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कबीरा निंदक न मिलो….


अज्ञान-अंधकार मिटाने के लिए जो अपने-आपको खर्च करते हुए प्रकाश देता है, संसार की आँधियाँ उस प्रकाश को बुझाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। टीका, टिप्पणी, निंदा, गलत चर्चाएँ और अन्यायी व्यवहार की आँधी चारों ओर से उस पर टूट पड़ते हैं। स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता आदि को भी ऐसे निंदकों का सामना करना पड़ा था। महात्मा गाँधी जी की सेवा में कुछ महिलाएँ थीं तो गाँधी जी को भी निंदकों ने अपना शिकार बनाया था।

असामाजिक तत्त्व अपने विभिन्न षड्यन्त्रों द्वारा संतों और महापुरुषों के भक्तों व सेवकों को भी गुमराह करने की कुचेष्टा करते हैं। समझदार साधक यह भक्त तो उनके षड्यंत्र-जाल में नहीं फँसते। महापुरुषों के दिव्य जीवन के प्रतिपल से परिचित उनके अनुयायी कभी भटकते नहीं, पथ से विचलित नहीं होते अपितु सश्रद्ध होकर उनके दैवी कार्यों में अत्यधिक सक्रीय व गतिशील होकर सहभागी हो  जाते हैं। परंतु जिन्होंने साधना के पथ पर अभी-अभी कदम रखे है, ऐसे नवपथिकों को गुमराह कर पथच्युत करने में दुष्टजन आंशिक रूप से अवश्य सफलता प्राप्त कर लेते हैं और इसके साथ ही आरम्भ हो जाता है – नैतिक पतन का दौर, जो संत-विरोधियों की शांति व पुण्यों को समूल नष्ट कर देता है, कालांतर में उनका सर्वनाश हो जाता है। कहा भी गया हैः

संत सतावे तीनों जावे, तेज बल और वंश।

ऐड़ा-ऐड़ा कई गया, रावण कौरव केरो कंस।।

अतः संतों के निंदकों से सावधान करते हुए संत कबीर जी कहते हैं-

कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिले हजार।

एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।

जिनका जीवन किसी संत या महापुरुष के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सान्निध्य में है, उनके जीवन में निश्चिंतता, निर्विकारिता, निर्भयता, प्रसन्नता, सरलता, समता व दयालुता के दैवी गुण साधारण मानवों की अपेक्षा अधिक होते हैं और वे ईश्वरीय शांति पाते हैं, सद्गति पाते हैं। जिनका जीवन महापुरुषों का, धर्म का सामीप्य व मार्गदर्शन पाने से कतराता है, वे प्रायः अशांत, उद्विग्न, खिन्न व दुःखी देखे जाते है व भटकते रहते हैं। इनमें से कई लोग आसुरी वृत्तियों से युक्त होकर संतों के निंदक बनकर अपना सर्वनाश कर लेते हैं। इसीलिए संत तुलसीदास जी ने लिखा है-

हरि गुरु निंदा सुनहिं जे काना, होहिं पाप गौ घात समाना।

हरि गुरु निंदक दादुर1 होई जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

  1. दादुर = मेंढक

नानक जी ने भी कहा हैः

संत का निंदक महा हतिआरा। संत का निंदकु परमेसुरि मारा।

संत के दोखी की पुजै न आसा। संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

भारतवर्ष का इससे बढ़कर और क्या दुर्भाग्य हो सकता है कि यहाँ के निवासी अपनी ही संस्कृति के रक्षक व जीवनादर्श, ईश्वररत आत्मारामी संतों व महापुरुषों की निंदा में, उनके दैवी कार्यों में विरोध उत्पन्न करने के दुष्कर्मों में संलग्न होते जा रहे हैं। यदि यही स्थिति बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब हम अपने ही हाथों से अपनी पावन परम्परा, रीति रिवाजों व आचारों को लूटते हुए देखते रह जायेंगे। क्योंकि संत संस्कृति के रक्षक, उच्चादर्शों के पोषक, रोग-शोक, अहंकार, अशांति के शामक होते हैं और जिस देश में ऐसे संतों का अभाव या अनादर होता है, इतिहास साक्षी है कि या तो वह राष्ट्र स्वयं ही मिट जाता है अथवा उसकी संस्कृति ही तहस-नहस होकर छिन्न-भिन्न हो जाती है और वहाँ के लोग बाहर से स्वाधीन होते हुए भी वास्तव में अशांति, अकाल मृत्यु, अकारण तलाक, विद्रोह और खिन्नता में खप जाते हैं।

हमारे ही देश के कुछ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में हमारे ही संतों और संस्कृति के खिलाफ अनर्गल बातें लिखी होती हैं। विदेशियों द्वारा दिये जाने वाले चंद पैसों की लालच में अपनी ही संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों के लिए क्या कहा जाय ?

वे हिन्दू धर्म के साथ साधु-संतों और देवी देवताओं के विषय में ऐसी बातें लिखते हैं कि हिंदुओं की ही श्रद्धा टूट जाये। क्योंकि विदेशी जानते हैं कि हिन्दुओं को अगर हिन्दुओं को गुलाम बनाना है तो पहले इनकी अपने ही धर्म से श्रद्धा तोड़नी पड़ेगी, क्योंकि धर्म इनका हौसला बुलंद करता है। इनकी श्रद्धा धर्म से हटने पर ही हम इन पर राज कर सकेंगे।

सदैव सज्जनों व संतों की निंदा, विरोध, छिद्रान्वेषण व भ्रामक कुप्रचार में संलग्न लेखक व पत्र-पत्रिकाएँ समझदारों की नजरों से तो गिरते ही हैं, साथ ही साथ लोगों को भ्रमित व पथभ्रष्ट करने के पाप के भागीदार भी बनते हैं। इस प्रकार के पाप का उन्हें अभी भय नहीं है, फिर भी भक्तों की बददुआएँ, समझदारों की लानत उन पर पड़ती है और देर-सवेर कुदरत का कोप उनपर होता ही है।

बड़े धनभागी हैं वे सत्शिष्य जो द्वेषपूर्ण भ्रामक प्रचार की तुच्छता समझ लेते है और उन अखबारों व पत्रिकाओं की होली जला देते हैं। उनसे माफी मँगवा लेते हैं अथवा उनके लिए चूड़ियाँ ले जाते हैं और उनकी बेशर्मी का उन्हें एहसास कराते हैं। उन्हीं के कार्यालय के सामने उनके अखबारों को जलाते हैं और उनके ब्लैकमेलिंग करने के मनसूबे सफल नहीं होने देते।

कुछ दिन पहले चंडीगढ़ में योग वेदान्त सेवा समिति के भाइयों ने जमीन खरीदी। एक फुट भी सरकार से जमीन नहीं ली गयी है, सारी जमीन समिति के भाइयों ने खरीदी है। उन पर लांछन लगाकर अख़बार वाले कौनसा मनोरथ पूरा करना चाहते हैं ?

बीसों एकड़ तो क्या, अगर कोई 20 गज भी सरकार की जमीन ली है – ऐसा अख़बार वाले साबित कर दिखायें तो उन्हें लाखों रूपये इनाम दिये जायेंगे। बेबुनियादी बातें लिख देना, कहानी रच देना, बात कुछ की कुछ तोड़-मोड़ कर द्वेषपूर्ण लेख लिख देना इससे अख़बार वालो की कीमत बढ़ती नहीं, घटती है।

धनभागी हैं वे सत्शिष्य जो तितिक्षाओं को सहने के बाद भी अपने सदगुरु के ज्ञान और भारतीय संस्कृति के दिव्य प्रकाश को दूर-दूर तक फैलाकर मानव-मन पर व्याप्त अंधकार को नष्ट करते रहते हैं। ऐसे सत्शिष्यों को शास्त्रों में पृथ्वी पर के देव कहा जाता है। – सम्पादक

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 10-11, अंक 118

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अधर्मी का धर्म


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परंतप।।

‘हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती है। हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।’ (गीताः 2.3)

धर्म के नाम पर जब कायरता फैल जाती है, तब अधर्म का प्रभाव बढ़ जाता है। इससे ईश्वरीय विधान का उल्लंघन होता है और मनुष्य की, समाज की  ज्यादा हानि होती है। जो मनुष्य ईश्वरीय विधान के अनुकूल आचरण करता है वह आगे बढ़ता है। उसका अंतरात्मा शांति पाता है, सुख पाता है और आत्मसामर्थ्य बढ़ाता है। जो ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करता है, वह गिरता है।

आजकल यही हो रहा है। बाहर कुछ भी करके धन कमा लिया, रुपये इकट्ठे कर लिये। फिर मंदिर, मस्जिद, चर्च में जाकर दान-दक्षिणा रख दी तो ‘सेठजी-सेठजी, साहब जी- साहब जी….’ करके वाह-वाह होने लगी। ऐसी वाहवाही से क्या होगा ? ऐसी आशीषों से क्या फायदा ? इससे धर्म की पुष्टि होगी ? नहीं। इससे तो अधर्म पुष्ट होता है। अधर्म की पुष्टि से समाज में सुख-शांति बढ़ेगी क्या ? ना, ना…. अधर्म से सुख-शांति का नाश होता है।

हम चाहे कहीं भी जायें, मंदिर में जायें या मस्जिद में जायें…. किसी को अन्न-वस्त्र दें या दान-दक्षिणा दें…. परंतु यह देखना चाहिए कि हमारा आचरण धर्म के अनुकूल है कि नहीं ? जो दान-दक्षिणा देते हैं वह धन कहीं गरीबों का शोषण करके तो इकट्ठा नहीं किया है न ? यह सावधानी भी रखनी चाहिए।

जब धर्म की हानि होती है, लोग निःस्वार्थता छोड़कर स्वार्थपरायण हो जाते हैं, निरहंकारिता छोड़कर अहंकारी हो जाते हैं, हृदय की विशालता छोड़कर संकीर्ण हो जाते हैं तब परेशानियाँ झेलते हैं।

निःस्वार्थ होना, निरहंकारी होना, हृदय को विशाल रखना, ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ सत्कर्म करना धर्म है। इसमें ईश्वरीय विधान का आदर है। परंतु मैं और मेरा… पुत्र और परिवार… ऐसा छोटा दायरा बनाकर संकीर्णता से, स्वार्थ से जीते हैं तो ईश्वरीय विधान का उल्लंघन होता है, हम धर्म से च्युत होते हैं। इसलिए चिंता, शोक, भय, बीमारी, परेशानी आदि सताते रहते हैं।

दुर्योधन स्वार्थपरायण होकर अधर्म का आचरण कर रहा था। जब द्रौपदी के बालों को पकड़कर दुःशासन उसे खींचता-घसीटता भरी सभा में ले आया, तब सारी सभा देख रही थी कि द्रौपदी के साथ अन्याय हो रहा है फिर भी सब चुप बैठे थे। दुर्योधन ने भीम को भरी सभा में अपनी बायीं जंघा दिखायी थी। उस समय कर्ण ने द्रौपदी को ‘वेश्या’ कहकर उसका अपमान भी किया था, यह भी सभा के लोगों ने देखा-सुना था।

परंतु जब युद्ध के मैदान में लड़ते समय कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फँस गया, तब कर्ण रथ से नीचे उतरकर पहिया निकालने लगा। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहाः “यही मौका है।”

श्रीकृष्ण की बात मानकर जब अर्जुन धनुष पर बाण चढ़ाकर निशाना साधने लगा, तब कर्ण ने हैः

“यह धर्मयुद्ध नहीं है। रुको, मैं निःशस्त्र हूँ और तुम मुझ पर वार कर रहे हो ? यह धर्म नहीं है।”

कर्ण जब धर्म की दुहाई देने लगा तब श्रीकृष्ण ने कहाः “अब तू धर्म की दुहाई देता है तो उस समय कहाँ था ? तेरा धर्म कहाँ गया था ? जब द्रौपदी के बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे भरी सभा में लाया गया था और तू उसका अपमान कर रहा था ?”

कभी-कभी राक्षसी वृत्ति के लोग, अधर्मी लोग भी धर्म की दुहाई देकर आपत्तिकाल में अपना बचाव करना चाहते हैं। यह धर्म के अनुकूल नहीं है।

जो आपत्तिकाल में भी धर्म का त्याग नहीं करता, वह अवश्य उन्नति करता है और जो अपनी जीवन-यात्रा में धर्म-अधर्म का ख्याल नहीं रखता, वह मारा जाता है, कुचला जाता है। उसे बहुत कष्ट सहना पड़ता है।

अपने बेटे की दुष्टता को धृतराष्ट्र जानते थे, परंतु बेटे में मोह था। इससे ‘मैं और मेरे पुत्र’ का संकीर्ण दायरा बनाकर उसी में चिपके थे। दुर्योधन की महत्त्वकांक्षाओं को और पाप-चेष्टाओं को जानते थे, फिर भी मोहवश उसे नहीं रोक पा रहे थे। तभी लाक्षागृह और द्यूत क्रीड़ा जैसी घटनाएँ घटीं।

गांधारी को धर्म का ज्ञान था। वह यह भी जानती थी कि उसका पुत्र पाप का पुतला है। फिर भी उसने मोहवश ईश्वरीय विधान का उल्लंघन किया तो उसे दुःख झेलना पड़ा।

महाभारत का युद्ध चल रहा था। उस समय गांधारी को पता चला कि उसका पुत्र मुसीबत में है। उसने दुर्योधन से कहाः

“बेटे ! तुझ पर इतनी मुसीबतें आती हैं तो मैं अपने सतीत्व का आशीर्वाद तुझे दूँगी। कल सुबह तू एकदम नग्न होकर मेरे सामने आ जाना। मैं अपनी आँखों की पट्टी खोलूँगी। तेरे शरीर पर मेरी नज़र पडेगी तो तेरा शरीर वज्र जैसा हो जायेगा। फिर कोई भी तुझे मार नहीं सकेगा।”

गांधारी धर्म के मार्ग पर चलती थी, परंतु वह भी मोहवश धर्म छोड़कर अधर्म की पीठ ठोकने लगी थी।

कभी-कभी धार्मिक व्यक्ति भी अधर्म की पीठ ठोंकने लग जाता है, तब अधर्म पुष्ट होता जाता है और धर्म की हानि होती है। परंतु वह ज्यादा समय टिकता नहीं है। उसका नाश अवश्य होता है।

गांधारी की यह बात पांडवों तक पहुँच गयी। पांडव चिंतित होकर बैठ गये कि यदि दुर्योधन की काया वज्र जैसी हो गयी तो उस पापी का नाश करना असंभव है। अगर पापी का नाश नहीं होगा तो वह पापी औरों को सताता रहेगा….. पाप और पापी बढ़ते रहेंगे।

इतने में श्रीकृष्ण वहाँ आ पहुँचे। सभी को चिंतित देखकर श्रीकृष्ण ने पूछाः “क्या बात है ? तुम लोग इतने चिंतित क्यों हो ?”

पांडवों ने बतायाः “उस पापी दुर्योधन को गांधारी मदद कर रही है और अपने सतीत्व के आशीर्वाद से दुर्योधन को वज्रकाय बनाने वाली है। फिर क्या होगा ? यही सोचकर हम चिंतित हैं।”

यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कराने लगे। तब युधिष्ठिर ने कहाः “हम चिंता-चिंता में मरे जा रहे हैं और आप इस अवसर पर हँस रहे हैं ?”

श्रीकृष्ण तो सब कुछ जानते थे। अपने मुक्तस्वरूप को जानने वाले श्रीकृष्ण के पास हँसी और प्रसन्नता नहीं रहेगी तो कहाँ रहेगी ? श्रीकृष्ण इसलिए हँसे कि ‘गांधारी भी मोहवश पापी दुर्योधन का पक्ष ले रही है…. धर्म अब अधर्म की पीठ ठोंकने लगा है।’

गांधारी के कहे अनुसार दुर्योधन सुबह के अँधेरे में अपना शरीर वज्र का बनाने के लिए नग्न दशा में गांधारी के पास जा रहा था। तभी बीच रास्ते में श्रीकृष्ण प्रकट हो गये और बोलेः

“अरे, दुर्योधन ! इस दशा में कहाँ जा रहे हो ? हस्तिनापुर का सर्वेसर्वा, इतना बड़ा युवान पुत्र माँ के सामने ऐसे जा सकता है ? बिल्कुल नग्न ?”

दुर्योधन शर्म के मारे नीचे बैठ गया और उसने श्रीकृष्ण को सारी बात बता दी।

श्रीकृष्णः “तुम्हें वज्रकाय बनना है, यह तो ठीक है। परंतु कम से कम अपने कटिप्रदेश को तो ढँक लो। कटिवस्त्र नहीं है तो लो, यह फूलमाला की चदरिया बाँध लो।”

दुर्योधन को श्रीकृष्ण की बात जँच गयी। उसने फूलमाला की चदरिया अपनी कमर में बाँध ली और गांधारी के पास पहुँच गया।

गांधारी की बाहर की आँख पर तो पट्टी बँधी ही हुई थी, परंतु भीतर की विवेकरूपी आँख पर भी पट्टी बँधी थी। दुर्योधन को आया हुआ जानकर उसने दुर्योधन को वज्रकाय बनाने के लिए वर्षों से बँधी हुई पट्टी खोली और संकल्प करके देखा तो वह चौंक पड़ीः

“अरे, यह क्या ! तुझे कहा था न कि दिगंबर होकर आना। यह फूलमाला की चदरिया तुझे किसने पहनायी ? …उस वनमाली ने ही पहनायी होगी। तेरे शरीर का हिस्सा तो वज्र जैसा हो गया परंतु जो हिस्सा माला से ढँका है, वह कच्चा रह गया। उसे तू सँभालना।”

जब भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध हो रहा था, तब दुर्योधन को जरा भी चोट नहीं लग रही थी तो मरने की तो बात ही क्या ? इससे भीम परेशान हो रहा था। तब श्रीकृष्ण ने इशारा किया कि ‘कटिप्रदेश पर गदा ठोक। भीम ने जब वहाँ पर गदा से मारा तब वह मरा।

अगर धार्मिक व्यक्ति अधर्म की पीठ ठोंकता है, तब अधर्म कुछ समय के लिए भले ही फलता-फूलता दिखे परंतु अंत में विजय तो धर्म की ही होती है।

घटित घटना है।

एक गाँव के बाहर एक पेड़ का ठूँठ था। खुजली मिटाने के लिए एक गाय ने उससे जोर-से रगड़ मारी। ठूँठ में एक फाँस गाय के पेट में घुसा और उस निमित्त से गाय मर गयी।

तीन साल से सूखे ठूँठ को बारिश में हरा-भरा देखकर गाँव के लोगों ने महात्मा से पूछाः

“कसाई के यहाँ कुशलता और धार्मिक के यहाँ मुसीबतें…. ऐसा क्यों ? सूखा ठूँठ गाय को मारने के बाद फला-फूला, उसकी जड़े सजीव हुईं, डालियाँ हरी हुईं, पत्ते लगे और वह तेजी से विकसित हो रहा है !”

महात्मा मुस्कराये और बोलेः “थोड़ा धैर्य रखो।”

वृक्ष तो बढ़ता ही जा रहा था। कुछ समय के बाद आँधी-तूफान आया, वृक्ष धराशायी हो गया। तब महात्मा ने बतायाः

“अन्याय, शोषण, अधर्म से कोई फलता-फूलता है तो धराशायी होने के लिए ही।”

इसीलिए धार्मिक लोगों को अधर्म का आश्रय नहीं लेना चाहिए। उन्हें अधर्म के भोग-विलास, ऐश-आराम के लिए लालायित नहीं होना चाहिए। ईश्वरीय विधान का आदर करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 118

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भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी……


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्रीरामचरितमानस’ में आता हैः

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।

यदि तुम विदेश जाना चाहो तो तुम्हारे पास पासपोर्ट होगा तब वीजा मिलेगा। वीजा होगा तब टिकट मिलेगी। फिर तुम हवाई जहाज में बैठकर अमेरिका जा सकोगे।

यदि नौकरी चाहिए तो प्रमाणपत्रों की जरूरत पड़ेगी। अगर व्यापार करना हो तब भी धन की जरूरत पड़ेगी। किंतु भक्ति में ऐसा नहीं है कि ‘तुम इतनी योग्यता प्राप्त करो तब भक्ति कर सकोगे….’

तुम्हारे पास कोई योग्यता, कोई प्रमाणपत्र न हो तो भी तुम भक्ति जब चाहो कर सकते हो। ईश्वर का ऐश्वर्य इसी में है कि वह तुम्हारी योग्यता देखकर तुम्हें स्वीकार नहीं करता वरन् स्वीकार करना उसका स्वभाव है, उसका ईश्वरत्व है। अगर तुम सोच लेते हो कि ‘मैं इतने साल तक भक्ति करूँगा तब भगवान मिलेंगे….’ समय-मर्यादा की अड़चन तुम्हारी ओर से है, ईश्वर की तरफ से नहीं हैं।

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।

जैसे, विभीषण आया तो सुग्रीव ने श्रीराम जी से कहा कि ‘यह शत्रु का भाई है, अतः इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।’ किंतु शत्रु का भाई है इसलिए उसे स्वीकार न करें तो ईश्वर का ईश्वरत्व किस बात का ? अगर भगवान केवल भक्तों को ही स्वीकारें और अभक्तों को न स्वीकारें तो कामी, क्रोधी, पापी वगैरह कहाँ जायेंगे ?

श्रीराम जी ने कहाः ‘मेरा तो प्रण है शरणागत के भय को हर लेना – मम पन सरनागत भयहारी। जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप लगा हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव मेरे सम्मुख होता है तो उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।’

कोटि विप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। श्री रामचरित. सुंदरकांडः 43.1

ईश्वर से यह नहीं होता कि योग्य को ही स्वीकारें। वरन् जो भी उनका होना चाहता है, उसके लिए ईश्वर के द्वार सदा खुले हैं।

शर्त यह है कि हम यह न मानें कि ‘हम पापी हैं… हमारे कर्म ऐसे हैं… हमको भगवान स्वीकार करेंगे कि नहीं ?’ अपने कर्मों को याद करके अपने को प्रभु का मानो और प्रभु को अपना मानो तो काम बन जायेगा….

पहली बात यह है कि अपने कर्म का कर्त्ता न मानें। दूसरी बात है कि कर्म में अपना स्वतंत्र ज्ञान नहीं होता। कर्म को पता नहीं होता कि वह कर्म है। कर्म स्वयं जड़ है, आपकी भावना के अनुसार उसका परिणाम होता है। कर्म करके कुछ पा लूँगा ऐसा विचार किया तो कर्म करने पड़ेंगे। क्रिया से जो कुछ मिलेगा वह मेहनत करवायेगा और अंत में थका देगा। पर भाव से जो मिलेगा वह मेहनत नहीं करवायेगा वरन् प्रेम उभारेगा और थकान मिटायेगा तथा जीवन को रसमय बनायेगा।

‘मैं इतना जप रोज करूँगा…. तब कहीं पवित्र होऊँगा और फिर भगवान मेरा जप स्वीकार करेंगे अथवा मैंने इतने अच्छे कर्म किये परंतु बीच में इतने बुरे कर्म किये इसलिए मेरा सब कुछ खो गया।’ ऐसा सोचोगे तो ऐसा ही दिखेगा, ऐसा ही होगा।
प्रयत्न करना चाहिए कि शास्त्र विरुद्ध कर्म न हों परन्तु स्मृति अपने कर्मों की नहीं, भगवान के स्वरूप की करनी चाहिए। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, भगवान चैतन्यस्वरूप हैं, भगवान आनंदस्वरूप हैं, भगवान हमारे परम हितैषी हैं, भगवान हमारे परम सुहृद हैं….. – ऐसा मानने से भगवत्प्रीति बढ़ती जायेगी।

ईश्वर में, शास्त्र में, गुरु में तथा अपनी आत्मा में जितनी श्रद्धा होगी, जितनी दृढ़ता होगी, उतना ही बल बढ़ता जायेगा।

एक पंडित जी प्रतिदिन किसी गाँव में कथा करने जाते थे। उसी गाँव में एक ग्वालिन प्रतिदिन नदी पास से दूध बेचने आती थी। दूध बेचने के लिए जाते-जाते वह ग्वालिन कथा के एक दो शब्द सुन लिया करती थी। एक बार कथा के ये शब्द उसके कान में पड़ गये कि ‘राम नाम से पत्थर भी तर जाते हैं।’

कहा गया है कि विश्वासो फलदायकः। ‘विश्वास से फलदायक होता है।’
ग्वालिन का विश्वास भी गजब का था। वह दूध बेचकर जब घर वापस जाने के लिए नदी तट पर आयी, तब सोचने लगीः ‘जब राम नाम से पत्थर तक तैर सकते हैं तो मैं तो मनुष्य हूँ। मैं क्यों नहीं तैर सकती ? नाव वाले को व्यर्थ में दो पैसे क्यों दूँ ?’ ऐसा दृढ़ निश्चय और विश्वास करके राम नाम लेते हुए उसने नदी में पैर रखा और चलकर नदी के उस पार पहुँच गयी ! अब वह प्रतिदिन दूध बेचने आती तो राम नाम जपते-जपते नदी पर चलकर ही आने लगी !

महीना पूरा हुआ। उसके पास थोड़े-से पैसे इकट्ठे हो गये। उसने सोचा कि जिन पंडित जी की कथा से मुझे इतना फायदा हुआ है, उन्हें एक बार भोजन तो करवा दूँ। उसने पंडित जी से अपने घर चलकर भोजन करने की प्रार्थना की। पंडित जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। समय और तिथि निश्चित हो गयी।

नियत दिन और समय पर ग्वालिन पंडित जी को लेने आयी। दोनों नदी के तट पर पहुँचे तो देखा कि नाव नहीं है। पंडित जी ने कहाः
“यहाँ तो कोई नाव ही नहीं दिखाई दे रही, उस पार कैसे पहुँचेंगे ?”
ग्वालिन ने कहाः “अरे, पंडित जी ! आप ही ने तो कहा था कि राम नाम से पत्थर तक तैर सकते हैं तो आपके लिए नदी को पार करना कौन-सी बड़ी बात है ? चलिये, मेरे साथ चले-चलिये।”

यह कहकर ग्वालिन तो बड़ी आसानी से पानी पर चलने लगी परंतु पंडित जी किनारे पर ही खड़े रह गये। तब उन्हें हुआ कि मैंने इतने शास्त्र पढ़े, कथाएँ कीं, किंतु शास्त्रों का सार, कथाओं का सार तो इस ग्वालिन ने पाया।

ग्वालिन ने तो केवल दो वचन ही सुने थे कि ‘राम नाम से तो पत्थर भी तर जाते हैं’। उसने उन वचनों पर विश्वास किया तो पानी पर चलना उसके लिए आसान हो गया। ऐसे ही हमें शास्त्र वचनों, गुरु वचनों पर विश्वास हो जाये तो हम भी भवसागर से आसानी से पार हो सकते हैं। जरूरत है तो केवल अटल विश्वास की….

परिस्थितियों से हार न मानें, इनसे चिपके नहीं और इनसे घबराये भी नहीं। तटस्थ हो जायें। अपने भगवत् तत्त्व के साथ एकाकार होकर परिस्थितियों को गुजरने दें। ‘भगवान मेरे साथ हैं और मैं भगवान का हूँ’ – यह विश्वास जितना पक्का करोगे भगवान उतने जल्दी प्रकट होंगे। ईश्वर के रास्ते जाने का एक बार दृढ़ संकल्प कर लिया तो फिर उसको छोड़े नहीं।

बरसात के दिनों में फालतू घास जल्दी उग जाती है परंतु गुलाब के फूल जहाँ-तहाँ नहीं उगते। गुलाब के फूल खिलाने हैं तो कलम लगानी पड़ती है, निराई-गुड़ाई करनी पड़ती है, खाद-पानी देना पड़ता है, देखभाल करनी पड़ती है तब गुलाब खिल पाता है।

ऐसे ही फालतू विचार जल्दी आ जाते हैं, व्यर्थ कर्म भी जल्दी हो जाते हैं किंतु श्रेष्ठ कर्म करने में दृढ़ता रखनी पड़ती है। श्रेष्ठ विचार के लिए सत्संग करना होता है। सत्संग से जो श्रेष्ठ विचार मिलें उन्हें पकड़े रखें, सुना-अनसुना न करें। जैसे गुलाब की कलम लगाते हैं तो उसकी देखभाल करते हैं, ऐसे ही विचारों की कलम लग जाये तो उसकी सँभाल करनी चाहिए। बगीचे में तो फूल खिलते हैं, सुगंध देकर मुरझा जाते हैं परंतु यहाँ तो हृदय खिलेगा और परमात्मतत्त्व का अमिट अनुभव होने लगेगा।

तीसरी बात है कि कभी यह न समझें कि ‘ईश्वर कहीं दूसरी जगह पर है…. अभी नहीं है बाद में मिलेगा…. यहाँ नहीं है, कहीं जाने के बाद मिलेगा…..।’ नहीं, ईश्वर तो तुम्हारा आत्मा होकर बैठा है, वह सर्वत्र और सदा है। आरंभ में होता है कि ‘वह कहीं है और मैं कहीं हूँ और मैं उसका हूँ’। जब भक्ति और बढ़ती है, सत्संग और शास्त्र विचार करता है तो ‘मैं’ पना मिट जाता है और वह कहने लगता है कि ‘मैं वही हूँ, वह मैं हूँ।’

चौथी बात है कि यह सदा याद रखें कि यह शरीर सदा नहीं रहेगा। एक दिन श्मशान में जायेगा परंतु मेरी आत्मा परमात्मा का सनातन अंश है और सदा रहेगी। इस प्रकार की जो समझ है वह शरीर की ममता हटा देगी, शरीर से आसक्ति हटा देगी।
शरीर की आसक्ति रखने से आलस्य बढ़ता है, इन्द्रियों में विलासिता आ जाती है, मन असंयमी हो जाता है और बुद्धि के दोष बढ़ जाते हैं।
‘शरीर तो पंचभूतों का है’ – ऐसी मान्यता दृढ़ हो जाये तो शरीर का आलस्य चला जाता है। मन की विलासिता और इन्द्रियों का उच्छ्रंखलपना नियंत्रित हो जाता है और बुद्धि में समता आने लगती है।

देह को ‘मैं’ मानोगे तो भोग-वासना पीछा नहीं छोड़ेगी। सूक्ष्म शरीर को ‘मैं’ मानोगे तो विचार और सिद्धान्त में पकड़ होगी। कारण शरीर को ‘मैं’ मानोगे तो अवस्था में पकड़ होगी परंतु सच्चिदानंद-स्वरूप परमात्मा में ‘मैं’ और ‘मेरा’ पन होगा तो हर हाल में खुश…।

फिर तो भगवान का भजन करते हो तब भी भगवान तुम्हारे और नहीं करते हो तब भी भगवान तुम्हारे हैं। मन नाचता है तब भी तुम भगवान के और मन शांत रहता है तब भी तुम भगवान के हो जाते हो।

जैसे, पत्नी ससुराल में हो तब भी, मायके में हो या घर में हो, बाजार में हो तब भी पति की ही है। पति की सेवा करती है तब भी पति की है और किसी दिन सेवा नहीं करती है तब भी पति की ही है। वैसे ही जीव भगवान का है। भजन होता है तब भी भगवान तुम्हारे हैं और नहीं होता है तब भी भगवान तुम्हारे ही रहते हैं।

जब तुमने सच्चे दिल से भगवान को अपना मान लिया तो वह तुम्हारा क्यों नहीं होगा ?
तुम तो एकमात्र उस भगवान का ही आश्रय लो। ईश्वर की ओर चलने में जहाँ सहयोग मिलता हो, उत्साह बढ़ता हो, वह जगह छोड़े नहीं और ईश्वर से विमुख करने वाला वातावरण हो वहाँ जाये नहीं।

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः “हे राम जी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे वह भी श्रेष्ठ है, पर मूर्खता से जीना व्यर्थ है।”

बड़े-बड़े ऐश्वर्य से भी वह अवस्था अच्छी है, क्योंकि बड़े-बड़े ऐश्वर्य भोगकर भी आखिर नरकों में जाना पड़ेगा।

सुख-सुविधाएँ, गाड़ी-बँगले आदि का कुछ भी मूल्य नहीं है। इनको पाने का यत्न करने में प्राणी अपना सारा समय-शक्ति गँवा देता है, जबकि भगवत् भाव का, भगवत् शांति का, भगवत् माधुर्य का जो सुख है वह यहाँ भी सुख देता है और अंत में सुखस्वरूप ईश्वर से मिला देता है। इसलिए प्रयत्न करके भगवत् भाव को, भगवत् ज्ञान को, भगवत् ध्यान को और भगवत् तत्त्व को आत्मसात करना चाहिए।

….और यह कठिन नहीं है। ‘कठिन है-कठिन है’ सोचते हैं तो कठिन हो जाता है। अन्यथा यह कठिन नहीं है। देर वाला काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि कोई चीज और लाकर देनी पड़ेगी….। इसे न कहीं से लाना है, न बनाना है। यह तो हाजरा हुजूर है इसे केवल जानना है, बस।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 15-18, अंक 117
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