हृदयमंदिर की यात्रा कब करोगे ?

हृदयमंदिर की यात्रा कब करोगे ?


(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

कलकत्ता में दो भाई रहते थे। दोनों के पास खूब धन-सम्पदा थी। उनके बीच इकलौता बैटा था प्राणकृष्ण सिंह। ये दोनों भाइयों की सम्पत्ति के एकमात्र उत्तराधिकारी थे। उनके यहाँ भी एक ही लड़का था। उसका नाम था कृष्णचंद्र सिंह। उनके दादा जी, पिता उन्हें प्यार से ‘लाला’ कहकर पुकारते और नौकर-चाकर ‘लालाबाबू’ कहते थे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद लालाबाबू की वर्धमान कलेक्टरी के सेरेस्तादार पद पर नियुक्ति हो गयी। बाद में उड़ीसा के सर्वोच्च दीवान के पद पर भी उन्हें नियुक्त किया गया।

समय बीता, लालाबाबू के पिताजी का स्वर्गवास हो गया। पिता की जमींदारी और सारी सम्पदा की देखभाल का भार इनके ऊपर आ गया। इनके दादाजी अंग्रेज शासन काल में दीवान थे और बड़ी धन-सम्पदा के मालिक थे।

लालाबाबू कलकत्ता में अपने कामकाज से समय निकाल कर शाम को गंगाजी के किनारे घूमने निकल जाते। पाँच-पचीस मुनीम, मैनेजर और खुशामदखोर साथ चलते। नौकर-चाकर आरामदायक कुर्सी लगा देते, चाँदी का हुक्का रख देते। लालाबाबू आराम से हुक्का गुड़गुड़ाते और गंगाजी की लहरों का आनन्द लेते।

एक शाम को लालाबाबू गंगा किनारे बैठे थे। कोई माई अपने कुटुम्बी को जगा रही थीः “लाला ! शाम हो गयी, कब तक सोओगे, जागो। दे ह्वै गयी, दिन बीतो जाय रियो है। लालाबाबू ! देर ह्वै गयी, जागो !”

पुण्यात्मा लालाबाबू ने सोचा कि ‘सच है, देर हो रही है। जिंदगी का उत्तरकाल शुरु हो रहा है, बाल सफेद हो रहे हैं, अब जागना चाहिए। समाज की चीज धन-दौलत, वाहवाही…. ये कब तक !”

घर आये और कुटुम्बियों से कहाः “अब मैं वृंदावन जाऊँगा। जीवन की साँझ हो रही है, देर हो रही है। मेरे को जागना है।”

सब छोड़-छाड़कर वृंदावन में आ गये। भिक्षुक लोग जैसे भिक्षा माँगते हैं, ऐसे अन्नक्षेत्रों से टुकड़ा माँगकर खाते और ‘राधे-राधे, राधे-कृष्ण, राधे-राधे-राधे…..’ का जप कीर्तन करते। देखा कि ‘अब मैं टुकड़ा माँगकर खाता हूँ पर और साधु-संत भी भिक्षा माँग रहे हैं। घर पर खूब सम्पदा है, वहाँ से धन मँगाकर साधु-संतों के लिए अन्नक्षेत्र और उनके निवास के लिए कुछ आश्रम-वाश्रम बनवायें।’

रंगजी के मंदिर में दर्शन करने गये तो मन में हुआ कि ‘सेठ लक्ष्मीचंद ने यह मंदिर बनवाया है, मैं खूब धन लगाकर इससे भी बढ़िया मंदिर बनवाऊँ।’

घर से कुछ सम्पदा मँगाकर लालाबाबू ने बाँके बिहारी जी का मंदिर बनवाया। अब भगवान को पाने की तड़प ने लालाबाबू की जिज्ञासा जगायी कि अगर ठाकुरजी की प्राण प्रतिष्ठा विधिपूर्वक हुई है तो मूर्ति में प्राण चलने चाहिए।

सर्दियों के दिन थे। लालाबाबू ने पूजारी को मक्खन की एक टिक्की दी और बोलेः “ठाकुर जी के सिर पर रखो। यदि प्राण चलते हैं तो शरीर में गर्मी होती है, मस्तक की गर्मी से मक्खन पिघलेगा।”

उनकी सदभावना से ठाकुरजी के सिर पर रखा हुआ मक्खन पिघलने लगा। वे बड़े भाव विभोर हो गये और जोर जोर से पुकारने लगेः “जय हो प्रभु ! जय हो !! राधे गोविन्द, राधे-राधे, राधे-गोविन्द-राधे, कृष्ण-कण्हैया लाल की जय !” दण्डवत प्रणाम करके ठाकुरजी के चरणों में गिर पड़े। जैसे तुलसीदास जी के कहने से भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी छोड़ दी और धनुष उठाया था, ऐसे ही बाँके बिहारी ने प्रार्थना सुन ली। बाँके बिहारी की मूर्ति से शरीर की गर्मी का प्रमाण मिल गया। मन में संतोष हुआ कि ठाकुर जी में प्राण प्रतिष्ठा हुई है, मूर्ति में चैतन्य जागृत हो गया है।

कुछ दिनों बाद फिर परीक्षा का विचार आया। पुजारी को पतली सी रूई दी और बोलेः “ठाकुर जी की नासिका पर रखो। अगर प्राण-प्रतिष्ठा हुई है तो शरीर में प्राण भी चलने चाहिए। देखें, ठाकुर जी श्वास लेते हैं कि नहीं।”

पुजारी ने रूई रखी तो देखते हैं कि ठाकुरजी की मूर्ति के निःश्वास से रूई हिल रही है ! लालाबाबू अहोभाव से भर गये। लेकिन कुछ समय के बाद देखा कि ‘अब भी ठाकुरजी के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। मेरे सदभाव से, संकल्प से, शुद्ध पूजा से ठाकुरजी की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का तो मैं एहसास करता हूँ परंतु मेरे प्राण, मन ठाकुर जी में रमण करें तब तो बात बने।’

उस समय कृष्णदासजी महाराज प्रसिद्ध थे वृंदावन में। लालाबाबू उनके पास गये और प्रार्थना कीः “महाराज ! मुझे भगवान से मिलाओ, भगवान के दर्शन कराओ, भगवान के स्वरूप का ज्ञान, भगवान की प्रीति का दान दे दो।”

कृष्णदास जी महाराज बोलेः “अभी समय नहीं हुआ है, समय होगा तो मैं तुम्हें खुद आकर दीक्षा दे दूँगा।”

लालाबाबू सोचने लगे कि ‘सब कुछ छोड़कर आया हूँ, पढ़ा लिखा हूँ, सदभाव से ठाकुरजी   मममें प्राण-प्रतिष्ठा का एहसास भी मुझे हो गया किंतु गुरु जी मुझे बोलते हैं कि अभी समय नहीं हुआ है, मैं दीक्षा के योग्य नहीं हुआ हूँ। क्या कमी है ?’

अपनी कमी खोजने जाओ ईमानदारी से तो जल्दी मिल जायेगी। हम अपनी कमी जितनी जानते हैं उतना हमारे कुटुम्बी नहीं जानते, पड़ोसी नहीं जानते, दूसरे नहीं जानते। अपनी कमी पर चादर रखने से हमारी मति-गति और जिज्ञासा दब जाती है। अगर अपनी कमी निकालकर फेंक दें तो हमारे हृदय में परमेश्वर यूँ छलकते हुए प्रकटते हो जायें ! जैसे बोर करने से मिट्टी, कंकड़ हट जाते हैं तो पानी के झरने अंदर मिल जाते हैं और खूब नित्य नवीन जलधारा मिलती रहती है, ऐसे ही अपनी कमी निकालें तो नित्य नवीन सुख, नित्य नवीन प्रेमरस, ज्ञानरस और आरोग्य रस मिलता रहता है। लेकिन हमने वासनाओं से पर्दे से, इच्छाओं के कंकड़ और मिट्टी से उसे दबाकर रखा है, इसलिए स्वास्थ्य के लिए औषधि लेनी पड़ती है, ज्ञान के लिए पोथे रटने पड़ते हैं, प्रसन्नता के लिए क्लबों में भटकना पड़ता है। जिसके जीवन में भगवदरस आ गया उसको प्रसन्नता के लिए क्लबों में नहीं जाना पड़ता, वह निगाह डाल दे तो लोगों में प्रसन्नता छा जाय।

लालाबाबू कमी खोजते गये तो पाया कि ‘मेरे में कमी तो है। लक्ष्मीचंद सेठ ने रंगजी का मंदिर बनवाया और मैंने उनके प्रति प्रतिस्पर्धी भाव रखा। उनके साथ मुकद्दमेबाजी भी की। मुकद्दमे में जीत गया, मेरे में यह अहं भी है।’

जब तक अहं रहता है तब तक ठाकुरजी की प्राप्ति नहीं होती।

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा तुझसे पूछे कि बंदे ! तरी रजा क्या है ?

अभी खुदी अहंवाली है, खुदी ईश्वर में नहीं खोयी।

रंगजी के मंदिर के बाहर अन्न क्षेत्र में गरीब गुरबों को भोजन मिलता था। जहाँ सब याचक लोग कतार में खड़े रहते थे, वहाँ जाकर वे खड़े रह गये। नौकर ने सेठ लक्ष्मीचंद को बताया कि “लालाबाबू जिन्होंने रंगजी के मंदिर जैसे ही भव्य मंदिर बनवाया, साधु-संतों के लिए सदावर्त खोला, वे स्वयं भिक्षा माँगने के लिए अपने यहाँ खड़े हैं।”

सेठ लक्ष्मी चंद कच्चा सीधा, पक्की रसोई और सौ अशर्फियाँ लेकर हाजिर हो गये कि “महाराज ! स्वीकार करें।”

लालाबाबू बोलेः “यह आप मुझ भिक्षुक के लिए लाये हैं ! भिक्षुक को यह शोभा नहीं देता। आप इतना सारा सामान उठाकर लाये हैं, यह आप मेरी सम्पदा का स्वागत कर रहे हैं। इसका मैं अधिकारी नहीं हूँ। मैंने तो आपसे मुकद्दमेबाजी की थी, अब आप मुझे क्षमा कीजिए। एक भिक्षुक, तुच्छ भिक्षुक, आपके द्वार का भिखारी मानकर मुट्ठी भर अन्न दे दीजिए। मैं उसी से निर्वाह कर लूँगा।”

ये नम्रता के, अहंशून्यता के वचन सुनकर लक्ष्मीचंद सेठ के हृदय में छुपे हुए हृदयेश्वर का, परमात्म-सत्ता का भक्तिभाव छलका। आँखों में आँसू, हृदय में प्यार…

लक्ष्मीचंद बोलेः “यह क्या कह रहे हो लालाबाबू !”

लालाबाबू ने कहाः “लक्ष्मीचंद ! क्षमा करो, मैं आपका गुनहगार हूँ।”

दो और दो चार आँखें लेकिन प्रेमस्वरूप परमात्मा दोनों के द्वारा रसमय होकर छलक रहा है, द्रवीभूत हो रहा है। दोनों गले लगे और दोनों एक दूसरे के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने लगे। इतने में कृष्णदास महाराज आये और बोलेः “लालाबाबू ! आ जाओ, दीक्षा का समय हो गया है।”

कृष्णदास जी ने लालाबाबू को दीक्षा दी और कहाः “भगवान को प्राप्त करना है तो किसी से मिलो मत, जब तक ईश्वरप्राप्ति न हो तब तक इसी गुफा में रहो। भिक्षा तुम्हें हम यहीं भिजवा देंगे।”

अमीरी की तो ऐसी की, सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की, कृष्णदास की गुफा में आ बैठे।।

सातत्य…. भक्ति में सातत्य ! हम लोग थोड़ी भक्ति करते हैं, थोड़ा साधन करते हैं और बहुत सा असाधन करते हैं इसलिए ईश्वरप्राप्ति का रास्ता लम्बा हो जाता है, नहीं तो ईश्वर तो हमारा आत्मा है। जिसको हम कभी छोड़ नहीं सकते वह परमात्मा है और जिसको सदा न रख सकें उसी का नाम संसार है।

तो लालाबाबू ने अपना कल्याण कर लिया। ब्रह्मज्ञानी गुरु के चरणों में पहुँच गये और हृदय मंदिर की यात्रा की। पुत्रों और पत्नी के मोहपाश में न पड़े, प्रभुप्रेम में पावन हुए। लालाबाबू ने तो अपना काम बना लिया। अब हम इस माया से निपटकर किस दिन कल्याण के मार्ग पर चलेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 20,21,22 अंक 211

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