Yearly Archives: 2009

गुरुभक्तियोग – स्वामी शिवानंद जी सरस्वती


याद रखना चाहिए कि मनुष्य की अंतरात्मा पाशवी वृत्तियों, भावनाओं तथा प्राकृत वासनाओं के जाल में फँसी हुई है । मनुष्य के मन की वृत्ति विषय और अहं की ओर ही जायेगी, आध्यात्मिक मार्ग में नहीं मुड़ेगी । आत्मसाक्षात्कार की सर्वोच्च भूमिका में स्थित गुरु में शिष्य अगर अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण समर्पण कर दे तो साधना-मार्ग के से भयस्थानों से बच सकता है । ऐसा साधक संसार से परे दिव्य प्रकाश को प्राप्त कर सकता है । मनुष्य की बुद्धि एवं अंतरात्मा को जिस प्रकार निर्मित किया जाता है, अभ्यस्त किया जाता है उसी प्रकार वे कार्य करते हैं । सामान्यतः वे दृश्यमान मायाजगत तथा विषय-वस्तु की आकांक्षा एवं अहं की आकांक्षा पूर्ण करने के लिए कार्यरत रहते हैं । सजग प्रयत्न के बिना वे आध्यात्मिक ज्ञान के उस उच्च सत्य को प्राप्त करने के लिए कार्यरत नहीं होते ।

‘गुरु की आवश्यकता नहीं है और हरेक को अपनी विवेक-बुद्धि तथा अंतरात्मा का अनुसरण करना चाहिए’ – ऐसे मत का प्रचार प्रसार करने वाले भूल जाते हैं कि ऐसे मत का प्रचार करके वे स्वयं गुरु की तरह प्रस्तुत हो रहे हैं । ‘किसी भी शिक्षक की आवश्यकता नहीं है’ – ऐसा सिखाने वालों को उनके ही शिष्य मान-पान और भाव अर्पित करते हैं । भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को बोध दिया कि ‘तुम स्वयं ही तार्किक विश्लेषण करके मेरे सिद्धान्त की योग्यता अयोग्यता और सत्यता की जाँच करो । ‘बुद्ध कहते हैं’ इसलिए सिद्धान्त को सत्य मानकर स्वीकार कर लो ऐसा नहीं ।’ किसी भी भगवान की पूजा नहीं करना, ऐसा उन्होंने सिखाया लेकिन इसका परिणाम यह आया कि महान गुरु एवं भगवान के रूप में उनकी ही पूजा शुरु हो गयी । इस प्रकार ‘स्वयं ही चिंतन करना चाहिए और गुरु की आवश्यकता नहीं है’ इस मत की शिक्षा से स्वाभाविक ही सीखने वाले के लिए गुरु की आवश्यकता का इनकार नहीं हो सकता । मनुष्य के अनुभव कर्ता-कर्म के परस्पर संबंध की प्रक्रिया पर आधारित है ।

पश्चिम में कुछ लोग मानते हैं कि गुरु पर शिष्य का अवलम्बन एक मानसिक बंधन है । मानस-चिकित्सा के मुताबिक ऐसे बंधन से मुक्त होना जरूरी है । यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि मानस-चिकित्सावाले मानसिक परावलम्बन से, गुरु शिष्य का संबंध बिल्कुल भिन्न है । गुरु की उच्च चेतना के आश्रय में शिष्य अपना व्यक्तित्व समर्पित करता है । गुरु की उच्च चेतना शिष्य की चेतना को आवृत कर लेती है और उसका ऊर्धवीकरण करती है । गुरु-शिष्य का व्यक्तिगत संबंध एवं शिष्य का गुरु पर अवलम्बन केवल आरम्भ में ही होता है, बाद में तो वह परब्रह्म की शरणागति बन जाता है । गुरु सनातन शक्ति के प्रतीक बनते है । किसी दर्दी का मानस-चिकित्सक के प्रति परावलम्बन का संबंध तोड़ना अनिवार्य है क्योंकि यह संबंध दर्दी का मानसिक तनाव कम करने के लिए केवल अस्थायी संबंध है । जब चिकित्सा पूरी हो जाती है तब परावलम्बन तोड़ दिया जाता है और दर्दी पूर्व की भाँति अलग और स्वतंत्र हो जाता है । किंतु गुरु-शिष्य के संबंध में प्रारंभ में या अंत में कभी भी अनिच्छनीय परावलम्बन नहीं होता । यह तो केवल पराशक्ति पर ही अवलम्बन होता है । गुरु को देहस्वरूप में या एक व्यक्ति के स्वरूप में नहीं माना जाता है । गुरु पर अवलम्बन शिष्य के पक्ष में देखा जाय तो आत्मशुद्धि की निरंतर प्रक्रिया है, जिसके द्वारा शिष्य ईश्वरीय परम तत्त्व का अंतिम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 23 अंक 199

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अपना-पराया – पूज्य बापू जी


साधक को जब मंत्र मिलता है न, तो वह मौन हो जाता है, जपते-जपते चुप हो जाता है । कैकेयी को भी मंत्र मिला था और वह चुप हो गयी थी, उसको मौन रुच रहा था । उसको मंत्र किसने दिया था ? वसिष्ठ महाराज ने दिया था कि अन्य किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ने दिया था ? नहीं । राजसी और तामसी मति से भरपूर मंथरा ने दिया था ।  मंत्र तो क्या कुमंत्र दिया था । रामराज्य की बात सुनकर मंथरा ने कैकेयी से मुलाकात की । कैकेयी बड़ी खुश थी कि ‘मेरा ज्येष्ठ पुत्र राजा हो रहा है ।’ कैकेयी और राम जी की आपस में खूब बनती थी ।

कैकेयी ने मंथरा को कहा कि “ले यह हार, कल मेरे सपूत श्रीराम का राज्याभिषेक होगा ।”

“क्या कहा, तेरा सपूत….?”

“हाँ, राम मेरा सपूत है न !”

“यह तो ठीक है लेकिन अपना अपना होता है, पराया पराया होता है ।”

मंथरा ने कैकेयी को कुमंत्र दे दिया । जो राग-द्वेष पैदा कर दे वह ‘मंत्र’ नहीं ‘कुमंत्र’ है और जो राग-द्वेष मिटाकर तत्त्वज्ञान की तरफ ले जाय वह सुमंत्र है । मंथरा ने कैकेयी को ऐसा कुमंत्र दिया कि धीरे-धीरे उसकी बुद्धि बदली और उसने महाराज दशरथ को इस बात के लिए मजबूर किया कि ‘राम तो जाय वनवास और भरत राजसिंहासन पर बैठे ।’ यह हुआ उस कुमंत्र से और सुमित्रा ने अपने बेटे लक्ष्मण को मंत्र दिया कि ‘तुम राम जी की सेवा में जाओ और राम जी के नाते सबसे व्यवहार करना । जैसे पतिव्रता स्त्री पति के नाते सास, ससुर, देवर, जेठ तथा पति के मेहमानों की भी सेवा कर देती है, ऐसे ही तुम भी राम जी के नाते सबसे व्यवहार करना और अनेक में एक देखना, अपने पराये का भेद मत करना ।’ उसने यह सात्त्विक मंत्र दिया तथा मंथरा ने कुमंत्र दियाः ‘यह अपना, यह पराया….।’

वास्तव में देखें तो अपना कौन है ? अपनी देह भी अपने कहने में नहीं चलती, अपना मन भी अपने कहने में नहीं चलता, अपना बेटा भी अपने कहने में नहीं चलता, आजकल अपने दोस्त भी अपनों से धोखा कर लेते हैं । अपने वाले कब, कितना काम आयेंगे कोई पता नहीं । और कई बार अपने ही पराये बन  जाते हैं और पराये अपने बन जाते हैं । तत्त्वज्ञान तो यह है कि अपना तो एक आत्मा-परमात्मा है जो मौत के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता । वही अपना है बाकी सब सपना है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 199

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सच्चे तीर्थ


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः ।।

भगवना बोलते हैं- येषां त्वन्तगतं पापं... जिनके पापों का अंत होता है, जनानां पुण्यकर्मणाम् । जिनके पुण्य जोर मारते हैं, ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः... वे द्वन्द्व और मोह से मुक्त होकर भजन्ते मां दृढ़व्रताः । सत्संग में, साधना में, ईश्वरप्राप्ति में लगते हैं ।

बाकी के जो तुच्छ लोग हैं उनके लिए भगवान ने गीता में कहा – जन्तवः । जैसे जीव जन्तु खाते पीते, बच्चे करते और फिर मर जाते हैं, उनको पता ही नहीं कि इतना मूल्यवान जीवन कैसे बिताना चाहिए, ऐसे लोगों को भगवान ने जन्तवः कहकर उपेक्षा करके एक प्रकार की गाली दी है । तेन मुह्यन्ति जन्तवः । वे जंतु हैं, मोहित हो रहे हैं । ‘भागवत्’ में आया हैः मन्दाः सुमन्दमतयः... ऐसे लोग मंदमति के हैं, मंदभाग्याः भाग्य भी उनका मंद है, उपद्रुताः इसकी निंदा, उसकी चुगली करने के उपद्रवी स्वभाव के हैं । कलियुग के दोषों से भरे हुए मनुष्य की पहचान कराते हैं भगवान और सत्शास्त्र ।

मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ।

वे मंदमति है, मंदभागी हैं और उपद्रवी हैं । खुद तो उपद्रवी हैं और दूसरों को भी ऐसे-वैसे साजिश करके, अफवाह फैलाकर उपद्रवों की आग में झोंकते हैं ।

जब महापुरुष हयात होते हैं तो बोलते हैं- उल्टा मार्ग दसेंदा नानक । नानकजी के विरुद्ध बगावत करते हैं । नानक जी जैसे महान संत को कारागार में डालने वाले ऐसे अभागे लोग पीछे नहीं हटा करते । उसमें भी अपने को बड़ा आदमी साबित करते हैं कि देखो, इनके गुरु बड़े कि मैं बड़ा हूँ । नानक जी को कारागार में डाल दिया बाबर ने, ऐसी बेकदरी की लोगों ने नानकजी की । तो ये मंदमति हैं । जिनकी मति मारी गयी है वे संतों की हयाती में संतों का फायदा नहीं ले पाते हैं अपितु संतों में दोषदर्शन करते हैं ।

हयात गुरु जब समाज में होते हैं तो लोग अवज्ञा करते हैं, उनके लिए कुछ-की-कुछ अफवाहें करते हैं, निंदा आदि करते हैं, जिससे हयात गुरु से लोग वंचित हो जाते हैं, कम फायदा उठा पाते हैं । भगवान के मंदिर में जाते हैं, मूर्ति के आगे माथा टेकते हैं तो मूर्ति न कुछ बोलती है, न टोकती है, न डाँटती है । अपनी तरफ से श्रद्धा होने से थोड़ा पुण्य होता है । इसलिए संत कबीरदास जी ने यह पर्दा उठाया समाज की आँखों से बोलेः

तीरथ नहाये एक फल.... तीर्थ में नहाते हो एक फल होता है । संत मिले फल चार – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन उन संत में अगर श्रद्धा-भक्ति हो और वे तुम्हारे सद्गुरु हैं तो उनके साथ अपनत्व होगा । गुरु के साथ शिष्य का अपनत्व होता है तो गुरु का भी शिष्य के साथ अपनत्व होता है – जैसे माँ का बच्चों के साथ अपनत्व होता है तो माँ सार-सार बच्चे को पिला देती है । गाय का बछड़े के साथ अपनत्व होता है तो गाय सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, धक्का-मुक्की खुद सहती है, दिन भर भटकती है लेकिन दूध बनता है तो बछड़े को तैयार मिल ऐसा मिलता है कि बस सकुर-सकुर पी ले । बछड़े को तो मुँह हिलाना पड़ता है लेकिन सद्गुरुरूपी माँ ने जन्म-जन्म से जो कमाई की, अब भी घंटों भर ध्यान-समाधि और रब के साथ एकाकार होते हैं… तो गाय तो खड़ी होती है और बच्चे को सिर हिलाना पड़ता है दूध पीने के लिए लेकिन शिष्य रूपी बछड़े खड़े नहीं होते, प्रयत्न नहीं करते, बैठे रहते हैं और गुरुरूपी गाय ही अपने अनुभव का अमृत रब को छुआकर कानों के द्वारा हृदय में भर देती है ।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

न अंतः इति अनन्तः । जिसका अंत न हो उसे बोलते हैं अनन्त । ये सारे फल अंतवाले हैं और दुःख देने वाले हैं । सत्शिष्य का जो फल है वह अनन्त फल है, जिसका अंत मौत भी नहीं कर सकती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 17,20 अंक 199

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