो तेरी सुबह है भैया ! उस परमेश्वर की प्रेरणा ही तो तेरी सुबह है। शरीर की सुबह तो रोज आती है फिर अँधकारमयी रात्रि आ जाती है लेकिन परमेश्वररूपी सुबह, परमेश्वररूपी प्रकाश यदि एक बार भी हृदय में आ जाता है तो फिर रात्रि का सवाल ही नहीं रहता।

भगवान कहते हैं- ʹजो मेरे को अपना निकटवर्ती और नित्य शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यस्वरूप जानते-मानते हैं और मेरा भजन करते हैं, अपना चित्त मुझ चैतन्य में लगाते हैं, उन्हें संसार-सागर से तरने की चिंता नहीं करनी चाहिए।

मृत्यु के समय तो शरीर रोग के प्रभाव से पीड़ित हो जाता है। मृत्यु के समय जीव मेरा चिंतन करे और मैं उसे तार दूँ ऐसी बात नहीं है, अर्जुन ! फिर उनकी जीवनभर की भक्ति का क्या होगा ? केवल मृत्यु के समय मेरा भजन करे और तभी मैं उन्हें तारूँ तो फिर मेरे में और दुकानदार में क्या फर्क ? जो सचमुच में एक बार भी मेरी शरण आ जाता है, मैं उसे नहीं छोड़ता।

सचमुच में हम ईश्वर की शरण हैं लेकिन मानते नहीं हैं और राग-द्वेष की शरण में चले जाते हैं। लोभ-लालच की शरण में चले जाते हैं। हाड़-मांस के शरीर की शरण में चले जाते हैं। किन्तु इन चीजों की कितनी भी शरण लो, वे शरण देती नहीं कम्बख्त ! वरन् थप्पड़ें ही मारती हैं जबकि एक बार सच्चे हृदय से परमात्मा की ली गयी शरण भवसागर से तारती है।

कुछ समय पहले वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग कियाः एक मुर्गी ने अण्डा सेया। सेते-सेते जब दिन पूरे हो गये तब एक अण्डे को चोंच मारी तो ज्यों ही चूजे का मुँह बाहर आये उससे पहले मुर्गी को उठाकर बतख को रख दिया । चूजे की पहली नजर बत्तख पर पड़ी तो वह बत्तख को ही अपनी माँ समझने लगा और उसके पीछे-पीछे जाने लगा। बत्तख चोंचे मार रही थी और उसकी असली माँ (मुर्गी) चिल्ला भी रही थी अपने पास बुलाने के लिए किन्तु चूजा बत्तख के पीछे ही लगा रहा।

ऐसे ही वास्तव में हम परमात्मा के बच्चे हैं।

परमात्मा ज्ञानस्वरूप हैं तो हमारी आत्मा भी ज्ञानस्वरूप है। परमात्मा सुखस्वरूप है तो हमारी आत्मा भी सुखस्वरूप है। परमात्मा नित्य है तो हमारी आत्मा भी नित्य है, किन्तु हम मायारूपी बत्तख के प्रभाव में आ गये हैं। उसकी कई चोंचे भी लगती हैं। कभी काम की चोंच तो कभी क्रोध की, कभी लोभ की तो कभी मोह की, कभी अहंकार की भी चोंच लगती है और अतं में तो बड़ी चोंच लगती है मृत्यु की। ऐसे ही सदियों से चोंचे खाता आया है यह जीव किन्तु अगर इस मनुष्य जन्म में उसे सत्संग मिल जाये और असली माँ रूपी परमात्मा ही हमारा सच्चा विश्रांति स्थल है यह समझ में आ जाये तो उद्धार हो जाये।

वास्तव में तो आपका और ईश्वर का ऐसा पक्का संबंध है कि आप तोड़ना चाहें तो भी नहीं तोड़ सकते और अगर ईश्वर खुद भी तुम्हारे साथ संबंध तोड़ना चाहे तो भी नहीं तोड़ सकता। इतना हमारा और ईश्वर का अविभाज्य संबंध है, शाश्वत संबंध है लेकिन अज्ञानता के कारण हम कल्पित संबंधों को सच्चा मानते हैं और सच्चे संबंध को पीठ दिये हुए हैं।

आपका और इस शरीर का संबंध 60-70 पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी-भी नहीं की तरफ ही जा रहा है। सेठ का और रुपयों का संबंध पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा। पिता और पुत्र का संबंध भी पुत्र के जन्म से पहले नहीं था और मरने के बाद भी नहीं रहेगा। लेकिन परमात्मा के साथ इस जीवात्मा का संबंध तो जन्म के पहले भी था, जन्म ले रहा था तब भी उस चैतन्य के साथ संबंध था, बाल्यावस्था में भी था, किशारावस्था में भी था। किशोरावस्था चली गयी फिर भी ईश्वर  साथ तुम्हारा संबंध नहीं गया। यौवन चला गया फिर भी परमात्मा के साथ का संबंध नहीं गया। बुढ़ापा चला जाये और मौत आ जाये फिर भी परमात्मा के साथ जीवात्मा का संबंध नहीं टूट सकता है। अरे ! जीवात्मा और परमात्मा का संबंध तो मृत्यु के बाद भी नहीं टूट सकता।

जैसे महाकाश के साथ घटाकाश का संबंध नहीं टूट सकता है। महाकाश संबंध तोड़ना चाहे फिर नहीं तोड़ सकता और घड़ा संबंध तोड़ना चाहे फिर भी महाकाश से संबंध नहीं तोड़ सकता। जैसे लहर पानी से संबंध तोड़ना चाहे तो नहीं तोड़ सकती और पानी लहर से संबंध तोड़ना चाहे तो नहीं तोड़ सकता है ऐसे ही ईश्वर और जीव का संबंध नहीं टूट सकता है क्योंकि वह सनातन संबंध है।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

ʹहम ईश्वर के हैं, इस बात में तो जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए। फिर वह जो भी करे।ʹ मान दिलाता है तो तेरी मौज… अपमान दिलाता है तो तेरी मौज… अगर नरक में भेजे तो हम तेरे होकर ही नरक में भी जायेंगे।ʹ अगर ईश्वर के होकर नरक में गये तो नरक के बाप की भी ताकत नहीं कि दुःख दे सके। किन्तु अगर भोगों के स्वर्ग में भी गये तो स्वर्ग सुखदायी नहीं वरन् दुःखदायी ही होगा।

ईशावास्य उपनिषद में आता हैः तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। यह सारा जगत ईश्वररूप है, इसे त्याग से भोगो, पकड़ो मत। जगत की बातों को, जगत की परिस्थिति को अपने भीतर गहरा मत उतारो। अपने में अगर उतारना ही है तो अपना-आपा है, उसके ही प्रेम को अपने में उतारो तो वही रूप हो जाओगे।

सच पूछो तो केवल परमात्मा ही अपना है। नानक जी ने कहा हैः

संगी साथी चल गये सारे कोई न निभियो साथ।

कह नानक इह बिपत में टेक एक रघुनाथ।।

इस शरीर को ʹमैंʹ मानकर और वस्तुओं को ʹमेरीʹ मानकर जो सुखी होना चाहता है उसके भाग्य में दुःख ही दुःख है। इस शरीर को ʹमैंʹ मानकर, वस्तुओं को और संबंधों को सँभाल-सँभालकर जो सुख ढूँढता है उसे V.I.P. Quota का मूर्ख माना जाता है। श्रीकृष्ण ने ऐसे लोगों को गिनकर 108 गालियाँ दी हैं। वह भी कृपा करके दीं हैं।

जैसे बेटा अंगारे के पास चला जाता है तो माँ उसे डाँटती है, मारती है। इसमें माँ काच द्वेष नहीं है वरन् यह भी माँ की कृपा ही है। ऐसे ही माताओं की माता और पिताओं के पिता जो भगवान श्रीकृष्ण हैं उन्होंने गीता में 108 गालियाँ दी हैं ताकि लोग मूर्खता छोड़ें।

विमूढ़ा नानुपश्यन्ति। नराधमाः। आसुरंभावमाश्रिताः।

इस प्रकार की 108 गालियाँ उन्हें दी हैं जो आसक्त होकर मिथ्या संसार में सच्चा सुख ढूँढना चाहते हैं ताकि वे सावधान हो जायें।

अपनी निष्ठा उस परमेश्वर में रखो और परमेश्वर को अपना मानकर तथा अपने को परमेश्वर का मानकर कार्य करो। भजन करो, जो भी निर्णय लो, परमेश्वर के होकर लोगे तो वह अंतर्यामी परमेश्वर जरूर तुम्हारे हृदय में शुभ प्रेरणा करेगा और तुम सफल हो सकोगे।

जिसने उस परमेश्वर को तत्त्व से जान लिया उसके लिए कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता। तस्य कार्यं न विद्यते। वह वही रूप हो जाता है और वास्तव में देखा जाय तो तुम भी वही हो। जैसे पानी में छोटे-बड़े बुलबुले होते हैं किन्तु तत्त्व से तो सारे बुलबुले पानी हैं, वैसे ही तत्त्व से हम सब भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं। इस बात को अगर एक बार भी ठीक से समझ लिया तो फिर संसार-सागर से पार होना आसान हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1997, पृष्ठ संख्या 4-9, अंक 58

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