Yearly Archives: 1997

करो सेवा मिले मेवा….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

बड़ौदा में गायकवाड़ का राज्य था। उनके कुल की महिला शांतादेवी स्वामी शांतानंद जी के दर्शन करने गयी। आश्रम में जाकर उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति गौशाला में सफाई कर रहा है। शांतादेवी ने उससे कहाः “मुझे पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने हैं।”

उसने कहाः “यहाँ कोई गुरुदेव नहीं रहते।”

आगे जाकर उन्होंने किसी दूसरे से पूछाः “स्वामी शांतानंदजी महाराज क्या इधर नहीं हैं?”

वह बोलाः “इधर ही है। क्या आपने उन्हें गौशाला में नहीं देखा ?”

शांतादेवीः “वे तो मना कर रहे हैं ?”

उसने कहाः “गौशाला में सेवा करने वाले स्वयं ही पूज्यपाद स्वामी शांतानंद जी महाराज हैं।”

यह सुनकर वह पुनः गौशाला की ओर दौड़ी एवं प्रणाम करते हुए बोलीः “मुझे पता नहीं था की आप ही पूज्यपाद गुरु देव हैं और गौशाला में इतनी मेहनत कर रहे हैं।”

स्वामी शांतानंदः “तो क्या साधु या संन्यासी वेश परिश्रम से इऩ्कार करता है ?”

“आज मैं आपके दर्शन करने एवं सत्संग सुनने के लिए आयी हूँ।”

“अच्छा ! सत्संग सुनना है तो सेवा कर। ले यह लकड़ी का टुकड़ा और मिट्टी का तेल। इन छोटे-छोटे बछड़ों के खुरों में कीड़े पड़ गये हैं। उन्हें लकड़ी से साफ करके मिट्टी का तेल डाल।”

शांतादेवी ने बड़े प्रेम से बछड़ों के पैर साफ किये और हाथ-पैर धोकर स्वामी शांतानंदजी के चरणों में सत्संग सुनने जा बैठी। उनके दो वचन सुनकर शांतादेवी ने कहाः “महाराज ! आज सत्संग से मुझे जो शांति मिली है, जो लाभ मिला है ऐसा लाभ, ऐसी शांति जीवन में कभी नहीं मिली।”

स्वामी शांतानंदजीः “आज तक तूने मुफ्त में सत्संग सुना था। आज कुछ देकर फिर पाया है, इसलिए आनंद आ रहा है।”

गुरु तो अपना पुरा खजाना लुटाना चाहते हैं किन्तु…

शिष्य को चाहिए कि तत्परता से सेवा करके अपना भाग्य बना ले तो वह दिन दूर नहीं, जब वह गुरु के पूरे खजाने को पाने का अधिकारी हो जायेगा। सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय भी हो तो फिर उतने परिश्रम की आवश्कता भी नहीं होती। सेवा से अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है।

कर्मों का फल

एक बार महर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे। गर्मियों के दिन थे। एक प्याऊ से उऩ्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहाँ से पच्चीस तीस बकरों को लेकर गुजरा। उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था ʹशगालचन्द सेठ।ʹ दुकानदार का ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो चार घूँसे मार दिये। बकरा ʹबैंઽઽઽ बैंઽઽઽʹ करने लगा और उसके मुँह से सारे मठ गिर पड़े।

देवर्षि नारद ने जरा सा ध्यान लगाकर देखा और जोर से हँस पड़े। तुम्बरू पूछने लगाः ʹʹगुरुजी ! आप क्यों हँसे ? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप  दुःखी हो गये थे किन्तु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इसमें क्या रहस्य है ?”

नारदजी ने कहाः “छोड़ो भी.. यह सब तो कर्मों का फल है, छोड़ो।”

तुम्बरूः “नहीं गुरूजी ! कृपा करके बताइये।”

नारदजी कहते हैं- “इस दुकान पर जो नाम लिखा है ʹशगालचंद सेठʹ वह शगालचंद सेठ स्वयं बकरा होकर आया है। यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। शगालचंद सेठ मरकर बकरा हुआ है और अपना पुराना संबंध समझकर दुकान पर मठ खाने गया। उसके बेटे ने ही उसको मारगर भगा दिया। मैंने देखा की बीस बकरों में से कोई नहीं गया और यह क्यों गया कम्बख्त ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना संबंध था।”

पुत्र ने तो बकरे के कान पकड़कर घूँसे जमा दिये और कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः “जब इस बकरे को तू हलाल करे तो मुण्डी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मठ खा गया है।”

जिस बेटे के लिए शगालचंद ने इतना कमाया था, वही बेटा मठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिया है तो मुण्डी माँग रहा है बाप की। इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही है कि अपने-अपने कर्मों का फल तो प्रत्येक प्राणी को भुगतना ही पड़ता है और इस जन्म के रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 49

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जहँ राम तहँ नहीं काम….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

मन की पाँच अवस्थाएँ होती हैं- क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, एकाग्र और निरूद्ध। क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ ये आम मन की अवस्थाएँ हैं एवं एकाग्र और निरूद्ध ऊँचे मन की अवस्थाएँ हैं। भारत के ऋषि-मुनियों ने एकाग्र और निरूद्ध मन का अनुसंधान करके ही समाधिसुख पाया है, दिव्य सृष्टि का अनुभव एवं आत्मदेव का साक्षात्कार किया है जबकि आज के मनोवैज्ञानिकों ने केवल मानव मन की क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ इन तीन अवस्थाओं पर ही ध्यान दिया है।

इस प्रकार रूग्ण मन का अनुसंधान करके मनोवैज्ञानिकों ने अपने निष्कर्ष में संयम, ब्रह्मचर्य इत्यादि बातों को व्यर्थ बताकर सांसारिक काम-व्यवहार को सत्य साबित करना चाहा है। मनोवैज्ञानिकों की कल्पना ʹसंभोग से समाधिʹ को यदि हम सच मान लें तो क्या सांसारिक काम-चेष्टा में दिन रात रत रहने वाले सूअर, कबूतर, बकरियाँ आदि समाधि के आनंद में होते हैं ? क्या मनुष्य शादी करके, काम-विकार की मायाजाल में फँसकर दिव्य तत्त्व का साक्षात्कार करता है ? नहीं।

जीवन में संयमरूपी ʹब्रेकʹ और विवेकरूपी ʹलाल बत्तीʹ की खूब आवश्यकता है। संयम और विवेक से शादी करके बच्चों को जन्म देकर शास्त्रकथनानुसार जीवन बिताना ठीक है, अच्छा है किंतु खुद को तथा पत्नी को भोग की मशीन बनाकर स्वयं को रोगी बनाना कहाँ तक उचित है ?

तुलसीदास जी ने कहा हैः

जहँ काम तहँ नहीं राम जहँ राम तहँ नहीं काम।

तुलसी दोनों रह न सके रवि-रजनी एक ठाम।।

रामायण में एक प्रसंग आता हैः जब रावण श्रीरामचन्द्रजी की सेना से परेशान हो गया तब आखिर में दूसरा रास्ता न मिलने पर उसने भाई कुंभकर्ण को नींद में से जगाया। इस अवसर पर कुंभकर्ण ने रावण से कहाः

“एक सीता के लिए तुम इतने सारे योद्धाओं को मरवा रहे हो एवं मेरी भी नींद बिगाड़ रहे हो ? तुम्हारे पास तो कितनी सारी कलाएँ हैं। कोई भी आजमा ली होती ?”

रावणः “मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा। मैं सब युक्तियाँ आजमाकर थक गया हूँ। तुम्हें नींद से जगाने पर तुम नाराज होते हो यह मैं जानता हूँ, किंतु मेरे भाई ! दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।”

कुंभकर्णः “तुम्हारे पास तो रूप बदलने की कला है और सीता तुम्हारी ही अशोक वाटिका में है। तुम राम का रूप लेकर सीता के पास सरलता से पहुँच सकते थे।”

रावणः “मैं यह पापड़ भी बेलकर आया हूँ। मैं जब राम का रूप लेने के लिए राम का चिंतन करता हूँ तब तेरी भाभी (पत्नी मंदोदरी) भी मुझे देवी जैसी लगती है तो फिर मैं सीता के पास कैसे जा सकता हूँ ?”

राम नाम इतना पवित्र है कि उसके चिंतनमात्र से रावण जैसे दुष्ट, पापी, अधम का हृदय भी परिवर्तित हो जाता है। राम नाम लेने से मोह, वासना आदि शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और  हृदय में भगवदभक्ति का संचार होने लगता है।

योगियों ने यही बात अपने ढंग से बतायी है। हमारे शरीर में सात मुख्य केन्द्र हैं। प्रथम केन्द्र को मूलाधार केन्द्र, काम-केन्द्र कहते हैं, जो शरीर की नींव बनाने वाला है। प्रारंभ के सात वर्ष तक मूलाधार केन्द्र का विकास होता है। मूलाधार केन्द्र के विकास के बाद ऊपर के केन्द्रों का विकास होता है। मनुष्य धीरे-धीरे ईश्वरीय दिव्यता का अनुभव करने लगता है। जब सहस्रार केन्द्र का विकास होता है तब राम की समाधि का सुख प्राप्त होता है। जीव जब काम-विकाल में लीन होता है तब शरीर से दुर्गन्ध निकलती है और जब जीव राम के रस में लीन होता है तब शरीर से दिव्य प्रकाश, दिव्य दुर्गन्ध निकलती है।

ये तो हुई मन की अवस्थाएँ लेकिन जो तुम्हारे मन को देख रहा है वह साक्षी, चैतन्य, तुम्हारे रोम-रोम में रमने वाला राम तुम्हारा आत्मा है। अगर उस रामतत्त्व को जान लिया तो फिर काम की क्या ताकत है कि तुम्हें विचलति कर सके….. परेशान कर सके ?

संतों की सहिष्णुता

सिंधी जगत के महान तपोनिष्ठ ब्रह्मज्ञानी संत श्री टेऊंरामजी ने जब अपने चारों ओर समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को हटाने का प्रयत्न किया, तब अनेकानेक लोग आत्मकल्याण के लिए सेवा में आने लगे। जो अब तक समाज के भोलेपन और अज्ञान का अनुचित लाभ उठ रहे थे, समाज का शोषण कर रहे थे, ऐसे असामाजिक तत्त्वों को तो यह बात पसन्द ही न आई। कुछ लोग डोरा, धागा, तावीज का धन्धान करने वाले थे तो कुछ शराब, अंडा, माँस, मछली आदि खाने वाले थे तथा कुछ लोग ईश्वर पर विश्वास न करने वाले एवं संतों की विलक्षण कृपा, करूणा व सामाजिक उत्थान के उनके दैवी कार्यों को न समझकर समाज में अपने को मान की जगह पर प्रतिष्ठित करने की इच्छावाले क्षुद्र लोग थे। वे संत गी प्रसिद्धि और तेजस्विता नहीं सह सके। वे लोग विचित्र षडयंत्र बनाने एवं येन केन प्रकारेण लोगों कीक आस्था संत जी पर से हटे ऐसे नुस्खे आजमा कर संत टेऊँरामजी के ऊपर कीचड़ उछालने लगे। उनको सताने में उन दुष्ट हतभागी पामरों ने जरा भी कोरकसर न छोड़ी। उनके आश्रम के पास मरे हुए कुत्ते, बिल्ली और नगरपालिका की गन्दगी फेंकी जाती थी। संतश्री एवं उनके समर्पित व भाग्यवान शिष्ट चुपचाप सहन करते रहे और अन्धकार में टकराते हुए मनुष्यों को प्रकाश देने की आत्मप्रवृत्ति उऩ्होंने न छोड़ी।

संत कंवररामजी उस समय समाज-उत्थान के कार्यों में लगे हुए थे। हतभागी, कृतघ्न, पापपररायण एवं मनुष्यरूप में पशु बने हुए लोगों को उनकी लोक-कल्यामकारक उदात्त सत्प्रवृत्ति पसन्द न आई। फलतः उनकी रुफसु स्टेशन पर हत्या कर दी गई। फिर भी संत कंवररामजी महाराज महान संत के रूप में अभी भी पूजे जा रहे हैं। सिंधी जगत बड़े आदर के साथ आज भी उऩ्हें प्रणाम करता है लेकिन वे दुष्ट, पापी व मानवता के हत्यारे किस नरक में अपने नीच कृत्यों का फल भुगत रहें होंगे तथा कितनी बार गंदी नाली के कीड़े व मेढक बन लोगों का मल-मूत्र व विष्ठा खाकर सड़कों पर कुचले गये होंगे, पता नहीं। इस जगत के पामरजनों की यह कैसी विचित्र रीति है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 21,21 अंक 49

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हृदय रोगों में अत्यन्त प्रभावशाली योग


अर्जुन की ताजा छाल को छाया में सुखाकर चूर्ण बनाकर रख लें। 200 ग्राम दूध में 200 ग्राम ही पानी मिलाकर हल्की आग पर रखें व उपरोक्त तीन ग्राम अर्जुन छाल का चूर्ण मिलाकर उबालें। जब उबलते-उबलते द्रव्य आधा रह जाय तब उतार लें। थोड़ा ठंडा होने पर छानकर रोगी को पिलाने से सम्पूर्ण हृदयरोग नष्ट हो जाते हैं व हार्ट अटैक (दिल का दौरा) से बचाव होता है।

सेवन विधिः रोज एक बार उपरोक्त दवा प्रातः खाली पेट लें, व डेढ़ दो घंटे तक कुछ न लें। एक मास नित्य प्रातः लेते रहने से दिल का दौरा पड़ने की सम्भावना नहीं रहती है।

पथ्यापथ्यः हृदयरोगों में अँगूर व नीँबू का रस, गाय का दूध, जौ का पानी, कच्चा प्याज, आँवला, सेव आदि का सेवन हितकारी है। गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से बचें। धूम्रपान न करें। मोटापा, मधुमेह व उच्चरक्तचाप आदि को नियंत्रित रखने का प्रयास करें। हृदय की अधिक धड़कने व नाड़ी की गति बहुत कमजोर हो जाने पर अर्जुन की छाल जीभ पर रखने मात्र से तुरन्त शक्ति प्रतीत होने लगती है।

अपानवायु मुद्रा

अँगूठे के पास वाली पहली अँगुली को अँगूठे की जड़ में लगाकर अंगूठे के अग्रभाग को बीच की दोनों अंगुलियों के अगले सिरे से लगा दें। सबसे छोटी अँगुली (कनिष्ठिका) को अलग रखें। इस स्थिति का नाम अपानवायु मुद्रा है। यदि किसी को हार्ट अटैक या हृदयरोग एकाएक आरम्भ हो जाय तो इस मुद्रा को अविलम्ब करने से हार्ट अटैक को तत्काल रोका जा सकता है।

हृदयरोगों में जैसे की हृदय की घबराहट, हृदय की तेज या मन्द गति, हृदय का धीरे-धीरे बैठ जाना आदि में कुछ ही क्षणों में लाभ होता है।

पेट की गैस, हृदय तथा पेट की बेचैनी और सारे शरीर की बेचैनी इस मुद्रा के अभ्यास से दूर हो जाती है। आवश्यकतानुसार प्रतिदिन 20 से 30 मिनट इसका अभ्यास किया जा सकता है।

रोग एवं निदान

पेट में कीड़ेः तीन साल से पाँच साल के बच्चों को आधा ग्राम अजवायन का चूर्ण व समभाग गुड़ में गोली बनाकर दिन में तीन बार खिलाने से सभी प्रकार के पेट कीड़े नष्ट होते हैं।

सुबह उठते ही कुल्ला आदि करके बच्चे दस ग्राम व बड़े 25 ग्राम गुड़ खाकर दस-पन्द्रह मिनट के बाद बच्चे आधा ग्राम व बड़े एक से दो ग्राम अजवायन का चूर्ण बासी पानी के साथ खायें। इससे आँतों में मौजूद सभी प्रकार के कृमि नष्ट होकर मल के साथ शीघ्र ही बाहर निकल जाते हैं।

अजवायन एक कृमिनाशक उत्तम औषधि है। इससे पेट के कीड़े दूर होकर बच्चों का सोते समय दाँत किटकिटाना बन्द हो जाता है। तीन दिन से एक सप्ताह तक आवश्यकतानुसार सेवन करें।

जिन व्यक्तियों को रात में बहूमूत्र की शिकायत हो उऩ्हें भी इससे लाभ होता है। कृमिजन्य सभी विकार दूर होने के साथ-साथ अजीर्ण आदि रोग भी दूर हो जाते हैं।

नजला-जुकामः रात के समय नित्य सरसों का तेल या गाय के घी को गुनगुना गर्म करके नाक द्वारा एक-दो बूँद लेने से नजला जुकाम नहीं होता है। मस्तिष्क स्वस्थ व सबल रहता है। नाक के रोग नहीं होते। चार-पाँच तुलसी के पत्ते व दो तीन काली मिर्च नित्य प्रातः खाने से जुकाम व बुखार नहीं होता है।

होठों का फटनाः नाभि में नित्य प्रातः सरसों का तेल लगाने से होंठ नहीं फटते अपितु फटे हुए होंठ मुलायम व सुन्दर हो जाते हैं। साथ ही नेत्रों की खुजली व खुश्की दूर हो जाती है।

दाँतों की मजबूती के लिएः मूत्रत्याग के समय ऊपर नीचे के दाँतों को एक दूसरे से दबाकर बैठें तो दाँतों की मजबूती बढ़ती है, दाँत जल्दी नहीं गिरते, लकवा (पक्षाघात) होने का डर भी नहीं रहता व दाँतों की सभी बीमारियों से बचाव होता है। नित्य प्रातः नीम की दातून करने से दाँत मजबूत रहते हैं। मुखरोगों से बचाव होता है।

मुख में कुछ देर सरसों का तेल रखकर कुल्हा करने से जबड़ा बलिष्ठ होता है। आवाज ऊँची व गम्भीर हो जाती है। चेहरा पुष्ट होता है। इस प्रयोग से होंठ नहीं फटते, कंठ नहीं सूखता एवं दाँतों की जड़ें मजबूत होती हैं।

विशेषः ऋतु अनुकूल तथा पाचनशक्ति के अनुसार ही खाना चाहिए। संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए खान-पान में संयम निरोग रहने की चाबी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 49

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