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पयाहारी बाबा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दुनियादार जहाँ सिर पटकते हैं।

वहाँ आशिक कदम रखते हैं।।

भोगी जिस संसार के पीछे आँखें मूंदकर अँधी दौड़ लगाता है, वह संसार उसका कभी नहीं होता। संसार उसे सुख तो नहीं देता वरन् देता है मुसीबतें, जिम्मेदारियाँ, तनाव और अशांति। जबकि योगी, भक्त या सेवक सेव्य को प्रसन्न करने के लिए संसार की सेवा करता है। वह संसार से कुछ चाहता नहीं है फिर भी उसे बिना माँगे ही बहुत कुछ मिल जाता है।

भोगी चाहता है यश और मान, फिर भी उसे इतना नहीं मिलता जबकि योगी नहीं चाहता है फिर भी उसे अथाह मान, अथाह प्रेम और अथाह आनंद मिलता है। दुनियादार जिस यश, मान और सुख को चाहते हैं – योगी सेवक उसकी परवाह तक नहीं करता वरन् यश, मान और सुख उसके पीछे पड़ता है।

हनुमानजी के पीछे क्या यश-मान नहीं पड़ा ? अभी तक हनुमानजी का यश है, मान है और अभी तक हनुमानजी को करोड़ों लोग प्रेम करते हैं और रावण….? रावण चाहता था यश-मान, लेकिन फिर भी हर साल आग लगा दी जाती है उसके पुतले को। रावण भोगवाद का प्रतीक है और हनुमानजी, श्रीरामजी और श्रीकृष्ण योगवाद के प्रणेता हैं।

एक बार पृथ्वीराज चौहाण सुप्रसिद्ध ʹभक्तमालʹ के रचयिता नाभाजी महाराज के शिष्य पयाहारी बाबा के चरणों में प्रणाम करने गये और बोलेः

“बाबा ! आप चलिए, मैं आपको द्वारिकाधीश की यात्रा करवाकर आऊँ।”

बाबा मुस्कराये। रात्रि को जब पृथ्वीराज चौहाण शयन कर रहे थे तब बाबा उनके बंद शयनखंड में प्रकट हुए और बोलेः

“पृथ्वीराज ! तू मुझे द्वारिकाधीश के दर्शन करवाने के लिए ले जाना चाहता है ? मैं तुझे यहीं द्वारिकाधीश के दर्शन करवा देता हूँ।”

बाबा ने पृथ्वीराज के नेत्रों पर हाथ रखा और थोड़ी ही देर में बोलेः

“खोल आँखें। क्या दिख रहा है ?”

पृथ्वीराज देखते हैं तो साक्षात् द्वारिकाधीश ! वे गिर पड़े पयाहारी बाबा के चरणों में।

पयाहारी बाबा श्रीरामजी को अपना इष्ट मानते थे। एक बार जयपुर के निकट गलता में अपनी गुफा में बैठे थे तब एक शेर आया और बाबा को हुआः

ʹयह शेर आकर द्वार पर खड़ा है, अतिथि के रूप में आया है और खुराक चाहता है। यह अतिथि रोटी-सब्जी तो खायेगा नहीं। इसे तो माँस की जरूरत है। अब क्या करें ?ʹ

पयाहारी बाबा ने उठाया चाकू और अपनी जाँघ का माँस काटकर रख दिया शेर के सामने। अतिथि देवो भव। द्वार पर अतिथि आया है तो उसकी भूख-प्यास मिटाना अपना कर्त्तव्य है। यह भारतीय संस्कृति है।

शेर तो माँस खाकर चल दिया किन्तु श्रीरामजी से रहा न गया। भगवान श्रीराम साकार रूप में प्रगट हो गये। पयाहारी बाबा ने श्रीराम का स्तवन किया और श्रीराम ने प्रेम से पयाहारी बाबा का आलिंगन किया। भगवान के संकल्प से पयाहारी बाबा की जाँघ पूर्ववत् हो गयी और चित्त श्रीरामदर्शन से पुलकित हो उठा।

दुनिया जिन श्रीराम के दर्शन करने के लिए तड़पती है, वे ही श्रीराम अतिथिधर्म के प्रति निष्ठा देखकर सेवक के दीदार के लिए आ गये। सेवा में कितनी शक्ति है ! दुनिया तो सेव्य को चाहती है और सेव्य सेवक को चाहता है।

जो सुख सेवा से मिलता है, जो सुख निष्कामता से मिलता है वह सुख डॉलरों से कहाँ ? वह सुख दुनिया के भोगों में कहाँ ? प्राणीमात्र में बसे परमात्मा के नाते कर्म करने से जिस शांति, सुख और सच्चे जीवन का छोर मिलता है वह दूसरों का शोषण करने की बेवकूफी में कहाँ ? दूसरों का शोषण करने वालों को फिर सुख के लिए शराब-कबाब और कुकर्मों की शरण लेनी पड़ती है।

निष्काम कर्म करने में जिन्हें मजा नहीं आता वे बेचारे कामना-कामना के चक्कर में चौरासी के चक्कर में चलते ही रहते हैं।

एक दिन में 1440 मिनट का समय है हमारे पास। उसमें से कम-से-कम 20-20 मिनट सुबह, दोपहर, शाम तो निकालें निष्काम होने के लिए ! 24 घण्टों में से 1 घण्टे ही सही, निष्काम भाव से ईश्वर का भजन करें… आज तो भजन भी दुकानदारी हो गया है। ʹइतनी माला करें, जप-ध्यान करें तो जरा प्रॉब्लेम् न आयें…. नौकरी अच्छी चले…. छोकरे अच्छे रहें…।ʹ जप-ध्यान से भी यदि नश्वर ही चाहा तो फिर शाश्वत के लिए कब समय निकालोगे ? ईश्वर के लिए ईश्वर का भजन करना चाहिए।

महाभारत में एक बात आती है कि पाँच पाण्डवों सहित द्रौपदी जब वन में विचरण कर रही थी तब एक शाम को युधिष्ठिर महाराज पर्वतों की हारमाला की ओर निहारते हुए, शान्ति एवं आनंद का अनुभव करते हुए प्रसन्नमुख नजर आ रहे थे। द्रौपदी के मन में आयाः ʹमहाराज युधिष्ठिर संध्या करते हैं, ध्यान-भजन करते हैं, भगवान का सुमिरण-चिंतन करते हैं फिर भी हम दुःखी हैं….. वन में दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और दुष्ट दुर्योधन को कोई कष्ट नहीं ?ʹ अतः उसने महाराज युधिष्ठिर से पूछाः

“महाराज ! आप भजन कर रहे हैं, धर्म का अनुष्ठान कर रहे हैं, सच्चाई से चल रहे हैं और दुःख भोग रहे हैं जबकि वह दुष्ट दुर्योधन कपट करके, जुआ खेलकर भी सुखी है। यह कैसी बात है ? आप भजन करते हैं तो भगवान से क्यों नहीं कहते कि हमें न्याय मिले ?”

युधिष्ठिर महाराज ने बड़ा गजब का जवाब दिया है जो भारतीय संस्कृति के गौरव का एक ज्वलंत उदाहरण है। युधिष्ठिर ने कहाः “द्रौपदी ! उसके पास कपट से वैभव और सुख है। वैभव और सुख बाहर से दिखता है किन्तु वह भीतर से सुखी नहीं, वरन् अशांत है। जबकि हमारे पास बाहर की सुविधाएँ नहीं हैं फिर भी हमारे चित्त का सुख नहीं मिटता। मैं भजन इसलिए नहीं करता हूँ कि मुझे सुविधाएँ मिलें अथवा मेरे शत्रु का नाश हो जाए वरन् मैं भजन के लिए भजन करता हूँ। उस सुखस्वरूप, आनंदस्वरूप, चैतन्यघन से क्या माँगना ?”

भजन के लिए भजन तभी होगा जब भगवान से कुछ न माँगा जाये। ʹजो आयेगा देखा जायेगा…. जो आयेगा सह लेंगे… जो आयेगा गुजर जायेगा…ʹ इस भाव से भजन करें तभी भगवान के लिए भजन होगा अन्यथा, ʹयह हो जाये… वह हो जाये….ʹ इस भाव से किया गया भजन भगवान के लिए नहीं होगा। भगवान से कुछ माँगने के लिए भजन करना तो भगवान को नौकर बनाने के लिए भजन करना है।

भजन प्रेमपूर्वक किया जाय अहोभाव से किया जाये, भगवान को अपना और अपने को भगवान का मानकर भजन किया जाये, निष्काम होकर किया जाये तभी भजन, भजन के लिए होगा अन्यथा मात्र दुकानदारी ही रह जायेगा।

अतः सावधान ! समय बहुत कम है। भजन ही करें व्यापार नहीं, दुकानदारी नहीं। कहीं यह अनमोल मनुष्य जन्म यूँ ही व्यर्थ न बीत जाए….

पयाहारी बाबा एक बार घूमते-घामते जयमल के राज्य में आये। उस समय जयमल खड़े-खड़े अपना महल बनवा रहा था। महल बनवाने में पानी की जरूरत पड़ती है। पानी भरने वाला एक पखाली पाड़े पर तालाब से पानी ले जाता  था।

पयाहारी बाबा तालाब के किनारे जा बैठे थे। उऩ्हें पता चला कि यह राजा का पखाली है अतः उन्होंने कहाः

“तुम्हारे राजा से कहना कि साधु आये हैं। उनके लिए पावभर दूध सुबह और पावभर दूध शाम को यहाँ भेज दिया करें।”

जयमल को पता ही न था कि संत-सेवा की महिमा का, अतः पखाली के कहने पर जयमल के अहं को चोट लगी। वह ठहाका मारकर हँसा।

अहंकार कहीं झुकना नहीं चाहता, अहंकार मजाक उड़ाना चाहता है। यह सुविदित सत्य है कि आप जो देते हो वही पाते हो। आप जो चाहते हो वह दो तो वह अनंत गुना होकर आपको मिलता है। आप अपमान चाहते हो तो दूसरों का अपमान करो। फिर आप देखोगे कि ʹहोलसेलʹ में आपको अपमान मिल रहा है। अगर आप धोखा चाहते हो तो दूसरों को धोखा दो। आपको खूब धोखा मिलेगा। अगर आप अशांति चाहते हो तो दूसरों को अशांति पहुँचाओ। आपको खूब अशांति मिलेगी। आप अशांति दोगे किसी को और मिलेगी किसी और से, किन्तु मिलेगी जरूर।

ईश्वर के केवल दो ही हाथ नहीं हैं। आप किसी व्यक्ति की सेवा करते हो तो जरूरी नहीं है कि वही व्यक्ति उन्हीं हाथों से तुम्हारी सेवा का बदला दे। भगवान के अनंत-अनंत हाथ हैं, अनंत-अनंत हृदय हैं। अनंत-अनंत हृदयों के द्वारा यह सेवा कर देता है। आप जो देते हैं, वह अनंतगुना पाते हैं।

सूरत में एक संत-महापुरुष किसी भक्त के अतिथि हुए थे जिसके यहाँ दो-चार भैंसें बँधी थीं। एक और भैंस का दूध रखा हुआ था, जिसे देखकर संत ने पूछाः

“वह क्या है ?”

भक्तः “भैंस का दूध है।”

संतः “लाओ।”

भक्त ने बड़े प्रेम से दूध दिया और संत प्रेम से वहीं पर दूध छींटने लगे। भक्त की तो श्रद्धा थी अतः उसने कुछ नहीं कहा किन्तु बेटों को हुआ कि ʹसाधु बाबा के चक्कर में आकर पिता ने पूरा दूध छिंटवा दिया ! यह कोई रीत है ?ʹ

पिता बोलाः “तुम लोगों को कुछ समझ में नहीं आयेगा, जाने दो। क्या हुआ ? 10-12 सेर दूध ही तो गया ! वह भी गुरु जी की सेवा में ही तो लगा है !”

दूसरे-तीसरे दिन भी संत ने दूध लेकर छींट दिया। बेटे परेशान हो गये तब भक्त ने हाथ जोड़कर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक संत से पूछाः “गुरु जी ! यह क्या कर रहे हैं ?”

संतः “दूध बोता हूँ।”

वे महापुरुष तो चल दिये लेकिन वहाँ भैंसे खड़ी करने पर इतना दूध आता कि समय पाकर वही जगर ʹभैंसों का तबेलाʹ नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

जब जड़ वस्तु फेंकते हो तो वह अनंतगुनी होकर आती है तो चेतन विचार फेंकने पर भी अनंतगुने होकर आयेंगे ही, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

शक्कर खिला शक्कर मिले।

टक्कर खिला टक्कर मिले।।

यह कलजुग नहीं करजुग है।

इक हाथ ले इक हाथ दे।।

जो औरों को डाले चक्कर में।

वह खुद भी चक्कर खाता है।।

औरों को देता शक्कर जो।

वह खुद भी शक्कर पाता है।।

….किन्तु जयमल को तो इन सब बातों का पता ही नहीं था। अतः वह हँसकर अपने मंत्री से बोलाः “आजकल साधु-बाबाओं का दिमाग भी आसमान में है। राजा को कहलाकर भेजा कि पावभर दूध सुबह-शाम भेजना !” फिर पखाली से  बोलाः

“पखाली ! महाराज को बोलना की पाड़ा दुहकर जितना भी दूध निकले वह रोज ले लिया करें…. जयमल ने ऐसा कहा है।”

पखाली ने जाकर राजा का संदेश सुना दिया पयाहारी बाबा को। पयाहारी बाबा आ गये अपनी यौगिक मस्ती में। संकल्प करके पखाली के पाड़े पर पानी छींटा, हाथ घुमाया और वह पाड़ा भैंस बन गया। उसके थन दूध से भर गये। वह देखकर पखाली बाबा के चरणों में गिर पड़ा।

पखाली पानी भरकर पाड़े को ले जाने लगा तो उसके थनों से दूध टपक रहा था। वह रास्ते चलते लोगों को भी यह चमत्कार बताने लगाः “देखो देखो… बाबा ने यह कैसा जादू कर दिया !”

जब जयमल ने देखा तो उसे हुआ कि ʹधत् तेरे की ! लोगों का शोषण करके फिर हम मजा लेना चाहते हैं किन्तु इनका तो संकल्प मात्र ही प्रकृति में परिवर्तन कर देता है !ʹ

जयमल आया और पयाहारी बाबा के चरणों में गिरता हुआ बोलाः

“महाराज ! क्षमा करें। यह सब कैसे होता है, बताने की कृपा करें।”

पयाहारी बाबाः “हरि अनंत हैं। हरि की शक्ति अनंत है। वही अनंत शक्तिमान ब्रह्माण्डनायक हरि तेरा अन्तरात्मा बनकर बैठा है, मूर्ख ! इस महल को बना-बनाकर फिर छोड़कर मरेगा। इससे तू हृदय के महल को बना ताकि तेरा परलोक सुधर जाये। इन परिस्थितियों का सुख तू कब तक लेगा ? चापलूसों की खुशामद का सुख तू कब तक लेगा ? मूर्ख ! तू दिखता तो बाहर से राजा है किन्तु भीतर से महाकंगाल है…”

जयमल का हृदय बदल गया। पुनः चरणों में गिरकर बोलाः “फिर सुख कैसे मिलेगा ?”

पयाहारी बाबाः “जो सुखस्वरूप श्रीहरि हैं उनकी पूजा उपासना और भजन करना सीख।”

जयमन ने प्रार्थना करके थोड़ी बहुत पूजा की विधि सीख ली और अपने महल के ऊपर एक सुन्दर कक्ष बनवाया। जयमल ने श्रीहरि का पूजाकक्ष सात्त्विक ढंग से सजाया और उसमें ऐसी सीढ़ी रखी जिससे केवल वही जा सके। बाद में सीढ़ी उठाकर रख दी जाये। अपने सेवकों को सख्त आदेश दे दिया कि ʹउसके सिवाय यदि कोई उस सीढ़ी का उपयोग करके ऊपर के कक्ष में जायेगा तो उसे कठोर दंड दिया जायेगा।ʹ

उस कक्ष में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करके जयमल रोज उसकी पूजा करता और गुरुमंत्र का जप करता। इस प्रकार दिन बीत चले।

एक दिन जयमल थका हुआ था अतः रात्रि में जल्दी से नीचे के कमरे में आकर सो गया। तब उसकी पत्नी को हुआः ʹदेखा जाये, ऊपर क्या है ? ये रोज आकर पूजा करते हैं, भोग चढ़ाते हैं और सबको प्रसाद बाँटते हैं। आजकल बड़े भक्त हो गये हैं तो किस प्रकार सेवा-पूजा करते हैं ?ʹ

पत्नी ने धीरे-से सीढ़ी उठाकर रखी और धीरे-धीरे कमरे में गयी। वहाँ जाकर क्या देखती है कि जयमल जिनकी रोज पूजा करते हैं वे ही ठाकुर जी एक तेजोमय पुरुष के रूप में शैया पर विश्रान्ति कर रहे हैं ! जयमल की पत्नी दंग रह गयी कि ʹमैं क्या देख रही हूँ !ʹ

उसका शरीर पुलकित हो उठा, हृदय रोमांचित और आनंद-माधुर्य से परिपूर्ण हो उठा तथा नेत्रों से प्रेमाश्रु बरस पड़े। वह ज्यादा वहाँ न रह सकी क्योंकि जयमल के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थी। अतः श्रीहरि को प्रणाम करके धीरे-धीरे सीढ़ी उतरने लगी। ज्यों ही आखिरी सीढ़ी से जरा जोर से कूदी त्यों ही गहनों की आवाज सुनकर जयमल की नींद टूट गयी। सीढ़ी लगी देखकर वह पत्नी को डाँटने लगाः “क्यों गयी थी ऊपर ?!”

तब पत्नी ने कहाः “चाहे आप मुझे प्राणदण्ड दे दें किन्तु अब मुझे कोई डर नहीं है।”

जयमलः “तुम्हें मेरे से डर नहीं लगता ?”

पत्नीः “जब डरती थी तब डरती थी किन्तु आज मुझे डर नहीं लग रहा है। पतिदेव ! मैं आपकी अवज्ञा करके चुपके से ऊपर गयी और वहाँ क्या देखा कि जिनकी आप पूजा करते हैं वे ही भगवान मानो साकार होकर आपके पूजाकक्ष की शैया पर शयन कर रहे हैं…”

जयमल को पत्नी के हाव-भाव और मुखमुद्रा देखकर हुआ कि सचमुच ही इसने साकार विग्रह के दर्शन किये हैं। अतः वह तुरंत सीढ़ी से चढ़कर पूजाकक्ष में गया किन्तु उसे कुछ भी दिखाई न पड़ा। वहाँ ठाकुर जी को न पाकर भी उसे उस शैया को प्रणाम किया और कहाः “प्रभु ! अभी मेरे चित्त में दोष हैं। मेरे कषाय अभी परिपक्व नहीं हुए हैं। मैंने अनेकों का शोषण किया है और विलासी जीवन जिया है इसीलिए मेरा भक्तियोग सफल नहीं हुआ। फिर भी गुरुकृपा से आप आते तो हो। पत्नी का निर्दोष हृदय है अतः उसे दीदार दिया। देर सवेर आप मुझे भी दर्शन दोगे ही। अगर नहीं भी दिया तब भी यह मानकर प्रसन्नता आ रही है कि मेरी पूजा आप तक पहुँच तो रही है…..”

आप जो  देते हो वह जरूर उस अन्तर्यामी ईश्वर तक पहुँचता ही है। इसमें संदेह मत करो कि ʹपहुँचता है कि नहीं पहुँचता….ʹ जब आपकी देखने की आँखें खुल जायेंगी तब आपको दिखेगा भी सही।

किसी के लिए आप कुभाव करें और जब वह व्यक्ति मिले तब आप देखें कि वह आपसे कैसा व्यवहार करता है। किसी के लिए आप सदभाव भेजें फिर उसके मिलने पर आप देखें कि वह आपसे कैसा व्यवहार करता है।

भारत कर्मभूमि है। मुक्ति का द्वार है यह देश। उत्तम कर्म एवं सत्संगति, महापुरुषों का सान्निध्य एवं उपदेश मनुष्य को मुक्तिधाम तक ले जा सकता है। शास्त्र कहते हैं।

ʹआसक्ति कभी जीर्ण होने वाली नहीं है किन्तु वही आसक्ति संत महापुरुषों के चरणों में और उनके वचनों में हो जाये, स्वामी लीलाशाह बापू के श्रीचरणों और वचनों में हो जाये, भगवान वेदव्यास जी के श्रीचरणों एवं कथनों में हो जाये तो वही आसक्ति मुक्ति देने वाली है।

डिस्को में, वाइन में, क्लब में स्त्री-पुरुषों के नाचगान में आसक्ति करके तो बरबादी ही होती है, पायमाली ही होती है लेकिन भगवान में और भगवान के प्यारे संतों के वचनों में आसक्ति करने से मुक्ति और भुक्ति दोनों दासियाँ बन जाती हैं…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 12,13,14,15,16,6 अंक 50

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पाओ अपने आपको…..


पूज्यपाद संतश्री आसारामजी बापू

सूर्य का स्वभाव है प्रकाश देना, चन्द्र का स्वभाव है शीतलता देना, माँ का स्वभाव है बच्चों को पोसना। ऐसे ही भगवान का और भगवान को पाये हुए महापुरुषों का स्वभाव है दूसरों का कल्याण करना। जो भी सामने आ जाए उसका कल्याण किये बिना वे नहीं रह सकते हैं।

जोगी मछन्दरनाथ ऐसे ही महापुरुष थे। एक बार जोगी मछन्दरनाथ किसी नगर में गये। वहाँ के लोगों ने मछन्दरनाथ को बतायाः

“इस नगर के राजा अपना राज्य अपने बेटों को सौंपकर जंगल में चले गये हैं। वहीं पर रहते हैं। जब भूख लगती है तब नगर में मधुकरी करने आते हैं। भिक्षा में जो भी रूखा-सूखा टुकड़ा मिलता है वह खा लेते हैं। कौपीन पहनकर रहते हैं। किसी के सामने आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं तो बात करने का तो सवाल ही नहीं उठता है। बड़े तपस्वी हैं, महात्यागी हैं…”

एक दिन जब वह राजा नगर में आया और भिक्षा में जो कुछ मिला वह लेकर वापस जाने लगा तब मछन्दरनाथ ने जान-बूझ कर उसे जरा-सा धक्का मार दिया।

वह बोलाः “अरे ! आप मुझे धक्का देकर मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं ? परन्तु ऐसी हरकतें करके भी आप मुझे गुस्सा नहीं दिला सकते।”

मछन्दरनाथ ने कुछ जवाब नहीं दिया। पाँच-पच्चीस कदम आगे चलकर उन्होंने फिर से से उस त्यागी राजा को कोहनी मारी। उसका भिक्षापात्र गिरते-गिरते बच गया।

उस राजा ने पुनः कहाः

“आप क्या समझते हैं ? आपके ऐसे कृत्यों से परेशान होकर मैं गुस्सा हो जाऊँगा ? नहीं, यह नहीं होगा। महाराज ! तब करने के लिए मैंने राज-पाट छोड़ दिया है, वस्त्राभूषण छोड़ दिये हैं, सगे संबंधियों को भी छोड़ दिया है। अब मेरे पास क्या है जो आप मुझसे छीनना चाहते हैं ? मेरे पास कुछ नहीं हैं। मैं महात्यागी हूँ।”

तब मछन्दरनाथ ने कहाः

“अभी बहुत कुछ त्याग करना बाकी है।”

“अरे महाराज ! मेरे पास तो कुछ नहीं है। केवल यह कौपीन है। आप कहें तो उसका भी त्याग कर दिखाऊँ।”

मछन्दरनाथः “मैं कौपीन का त्याग करने के लिए तो नहीं कहता हूँ लेकिन तुम अगर कौपीन का त्याग कर भी दो तब भी बहुत कुछ त्याग करना बाकी रह जायेगा।”

राजा को मछन्दरनाथ की बात समझ में न आयी। तब उन दयालु महापुरुष ने अपनी करूणा-कृपा बरसाते हुए कहाः

“अभी बहुत कुछ त्याग करना बाकी है। अभी स्थूल और सूक्ष्म शरीर में से तुम्हारी अहंता नहीं छूटी है। तुम कहते होः “मैंने राजपाट, वस्त्रालंकार, सगे-संबंधियों को त्याग दिया।ʹ परंतु जब तुम इस धरती पर आये थे तब साथ में क्या लेकर आये थे ? वास्तव में तुम्हारा था ही क्या जो तुमने त्याग दिया ? राज्य तो तुम्हारे आऩे से पहले भी था और जब तुमने उसे त्याग दिया ऐसा मानते हो तब भी राज्य तो वहीं पर है। तुम इस संसार में अकेले आये हो और जाओगे भी अकेले, तब तुम जिनका (अपने सगे-संबंधियों का) त्याग करने की बात कर रहे हो उनका तो त्याग हो ही जायेगा। तुम्हारे पास तुम्हारा अपना क्या था जिसे तुमने त्याग दिया है ? माता-पिता के रज-वीर्य से तुम्हारे शरीर का जन्म हुआ और पहले किये हुए पुण्यों के प्रभाव से तुम्हें राज्य मिला। अब त्याग करना बाकी है अपना अहंकार। ʹमैं त्यागी हूँ…. मैंने राजपाट का त्याग करने वाला मैं कौन हूँ ?ʹ इसे जरा खोजो। ʹमैं कैसा हूँ ?ʹ इसे जानो। उसके लिए तुम महापुरुषों की शरण में जाओ, सत्संग सुनो और विचार करो। तब ही तुम अपने-आपको जान पाओगे।”

पचास साल तक भले ही मन्दिर-मस्जिद में जाते रहो, पूजा पाठ करते रहो, आरती करते रहो लेकिन मंदिर के वे देव भी तुम्हें आत्मानुभव नहीं करा सकते। जब तक आत्मज्ञान का सत्संग नहीं मिलता है, आत्मज्ञानी गुरु की कृपा हजम नहीं होती है तब तक आत्मानुभव नहीं हो सकता। भीतर के देव का अनुभव करने के लिए सदगुरु की शरण में जाना ही पड़ता है।

सदगुरु के वचनों को आदरपूर्वक सुनकर उस पर अमल करने से सदियों से भटकता हुआ चित्त वश में होता है, अपने-आप में स्थिर होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए एक यह भी उपाय है कि किसी एकांत स्थान में या तो अपने कमरे के कोने में बैठकर आँखों के सामने अपने इष्टदेव का या गुरुदेव का चित्र रखो। उससे तीन-चार फीट दूर बैठकर आँख की पलकें न गिरें उस तरह चित्र को एकटक निहारते रहो। बाद में आँखें बंद कर के गुरु के या इष्ट के चित्र को भ्रूमध्य में निहारो। इस प्रकार का प्रयोग हररोज पाँच मिनट के लिए भी करोगे तो मन की शक्ति बढ़ेगी और बलवान मन को जहाँ लगाना चाहोगे वहाँ लगेगा।

हम कहाँ हैं ? बाजार में हैं कि खेत में, घर में हैं कि दुकान में, उसका महत्त्व नहीं है परंतु हमारा मन कहाँ हैं, हमारे मन में समझ कैसी है उसका महत्त्व है। अगर हम सुख में आकर्षित और दुःख में अशांत हो जाते हैं तो हम स्वर्ग में होते हुए भी नरक बना लेते हैं।

संसार की चीज-वस्तुएँ कितनी भी हों, उससे मन की शांति नहीं मिलती है। अनेकों सुविधाएँ होने के बावजूद भी यदि मन में शांति नहीं है तो वे सुविधाएँ किस काम की ? जिसके पास बाहर  की सुविधाएँ भले नहीं हों लेकिन मन में यदि शांति और आनंद हो तो वह वास्तव में सुखी है और भीतर की शांति पाने का सब से सरल उपाय यह है कि न दुःख से भागो न सुख में चिपको, वरन् सुख और दुःख आते जाते रहते हैं। सुख जाता है तो दुःख दे जाता है और दुःख जाता है तो सुख दे जाता है।

एक भाई किसी महाराज के पास गये और कहने लगेः

“महाराज ! इस जिंदगी में मैंने दुःख-ही-दुःख देखे हैं।”

महाराज ने पूछाः “कितने दुःख देखे हैं ?”

उसने कहाः “कितने दुःख गिनाऊँ ? मैंने बहुत दुःख देखे हैं।”

महाराज ने कहाः “तूने सुख देखा ही न हो तो ʹबहुत दुःखʹ कैसे कह सकता है ? थोड़ा सुख भी मिला होगा तभी तो ʹबहुत दुःख मिलाʹ – ऐसा कह सकता है। केवल दुःख ही दुःख होता तो बहुत या थोड़ा हो नहीं सकतात। सुख भी आया और गया, दुःख भी आया और गया। ये तो आने जाने वाले मेहमान हुए। तू तो वही का वही रहा उसे देखने वाला साक्षी।”

जैसे, हाईवे पर यदि तुम्हारा बंगला हो तो रोड़ पर से बस, टैक्सी, ऑटोरिक्शा, साईकिल, स्कूटर, कार आदि गुजरते हैं। कभी बारात भी गुजरती है और कभी अर्थी लेकर श्मशान में जाने वाले लोग भी गुजरते हैं। उन सबको अपने बंगले में बैठकर तुम देखते रहो तो ठीक है लेकिन जो आये और उसके साथ चलने लग जाओगे, बारात को देखकर नाचने लगो या अर्थी को देखकर रोने लगो तो बंगले में शांतिपूर्वक कैसे बैठ सकोगे ? ऐसे ही अपने मनरूपी हाईवे पर सुख-दुःख की वृत्तियाँ, मान-अपमान के प्रसंग आदि आते जाते रहते हैं। जब हम आत्मारूपी घर को छोड़कर उन वृत्तियों के साथ एक होकर मन को दौड़ाते रहते हैं तो परेशान हो जाते हैं परंतु यदि आत्मारूपी बंगले में बैठकर सुख-दुःख, मान-अपमान को केवल देखते रहें तो आनंद ही आनंद है।

जैसे सागर की उछलती तरंगों की गहराई में शांत उदधि है और उस शांत उदधि के आधार पर ही तरंगे उछलती हैं। ऐसी कोई तरंग नहीं है जो सागर से अलग होकर सड़क पर दौड़ सके। ऐसे ही अपने मन की तरंगें भी शांत आत्मा के आधार पर ही उठती हैं। ऐसा कोई मन नहीं है जो चैतन्य के आधार के बिना संकल्प-विकल्प कर सके। परमात्मा के इतने निकट होते हुए भी मानव दुःखी, चिंतित और भयभीत रहता है। क्यों ? क्योंकि आने-जाने परिस्थितियों को सत्य मानकर उनके साथ वह एक हो जाता है।

जब हम दरिया किनारे घूमने जाते हैं, तब उछलती तरंगें देखने का मजा आता है किन्तु वह मजा तभी तक आता है जब तक किनारे पर खड़ा रहकर उसे देखते रहें। अगर किनारा छोड़कर तरंगों के साथ घुलमिल जायें तो तरंग देखने का मजा तो क्या आयेगा लेकिन तरंगें ही हमको घसीटकर गहरे पानी में डुबा देंगी। ऐसे ही जीवन में सुख-दुःख की तरंगें, मान-अपमान की तरंगें, तंदुरुस्ती और बीमारी की तरंगे आती जाती रहती हैं। अगर आप अपने आप में स्थित रहकर आत्मारूपी किनारे पर खड़े होकर तरंगों को देखते रहोगे तो मजा आएगा परंतु उनके साथ एक हो जाओगे तो वे तुम्हें बहा ले जायेंगी। सुख-दुःख की, मान-अपमान की तरंगें आती और जाती हैं लेकिन उनको देखने वाले तुम वही के वही रहते हो। वही तुम आत्मा हो, चैतन्य हो और आत्मा सदा एकरस है, अबदल है। शरीर और संसार बदलता रहता है। बचपन गया तो जवानी आती है और जवानी चली जाये तो बुढ़ापा आता है। संसार की परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं लेकिन इऩ सब बदलाहट को देखने वाला जो साक्षी है, वह नहीं बदलता है, वही आत्मा है। जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय का साक्षी है, महाप्रलय भी हो जाये फिर भी जिसका बाल भी बांका नहीं होता है वही आत्मा है… वही परमात्मा है।

जो सुख-दुःख में, मान-अपमान में सम रहकर अपने आप में स्थित रहते हैं वे देर सबेर आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। उनको फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता है। वे भगवदरूप हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष ईश्वर से कभी जुदा नहीं होते।

आप भी यदि ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो तो मिथ्या शरीर और संसार को सत्य मानने का भ्रम मिटाना पड़ेगा। यह भ्रम दूर होगा तभी आप सदा के दुःखों से मुक्त हो सकोगे। जैसे स्वप्न के पदार्थों को लेकर कोई जाग नहीं सकता, ऐसे ही जगत की सत्यता को पकड़कर कोई जगदीश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता और संसार को सत्य मानने का वह भ्रम सदगुरु की करूणा कृपा के बिना नहीं मिटता।

सदगुरु मेरा शूरमा करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 7,8,9,23 अंक 50

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नासमझी है दुःखों का घर


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

यह भी कैसी विचित्र बात है कि सभी दुःखों और परेशानियों को मिटाना चाहते हैं लेकिन फिर भी हर दिन बंधन बढ़ाते जा रहे हैं, परेशानियों को पोसते जा रहे हैं। मुक्ति सभी चाहते हैं किन्तु मुक्ति पाने की मुक्ति से दूर भागते हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात हैः किसी व्यक्ति ने आकर मुझसे कहाः “बापू ! इतने सारे लोग भजन कर रहे हैं, एक मैं नहीं करूँ तो क्या घाटा होगा ? मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।”

उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आयी क्योंकि वह सरलता से बोल रहा था। मैंने कहाः “अच्छा, मुक्ति नहीं चाहिए किन्तु सुख तो चाहते हो न ? परेशानियाँ तो मिटाना चाहते हो न ?”

उसने कहाः “जी।”

“तो फिर हमारे ये सारे प्रयास किसलिये हैं ? हम कहाँ कहते हैं कि तुम मोक्ष पा लो। हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारी परेशानियाँ मिट जायें और परेशानी मिटाना ही तो मोक्ष है। छोटी परेशानी मिटाने में कम मेहनत है, बड़ी परेशानी के लिये ज्यादा, जन्म-मरण की परेशानी मिटाने के लिए आत्मज्ञान की मेहनत करनी पड़ती है।”

यदि थोड़ी-थोड़ी परेशानियों, दुःखों, बंधनों से थोड़ समय के लिए छूटना चाहते हो तो थोड़ा ज्ञान, थोड़ा पुरुषार्थ और थोड़ा सुख ही काफी है और यदि सदा मुक्ति चाहिए, पूर्ण निर्दुःख, पूर्ण निर्बन्ध, पूर्ण सुख चाहिए तो पूर्ण ज्ञान के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना ही चाहिए।

दुःख कोई नहीं चाहता। मुक्ति नहीं चाहते तो क्या बंधन चाहते हो ? तुम्हें कोई जेल में डाल दे, कोई तुम्हारे पर आदेश चलाये, पत्नी तुम्हें आँखें दिखाये तो क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता चाहते हो, मुक्ति चाहते हो और मुक्ति पानी है तो फिर ध्यान भजन, जप, सेवा-स्वाध्याय भी करना पड़ेगा। मुक्ति की मंजिल तक पहुँचना है तो उसकी राह पर तो चलना ही होगा।

अनेकों को ऐसा लगता है कि ʹभाई ! हममें तो भगवान के रास्ते चलने की ताकत नहीं है, हमें ज्ञान नहीं चाहिए….ʹ ज्ञान नहीं चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए तो क्या मुसीबतें चाहिए ? दुःख चाहिए ? यह तो नासमझी है। आदमी तमोगुण में आ जाता है तब कहता है कि ʹहमें ईश्वर से क्या लेना देना ? संत-वंत कुछ नहीं, पुण्य-वुण्य कुछ नहीं।ʹ तो पाप करके भी तो तुम सुख ही चाहते हो न ? यदि पाप करने में सुख होता तो सभी पापी आज मजे में ही होते, अशान्त और दुःखी न होते और मरने के  बाद प्रेत या पशु होकर न भटकते, मुक्त हो जाते, शाश्वत स्वरूप से एक हो जाते।

सुख पाप में नहीं, सुख वासना में नहीं, सुख इच्छाओं की पूर्ति में नहीं वरन् सुख है मुक्ति में, सुख है मुक्ति पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं के श्रीचरणों में। इच्छा वासना की निवृत्ति में परम सुख है।

मैंने सुना है। एक बार हनुमानप्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयन्द का आपस में चर्चा कर रहे थेः “आजकल तो कहलाने लगे बड़े ज्ञानी, बड़े संन्यासी… पहले लोग कितना-कितना तप करते थे। इन्द्र ने 108 वर्ष तक ब्रह्माजी की सेवा की, तब ब्रह्मज्ञान मिला। और आज…? घर छोड़कर बन गये साधु-संन्यासी और लिख देंगेः 1008 स्वामी फलानानंद जी…”

तब एक किसान ने उठकर पोद्दार जी से कहाः “भाई जी ! 108 वर्ष तक इन्द्र ने ब्रह्मा जी की सेवा की, तब ज्ञान मिला, तो 108 वर्ष देवताओं के कि मनुष्य के 108 वर्ष ? अगर देवताओं के वर्ष गिनते हो तो उनकी आयुष्य तो 100 वर्ष से अधिक नहीं होती और अगर मनुष्य के 108 वर्ष गिनते हो तो देवताओं के 108 दिन से अधिक नहीं होते।”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार को हुआ कि किसान के वेष में भी ये कोई पहुँचे हुए महात्मा लगते हैं। उनकी सात्त्विक श्रद्धा थी न !

एक बार पोद्दार जी के मुख से निकल गयाः “जो मिर्ची का अचार नहीं छोड़ सकते, जो चाय नहीं छोड़ सकते, जो दो वक्त का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे ब्रह्मज्ञान कैसे पा सकते हैं ?”

पहले वे इस प्रकार की आलोचना किया करते थे। साधना काल में इस प्रकार का कभी हो जाता है उऩकी इस बात को अखंडानंद सरस्वतीजी ने सुन लिया। वे भिक्षा लेने पोद्दार जी के घर। उनकी धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से भिक्षा दी। तब अखंडानंदजी ने कहाः “बहन जी ! मिर्ची का अचार है ?”

धर्मपत्नी ने कहाः “हाँ महाराज है।”

“अच्छा, तो दो-तीन टुकड़े दे दो।”

धर्मपत्नी ने अचार दिया। तब पुनः अखंडानंदजी बोलेः “बहन जी ! भाई जी घर पर हैं ?”

“जी हाँ महाराज ! भीतर के कक्ष में कुछ लेखन कार्य कर रहे हैं।”

“अच्छा ! जरा भाई जी को बुलाना।”

भाई जी बाहर आये और आकर प्रेम व श्रद्धा से प्रणाम कियाः “महाराज ! नमो नारायणाय।

अखंडानंद जीः नमो नारायणाय। सेठजी ! आपने प्रवचन में कहा थाः ʹअचार चाहिए, खिचड़ी चाहिए, चाय चाहिए… जो ʹचाहिए-चाहिएʹ में लगे हैं और अपने को ब्रह्मज्ञानी मानते हैं वे क्या ब्रह्मज्ञानी होते हैं ? जो दो समय का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे क्या ब्रह्मज्ञान पा सकते हैं ?ʹ

….. तो जिन्हें वास्तव में ब्रह्म परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए सेठजी ! मैं पूछता हूँ कि कमबख्त दो मिर्चियाँ, क्या उऩकी ब्रह्मनिष्ठा के स्वाद को कम कर देगी ? क्या अचार की ये दो मिर्चियाँ उऩके परमात्मज्ञान के रस को छीन लेगी ?”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार जी हाथ जोड़ते हुए बोलेः “महाराज ! क्षमा कीजिए। आप जैसों के आगे तो हम नतमस्तक हैं।”

जिनको ब्रह्म-परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए मिर्ची का अचार तो क्या, छप्पन पकवान तो क्या देवताओं के भोग भी नीरस हैं। वे उनको आसक्त नहीं कर सकते। ऐसे दिव्य ब्रह्मज्ञान के रस का वे आस्वाद कर चुके होते हैं कि जिसके आगे ब्रह्मलोक के सुख तक फीके पड़ जाते हैं तो मनुष्य लोक के तुच्छ में वे क्या आसक्त होंगे ? जिनको आत्मा-परमात्मा का शुद्ध अनुभव हो जाता है, उनके लिए संसार के सुख-दुःख, ऊँचाई-नीचाई कोई मायने नहीं रखती क्योंकि उऩ्होंने अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप को जान लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 50

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