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तीव्र विवेक


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

विवेक किसको बोलते हैं ?

दो चीजें मिल गयी हों, मिश्रित हो गयी हों उनको अलग करने की कला का नाम है विवेक। परमात्मा चेतन है, जगत जड़ है और दोनों के मिश्रण से सृष्टि चलती है। सृष्टि में सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छा-बुरा, जीवन-मरण ये सब मिश्रित हो गया है। उसमें से सार-असार को, नित्य-अनित्य को, जड़ और चेतन को पृथक समझने की कला है विवेक।

जगत में जितने भी दुःख हैं, क्लेश हैं, अनर्थ हैं सबके मूल में है विवेक की कमी। विवेक की कमी के कारण ही हम जो हैं उसका हमको पता नहीं है और जो हम नहीं हैं उसको (देह को) हम ‘मैं’ मान बैठे हैं।

सत् क्या है – असत् क्या है ? शाश्वत क्या है – नश्वर क्या है ? नित्य क्या है – अनित्य क्या है ? इसका अगर विवेक हो जाये तो नश्वर का नश्वर समझने से दुःख नहीं होगा और शाश्वत को शाश्वत मानने से उसे पाये बिना मन नहीं मानेगा।

जैसे, मिट्टी का घड़ा। कच्चे घड़े में यदि पानी डालो तो वह पानी में पिघल जाता है लेकिन उस घड़े को आग में बराबर पकाओ तो वह पक्का घड़ा पानी की गर्मी आदि दोषों को हर लेता है और पानी को भी अमृतसम शीतल बना देता है। ऐसे ही सत्संग के द्वारा विवेक को जागृत किया जाता है। फिर ध्यानादि करके विवेक को परिपक्व किया जाता है। विवेक परिपक्व होने से संसार का व्यवहार भी शीतल हो जाता है, दोषों को हरने वाला हो जाता है और दूसरों को भी सुख से, शीतलता से भरने वाला हो जाता है।

कच्चा घड़ा पानी को नहीं थाम सकता। घड़ा अग्नि में परिपक्व होता है तभी वह पानी को थाम सकता है। ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा के आनंद को, रस को, माधुर्य को वही थाम सकता है जिसका चित्त योगाग्नि में परिपक्व हुआ है।

सुना तो हैः ‘परमात्मा अपना आत्मा है… संसार स्वप्न है… सब मरते हैं… दुःखी होने की कोई जरूरत नहीं है…’ फिर भी दुःखी हो रहे हैं, चिंता कर रहे हैं। क्यों ? क्योंकि चित्तरूपी घड़ा अभी ध्यानगोरूपी अग्नि में परिपक्व नहीं हुआ है। जब यह परिपक्व होगा तभी संसार का जल उसमें शीतल होगा अर्थात् दुःख नहीं देगा।

आप दुनिया में दो रोटी कमाकर, दो बच्चे-बच्ची पैदा करके, उनको पाल-पोसकर मर मिटने के लिए नहीं आये हो अपितु सत्य-असत्य का विवेक करके, मिथ्या और शाश्वत का विवेक करके, नित्य-अनित्य का विवेक करके मुक्ति पाने के लिए आये हो।

‘मैं कौन हूँ ? शरीर मेरा है तो मैं शरीर नहीं हूँ। मन मेरा है तो मन मैं नहीं हूँ। बुद्धि मेरी है तो मैं बुद्धि नहीं हूँ… आखिर मैं कौन हूँ ?’ इसका विवेक करके अपने-आपको पाकर उसमें विश्रांति पाने के लिये आये हो।

विवेक से अपने स्वरूप का बोध मिल जाय और आप उसमें टिक जायें तो  परिपक्व स्थिति आ जायेगी। परिपक्व स्थिति आने से आपका संसाररूपी सर्प मारने योग्य अथवा जहर फूँकने योग्य नहीं होगा लेकिन संसाररूपी सर्प का व्यवहार भी आदर्श हो जायेगा, सुखदायी हो जायेगा। अपने लिए और दूसरों के लिए प्रेम देने  वाला हो जायेगा, माधुर्य निखारने  वाला हो जायेगा।

विवेक तीर्व होगा तो तुच्छ चीजों में राग करके फँसने का अवसर नहीं आयेगा वरन् वैराग्य आयेगा कि ‘इतना भोगा….. आखिर कब तक ? ऐसे बन गये…. फिर क्या?’

हम दिन रात विवेक को ढाँककर ही काम कर रहे हैं। इसलिए कर –करके मर जाते हैं फिर भी कर्तव्य का अंत नहीं होता है। पा-पाकर मर जाते हैं फिर भी पाने की वासना का अंत  नहीं होता है, जान-जानकर थक जाते हैं फिर भी जानकारी का अंत नहीं होता।

राजगृह में धन्यकुमार सुभद्रा आदि रानियों के साथ बात कर रहे थे। रानी सुभद्रा ने कहाः “मेरा भाई अब संन्यासी हो जायेगा। आचार्य धर्मघोष का प्रवचन सुनता है और प्रतिदिन एक-एक रानी से मिलता है और बोलता है कि अब मैं सदा के लिए साधु हो जाऊँगा। ऐसा करके वह 15 रानियों का त्याग कर चुका है। कुल 32 रानियाँ हैं। उसके बाद मेरा भाई संन्यासी हो जायेगा।”

धन्यकुमारः “तेरा भाई क्या साधु होगा, खाक ?”

सुभद्रा बोलीः “वह ऐसे ही थोड़ी रानियों को छोड़ रहा है ?”

धन्यकुमारः “ऐसे थोड़े ही साधु बनते हैं !”

सुभद्राः “तो कैसे बनते हैं ?”

धन्यकुमारः “ऐसे बनते हैं, देख। यह मैं साधु बना और चला। तुम्हारा भाई तो एक-एक रानी को छोड़ रहा है, अभी 17 बाकी हैं। मैं तो एक साथ मेरी आठों रानियों को छोड़ रहा हूँ।”

यह कहकर धन्यकुमार निकल पड़ा।

यदि दूरदर्शिता नहीं है, तीव्र विवेक नहीं है तो साधु होना मुश्किल है। जब तीव्र विवेक आता है तो एक झटके में ही सब छूट जाता है।

कई लोग बोलते हैं कि ‘धीरे-धीरे छोड़ूँगा… देखूँगा…. प्रयत्न करूँगा….’ तो उनके लिए छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जो एक ही झटके में छोड़ देते हैं वे ही छोड़ पाते हैं। ‘धीरे-धीरे भजन करेंगे… संसार में रहकर भजन करेंगे…’ तो करते रहो भजन और संसार भी भोगते रहो। फिर हो गया भजन !

विवेक होता है तो तीर लग जाता है, बात चुभ जाती है और मनुष्य लग पड़ता है।

विवेक तीव्र होने पर तो दो शब्द सुनकर भई व्यक्ति लग जाता हैः ‘कुछ भी हो जाय, ईश्वर को पाना ही है… समय नहीं गँवाना है।’

आवारा मन होता है वही फालतू बातें करता है, फालतू तर्क देता है, फालतू सुख-सुविधाएँ खोजता रहता है। जिनको लगन लगी है वे तो बस, ईश्वर की ही बातें सुनेंगे, ईश्वर का ही ध्यान करेंगे, ईश्वर के लिए ही सत्शास्त्र पढ़ेंगे अथवा ईश्वर के लिए ही सेवाकार्य करेंगे। विवेक नहीं है तो सुविधाएँ होते हुए भी व्यक्ति का मन भजन में नहीं लगता। जिनको तीव्र पुण्यमय विवेक होता है वे सुविधा हो तब भी और सुविधा न हो तब भी अपना काम बना लेते हैं। बस, विवेक होना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 109

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तब लग दोनों एक हैं….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा हैः

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान।

तब लग दोनों एक हैं क्या मूरख अरु विद्वान।।

कोई अनपढ़, गँवार और मूर्ख हो एवं अध्यात्मविद्या से अनजान हो अथवा कोई अध्यात्म विद्या का बड़ा जानकार हो, बड़ा पंडित, उपदेशक अथवा कथाकार हो लेकिन उसके अंदर अगर काम, क्रोध, लोभ और मोह हो तो दोनों समान ही हैं क्योंकि गँवार भी अपनी उम्र बेचकर जी रहा है और पंडित भी संसार के दलदल में फँसकर अपनी आयु गँवा रहा है।

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान… अगर हृदय में इन चीजों को जगह दी तो फिर शाश्वत शांति नहीं मिलती, शाश्वत सुख नहीं मिलता, शाश्वत को पाने की सूझबूझ नहीं मिलती और शाश्वत शांति नहीं मिली तो फिर अशांतस्य कुतः सुखम् ? अर्थात् अशांत को सुख कहाँ ?

काम क्रोधादि दोषों के कारण ही व्यक्ति राग-द्वेष, वैर विरोध, कलह-विवाद आदि में पड़ता है और अशांत हो जाता है। इसलिए अपने हृदय में द्वेष रखने की अपेक्षा द्वेष निकालने का उपाय खोजना चाहिए। मारपीट अथवा लड़ाई झगड़ा करने की जगह तटस्थ होकर विचारें तो लगेगा कि 90 प्रतिशत बेवकूफी हमारी ही है और 10 प्रतिशत जिससे हम द्वेष करते हैं उसकी है या उसे भिड़ाने वाले की है। जैसे हम दूसरों के दोष देखने में सतर्क रहते हैं वैसे ही हम अपने दोष देखने में सतर्क हो जायें और जैसे अपने गुण देखने में सतर्क होते हैं, वैसे ही सामने वाले के गुण देखें तो राग-द्वेष से बच जायें।

राग-द्वेष, छल-कपट इत्यादि हमारी क्षमताओं को हर लेते हैं। जैसे पूनम, एकादशी आदि पर्वों का संसार-भोग स्वास्थ्य और प्रसन्नता को हर लेता है और एकादशी, पूनम का  व्रत, ध्यान-भजन, संयम हमारे पापों को हर लेता है वैसे ही भगवद् चिंतन, भगवद् ध्यान, औदार्यचिंतन और ऊँचा उद्देश्य हमारे राग-द्वेष को, हमारी अशांति को, हमारे कष्टों को हर लेता है।

जैसे, सूर्य के उदित होने से वसुंधरा का तिमिर भाग जाता है, वैसे ही ईश्वरप्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य हमारे जीवन में से काम-क्रोधादि शत्रुओं को भगा देता है।

चाहे घर में रहो या पड़ोस में, चाहे ऑफिस में रहो या व्यापार में लेकिन तुम्हारे हृदय में अगर द्वेष बना रहा तो फिर विद्वान होने पर भी तुम्हारे बुरे हाल होते रहेंगे। भाई-भाई का द्वेष, अधिकारी-अधिकारी का द्वेष, देवरानी-जेठानी का द्वेष, पड़ोसी-पड़ोसी का द्वेष, व्यापारी-व्यापारी का द्वेष….. उनको परेशान करता रहेगा।

दो व्यापारी थे। दोनों में बड़ी मित्रता थी। दोनों की दुकानें आमने-सामने थीं फिर भी दोनों में बड़ा स्नेह था। एक के मुनीम ने देखा कि सामने वाले का धंधा बहुत चलता है। ‘वह हमारे ग्राहक खींच लेता है। हमने थोड़ा कमा लिया तो कया हो गया ?’ ऐसा कहकर मुनीम ने अपने सेठ को भड़काया।

इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा करते-करते दोनों के बीच जो स्नेह की सरिता थी वह सूख गयी और परस्पर द्वेष की आग भड़कने लगी, दोनों बड़े दुःखी हो गये और मित्र में से शत्रु बन गये।

उस नगर में एक महात्मा आये। दोनों व्यापारियों ने महात्मा का सत्संग सुनाः “द्वेष बड़ा हानिकारक है। जिसके प्रति द्वेष है उसको तो बाद में नुकसान है लेकिन जिस हृदय में द्वेष होता है उसकी सुख-सरिता को वह पहले जला देता है। द्वेष रखना समझो, अपनी तबाही करना है। द्वेष और कपट अपनी बरबादी के, अपने पतन के मुख्य साधन हैं। जिसके मन में द्वेष और छल-कपट नहीं और जो सबसे सरलता का व्यवहार करता है वह भवसागर से पार हो जाता है।

कपट गाँठ मन में नहीं सबसों सरल सुभाव।

नारायण ता दास की लगे किनारे नाव।।

मन में कपट न रखें, द्वेष न रखें। हम लोग भजन तो करते हैं, मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे में भी जाते हैं लेकिन हृदय मंदिर को साफ-सुथरा रखने पर ध्यान नहीं देते इसलिए बाहर के मंदिर में भी घूमते रह जाते हैं, हृदय मंदिर की परमात्म गहराई में नहीं पहुँच पाते हैं।

याद रखना तुम्हारा जन्म संसार के विषयों में पच मरने के लिए नहीं हुआ है। तुम बाहर के मंदिर में भले जाओ, साधना कक्ष में भले जाओ लेकिन हृदय मंदिर में पहुँचने का यत्न भी अवश्य करना ।

बाहर के मंदिर में जाने का फल है कि हृदय मंदिर में पहुँचाने वाले संत मिल जायें, सत्संग मंदिर में पहुँच जायें और सत्संग सुनते-सुनते सत्यस्वरूप ईश्वर की शांति पा लें, ईश्वर का माधुर्य पा लें, ईश्वरीय आनंद पा लें।

ईश्वर सर्वत्र है, सदा है सबमें है। आप जिससे द्वेष करते हो उसकी गहराई में बैठे हुए परमात्मा के प्रति भी आप थोड़ी नफरत की ही धारणा बना लेते हो। किसी से आपके कोई विचार नहीं मिलते नहीं मिलते हैं लेकिन जो विचार मिलते हैं इस कारण तो उनसे स्नेह करें।

कोई विचार नहीं मिलता…. लेकिन एक सिद्धान्त तो मिलता है कि सबकी आँखों को देखने की सत्ता परमेश्वर की है, सबके कानों में सुनने की सत्ता परमेश्वर की है, सबकी जिह्वा में चखने की सत्ता परमेश्वर की है, सबके दिलों में धड़कन परमेश्वर की है। ‘मेरे प्रभु की सत्ता के बिना क्या मेरा दुश्मन देख सकता है ? मेरे प्रभु की सत्ता के बना क्या मेरे शत्रु के दिल की धड़कनें चल सकती हैं ? चाहे वह कितना भी द्वेष करे… द्वेष उसकी मति में है, मेरी मति में है लेकिन दोनों की गहराई में तो तू ही है प्रभु !’ ऐसा करके अपने हृदय को शीतल बनायें तो द्वेषी का द्वेष देर-सवेर प्रेम में बदल जायेगा। यह दर्शनशास्त्र की बात है, ब्रह्मज्ञान की ऊँची बात है।

पाश्चात्य जगत के महान दार्शनिक सुकरात ने अपने सत्संग में कुछ कह दिया होगा। एक व्यक्ति ने उसे अपने लिए कहा गया मान लिया और कसम खा लीः ‘जब तक सुकरात की हत्या न करूँगा तब तक चैन की नींद न लूँगा।’

किसी ने सुकरात को बता दिया कि फलाने व्यक्ति ने आपकी हत्या करने की कसम खा ली है।

सुकरात ने कहाः “हम भी कसम खाते हैं।”

“आप कसम खायेंगे ?”

“हाँ, मैं भी कसम खाता हूँ कि जब तक उसे अपना मित्र न बना लूँगा तब तक चैन से न जीऊँगा।”

लोगों को हुआ कि देखते हैं कि अब द्वेषी का द्वेष जीतता है कि सुकरात की समता और प्रेम जीतता है ?

सुकरात के हृदय में तो किसी के लिए नफरत नहीं थी, वे तो किसी को भी पराया नहीं मानते थे, किसी का भी अमंगल नहीं चाहते थे। उनके पास समता थी, हृदय सबके कल्याण की भावना से परिपूर्ण था, उनके हृदय में प्रेम था।

जिसके हृदय में प्राणिमात्र के लिए प्रेम है उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। वह व्यक्ति अपने विचार से ही त्रस्त हो उठा एवं उसकी अंतरात्मा लानत बरसाने लगी कि इतने महान पुरुष के लिए इतना बुरा विचार किया ? आखिर उससे रहा न गया। वह जाकर सुकरात के चरणों में गिर पड़ा और बोलाः “मैंने आपके लिए इतना बुरा सोचा, मैं अशांत हो गया हूँ। कृप्या, आप मुझे माफ कर दें।”

सुकरातः “मित्र ! आप मुझे माफ करें।”

“आप यह क्या कह रहे हैं ?” यह कहते-कहते तो वह पानी-पानी हो गया।

राग-द्वेष रहित चित्त बनाना बड़ा बहादुरी का काम है। परमात्मा प्राप्ति का कार्य उसके लिए बड़ा सहज हो जाता है।

क्यों किसी से द्वेष करना ? द्वेष करना ही है तो अपने दुर्गुणों से द्वेष करें, काम-क्रोधादि से द्वेष करें। किसी के दोष देखकर उससे द्वेष करने की जगह अपने दोषों से द्वेष करें। लेकिन मैं इस बात पर भी इतना राजी नहीं हूँ…. अपने दोषों से द्वेष करेगा तब भी चिंतन तो करेगा कि ‘मुझमें यह दोष है।’ अतः, न दूसरों के दोषों का चिंतन करो न ही अपने दोषों का चिंतन करो वरन् अपनी और दूसरों की गहराई में जो रहता है उस परमेश्वर का ही चिंतन करो। यदि केवल उस परमेश्वर का ही चिंतन करोगे तो अन्य चिंतन स्वाभाविक ही छूट जायेंगे। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा हैः

काम क्रोध अरू लोभ मोह की जब लग मन में खान।

तब लग दोनों एक हैं क्या मूरख अरू विद्वान।।

अतः इन विकारों से बचने का प्रयत्न करें।

स्वभावः विजयः शौर्यं।

श्रीकृष्ण भागवत में कहते हैं- “अपने स्वभाव पर विजय पाना ही शौर्य है, वीरता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 109

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उद्देश्य ऊँचा बनायें


(उच्च कोटि के साधकों के लिए)

संत श्री आशाराम जी के सत्संग प्रवचन से

धन जोबन का करे गुमान वह मूरख मंद अज्ञान।

धन, यौवन, पद, विद्या, चतुराई, प्रमाणपत्र का जो गुमान करता है वह मूर्ख है, अज्ञानी है। जब तक तू ब्रह्मवेत्ता की तराजू में सही नहीं उतरता तब तक जीवात्मा है और जीवात्मा तो जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि का खिलौना है। जब तक ब्रह्मवेत्ताओं के गढ़ में ईमानदारी, समर्पण भाव या सच्चाई से नहीं पहुँचा तब तक तू जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि का खिलौना है।

वशिष्ठ जी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! ज्ञानवान की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए। उनका बड़ा उपकार है। वे संसार-सागर से तारते हैं। आत्मज्ञानी के वचनों का आदर करना चाहिए। आत्मज्ञानी के वचनों का अनादर करना मुक्तिफल का त्याग करना है। आत्मज्ञानी में एक भी गुण हो तो ले लेना चाहिए किंतु उनमें दोष नहीं देखना चाहिए।”

आत्मज्ञानी का अपना प्रारब्ध होता है मिलने-जुलने, लेने-देने, खाने पीने इत्यादि का…. कुछ लोग गुरु के आगे तो कुछ बात करते हैं और अंदर में होता है कुछ दूसरा…. तो ऐसे लोगों पर गुरुकृपा नहीं छलकती। उनका मन भी मलीन हो जाता है।

अतः साधक को चाहिए की ईमानदारी से अपना कर्तव्य  करे। ईमानदारी से सेवा करे। ईमानदारी और सच्चाई उसमें सत्य की जिज्ञासा पैदा कर देगी।

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।

जो ज्यादा चतुराई करते हैं, आलस करते हैं, कामचोर बनते हैं उनको भगवान के रास्ते जाने की रूचि नहीं होगी।

साधक होने का मतलब है अपनी इच्छाएँ,  वासनाएँ, आलस्य-प्रमाद और दुष्चरित्र का त्याग करके भगवान के लिए अपने अहं को मिटाकर भगवत्प्रीति बढ़ाने हेतु, एक ऊँचा उद्देश्य पाने के लिए पूरे प्रयत्न से लग जाना।

अगर उद्देश्य ऊँचा बनाया है तो उसमें विकल्प के लिए कोई स्थान नहीं है। हजारों जन्मों का काम एक ही जन्म में करना है, हजारों जन्मों के संस्कार इसी जन्म में मिटाने हैं, हजारों जन्मों की दुष्ट वासनाएँ इसी जन्म में नष्ट करनी है।

साधक को चाहिए कि तत्परता और ईमानदारी से सेवा करे। अगर वह ईमानदारी और सच्चाई से सेवा करेगा तो उसकी सेवा भी साधना बन जायेगी। जो तत्परता से सेवा करता है उसे किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए-यह अपने आप ही आ जाता है। जैसे, अपनी दुकान अथवा घर का काम तत्परता से करते हैं उससे भी ज्यादा सेवा के स्थल पर तत्परता आ जाये तो समझो, ईमानदारी की सेवा है।

नौकरी कामधंधे से समय बचाकर सेवा मिल गयी तो सेवा करें, नहीं तो जप ध्यान करें। अपना समय व्यर्थ न गँवायें।

भगवान सत्यस्वरप हैं। जो सच्चाई से जीता है, सच्चाई से सेवा करता है और सच्चाई से ध्यान-भजन करता है, वही ईश्वर के मार्ग पर दृढ़ता से चल पाता है।

लोग अपने कपड़े बदल देते हैं, मकान बदल देते हैं, अपना व्यवसाय बदल देते हैं लेकिन अपना स्वभाव नहीं बदलते। स्वभाव ही मनुष्य को स्वर्ग में ले जाता है, उसमें देवत्व ला देता है, स्वभाव ही मनुष्यों को नरकों में ले जाता है, स्वभाव ही मनुष्य को कामी-क्रोधी-लोभी-मोही बना देता है, स्वभाव ही मनुष्य को दूसरे की निन्दा करने वाला बना देता है और अगर स्वभाव दिव्य हो जाये तो ब्रह्मज्ञान भी प्राप्त हो जाता है।

शरीर तो जैसे का तैसा ही होता है, शरीर को क्या बदलेंगे और आत्मा तो अबदल है, अतः स्वभाव को ही बदलना है। उद्धव ने कृष्ण से पूछाः “सबसे बड़ी बहादुरी, शौर्य क्या है ?”

श्रीकृष्ण ने कहाः “बाह्य शत्रुओं पर विजय, दुनिया की सारी सत्ता पर विजय यह बड़ा शौर्य नहीं है अपने स्वभाव पर विजय पाना ही सबसे बड़ी बहादुरी, शौर्य है। स्वभावो विजयं शौर्यं।” श्रीमद भागवत

अपने अंतःकरण को बदलना चाहिए। अंतःकरण में अगर भगवद् ज्ञान, भगवन्नामजप और भगवद् ध्यान होगा तो अंतःकरण पवित्र होगा और पवित्र अंतःकरण में ही भगवद् प्राप्ति की प्यास जग सकेगी। भगवद् प्राप्ति से मनुष्य सारे पाशों से, सारे बंधनों से सदा के लिए छूट जायेगा।

अतः अपना उद्देश्य् भगवत्प्राप्ति का बनायें। अपना उद्देश्य ऊँचा बनायें और उसकी प्राप्ति में ईमानदारी से लगें। सावधान और सतर्क रहें कि कहीं समय व्यर्थ तो नहीं जा रहा ? अपने परमात्मप्राप्ति के लक्ष्य को सदैव याद रखें और लक्ष्य की तरफ जाने वालों का संग करें। अपने से ऊँचों का संग करें। इससे उद्देश्य को पाने में सहायता मिलेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 109

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