आज का युग जेट युग है

आज का युग जेट युग है


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

आज के युग को जेट युग कहते हैं। आज कल जो कुछ होता है सब ʹफास्टʹ (तीव्र गति से) होता है। पहले के जमाने में माताओं-बहनों को रोटी बनानी होती थी तो चूल्हें में गोबर के कण्डे डालतीं, लकड़ियाँ रखतीं, फिर फूँक-फूँककर चूल्हे जलातीं। फूँक-फूँककर थक जातीं, धुएँ के कारण आँखों में आँसू आ जाते, तब कहीं चूल्हा जलता फिर रोटी पकातीं। बड़ी मुश्किल से वे रसोईघर का काम निपटा पाती थीं और आज… उठाया लाइटर, गैस का बटन घुमाया और गैस चालू… 15-20 मिनट में भोजन तैयार।

संदेश भेजने के लिए भी पहले कबूतरों से काम लिया जाता था। कबूतर पालो, उसे काम सिखाओ, फिर जब कभी जरूरत पड़े तो उसके गले में चिट्ठी डालो। वह उड़ता-उड़ता जाये, कब पहुँचे, कब संदेश वापस लाये… कोई पता नहीं। इस प्रकार कई दिन लग जाते थे। या तो कोई विश्वासपात्र व्यक्ति चिट्ठी लेकर घोड़े से जाता और जवाब लेकर वापस आता। उसमें से भी कई दिन निकल जाते थे। अब तो उठाओ फोन, दबाओ बटनः ʹहेलो ! मैं अमुक जगह से बोल रहा हूँ। मुझे अमुक बात करनी है… इतना काम हुआ है, इतना करना है….।ʹ बस, हो गयी बात। संदेश भी पहुँचा, उत्तर भी मिला और योजना भी बन गई।

इसी प्रकार पहले के जमाने में लोगों को कहीं जाना होता था तो ज्यादातर लोग पैदल चलकर जाते थे। कुछ लोग बैलगाड़ी या घोड़े का उपयोग करते थे, फिर भी उसमें आने जाने में काफी समय लगता था। आज कल स्कूटर, टैक्सी, बस, रेल की सुविधा तो है ही, परन्तु जो और जल्दी से कहीं पहुँचना चाहता है वह हवाई जहाज का उपयोग भी कर लेता है। उनमें भी जेट विमान की यात्रा ज्यादा ʹफास्टʹ होती है। इसलिए आज के युग को ʹजेट युगʹ कहते हैं।

आज के इस फास्ट युग में जैसे हम भोजन पकाने, कपड़े धोने, यात्रा करने, संदेश भेजने आदि व्यावहारिक कार्यों में फास्ट हो गये हैं, वैसे ही क्यों न हम प्रभु का आनंद, प्रभु का ज्ञान पाने में भी फास्ट हो जायें ?

पहले का जीवन शांतिप्रद जीवन था, इसलिए सब काम शांति से, आराम से होते थे एवं उनमें समय भी बहुत लगता था। लोग भी दीर्घायु होते थे। लेकिन आज हमारी जिंदगी इतनी लंबी नहीं है कि सब काम शांति और आराम से करते रहें। सतयुग, त्रेता, द्वापर में लोग हजारों वर्षों तक जप-तप-ध्यान आदि करते थे, तब प्रभु को पाते थे। किन्तु आज के मनुष्य की न ही उतनी आयु है, न ही उतनी सात्त्विकता, पवित्रता और क्षमता है कि वर्षों तक माला घुमाता रहे और तप करता रहे। अतः आज की इस ʹफास्ट लाइफʹ में प्रभु की मुलाकात करने में भी फास्ट साधनों की आदत डाल देनी चाहिए। उस प्यारे  प्रभु से हमारा तादात्म्य भी ऐसा फास्ट हो कि,

दिले तस्वीरे है यार ! जबकि गर्दन झुका ली और मुलाकात कर ली….

बस, आप यह कला सीख लो। आप पूजा कक्ष में बैठें, तभी आपको भक्ति, ज्ञान या प्रेम का रस आये ऐसी बात नहीं है। वरन् आप घर में हों या दुकान में, नौकरी कर रहे हों या फुर्सत में, यात्रा में हो या घर के किसी काम में….. हर समय आपका ज्ञान, आनंद एवं माधुर्य बरकरार रह सकता है। युद्ध के मैदान में अर्जुन निर्लेप नारायण तत्त्व का अनुभव कर सकता है तो आप भी चालू व्यवहार में उस परमात्मा का आनंद-माधुर्य क्यों नहीं पा सकते ? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

तन सुकाय पिंजर कियो, धरे रैन दिन ध्यान।

तुलसी मिटे न वासना, बिना विचारे ज्ञान।।

शरीर को सुखाकर पिंजर कर देने की भी आवश्यकता नहीं है। व्यवहार काल में जरा-सी सावधानी बरतो और कल्याण की कुछ बातें आत्मसात् करते जाओ तो प्रभु का आनंद पाने में कोई देर नहीं लगेगी।

तीन बातों से जल्दी कल्याण होता हैः

पहली बातः सच्चे हृदय से हरि का स्मरण।

तुलसीदास जी ने कहा हैः

भाँय कुभाँय अनख आलसहूँ।

नाम लेत मंगल दिसि दसहूँ।।

भाव से, कुभाव, क्रोध से, आलस्य से भी यदि हरि का नाम लिया जाता है तो दसों दिशाओं में मंगल होता है। अतः सच्चे हृदय से हरि का स्मरण करने से कितना कल्याण होगा।

जपात सिद्धिः जपात सिद्धिः जपात सिद्धिर्न संशयः।

जब करते रहो…. हरि का स्मरण करते रहो…. इससे आपको सिद्धि मिलेगी। आपका मन सात्त्विक होगा, पवित्र होगा और भगवदरस प्रगट होने लगेगा।

दूसरी बातः प्राणीमात्र का मंगल चाहो। यहाँ हम जो देते हैं, वहीं हमें पाताल मिलता है और कई गुना होकर मिलता है। यदि आप दूसरों को सुख पहुँचाने का भाव रखेंगे तो आपको भी अऩायास ही सुख मिलेगा। अतः प्राणीमात्र को सुख पहुँचाने का भाव रखो।

तीसरी बातः अपने दोष निकालने के लिए तत्पर रहो। जो अपने दोष देख सकता है, वह कभी-न-कभी दोषों को दूर करने के लिए भी प्रयत्नशील होगा ही। ऐसे मनुष्य की उन्नति निश्चित है। जो अपने दोष नहीं देख सकता वह तो मूर्ख है लेकिन जो दूसरों के द्वारा सिखाने पर भी अपने दोषों को कबूल नहीं करता है वह महामूर्ख है और जो परम हितैषी सदगुरु के कहने पर भी अपने में दोष नहीं मानता है वह तो मूर्खों का शिरोमणि है। जो अपने दोष निकालने के लिए तत्पर रहता है वह इसी जन्म में निर्दोष नारायण का प्रसाद पाने में सक्षम हो जाता है।

जो इऩ तीन बातों का आदर करेगा और सत्संग एवं स्वाध्याय में रुचि रखेगा, वह कल्याण के मार्ग पर शीघ्रता से बढ़ेगा।

भगवान श्रीराम भी विद्यार्थी काल में जब धनुर्विद्या आदि सीखते थे तब विद्याध्ययन से समय निकालकर वशिष्ठजी महाराज के चरणों में ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनते थे और चौदह वर्ष का वनवास मिला, तब भी भरद्वाज आदि संत-महात्माओं के सत्संग में बैठकर ब्रह्मविद्या का पान करते थे। भगवान श्रीकृष्ण भी सांदीपनि ऋषि के चरणों में बैठकर सत्संगामृत का पान करते थे। कबीरजी ने भी उस ब्रह्म-परमात्मा के रस का आस्वादन किया और उऩके चरणों में काशीनरेश कृतार्थ हुआ। नानकजी ने भी जीवन भर ब्रह्मविद्या का पान किया और अपने प्यारों को कराया। अब आप भी इस कलियुग में ब्रह्मरस का पान करके पावन होते जाओ।

जानिऊ तबहिं जीव जग जागा।

जब सम बिषय बिलास विरागा।।

ʹजगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए जब संपूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाये। जैसे, शरीर रोज गंदा हो जाता है तो पानी से स्नान करके उसे स्वच्छ कर लेते हैं, वैसे ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार आदि से मन मैला हो जाता है तो उसे सत्संग की वर्षा में स्नान कराके पवित्र कर लो। ज्यो-ज्यों पवित्रता बढ़ती जायेगी, त्यों-त्यों भीतर का आत्म-परमात्मरस छलकता जायेगा। जीवन हलका फूल जैसा हो जायेगा। चिंतारहित, अहंकाररहित, तनावरहित जीवन हो जायेगा। जिस वक्त जो काम करना हो, कर लिया आनंद से, उत्साह से। नींद आई तो सो गये और जाग गये तब भी वाह वाह…..। गोता मारकर अमृत पी लिया… देर किस बात की भैया ! यह ʹजेट युगʹ है। प्रभु का आनंद पाने का यह ʹजल्द युगʹ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 83

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