उसके लिये क्या असम्भव है !

उसके लिये क्या असम्भव है !


महर्षि आयोद धौम्य के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे वेद। वे विद्याध्ययन समाप्त कर घर गये और वहाँ गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए रहने लगे। उनके भी तीन शिष्य हुए जिनमें सबसे प्यारे उत्तंक थे।

उत्तंक का अध्ययन समाप्त हो गया। वे घर जाने लगे। विद्याध्ययन की समाप्ति पर गुरुदक्षिणा अवश्य देनी चाहिए’ – ऐसा सोचकर उन्होंने गुरुजी से विनती कीः “गुरुदेव ! मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?”

गुरु ने बहुत समझाया कि ‘तुमने पूरे मन से मेरी सेवा की है, यही सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा है।’ किंतु उत्तंक बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करने लगे, तब गुरु ने कहाः “अच्छा, भीतर जाकर गुरु पत्नी से पूछ आओ। उसे जो प्रिय हो, वही तुम कर दो, यह तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।” यह सुनकर उत्तंक भीतर गये और गुरुपत्नी से प्रार्थना की, तब गुरुपत्नी ने कहाः “राजा पौष्य (जिनके राजगुरु थे वेदमुनि) की रानी जो कुण्डल पहने हुए है, वे मुझे आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत (वह व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं) के अवसर पर अवश्य लाकर दो। उस दिन मैं उन कुण्डलों को पहनकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूँ।”

यह सुनकर उत्तंक गुरु और गुरुपत्नी को प्रणाम करके पौष्य राजा की राजधानी को चल दिये।

रास्ते में उन्हें धर्मरूपी बैल पर चढ़े हुए इन्द्र मिले। इन्द्र ने कहाः “उत्तंक तुम इस बैल का गोबर खा लो। भय मत करो।” उनकी आज्ञा पाकर बैल का पवित्र गोबर और मूत्र उन्होंने ग्रहण किया। जल्दी में साधारण आचमन करके वे पौष्य राजा के यहाँ पहुँचे। पौष्य ने ऋषि के आगमन का कारण पूछा। तब उत्तंक ने कहाः “गुरुदक्षिणा में गुरुपत्नी को देने के लिए मैं आपकी रानी के कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।”

राजा ने कहाः “आप स्नातक ब्रह्मचारी हैं। स्वयं ही जाकर रानी से कुण्डल माँग लाइये।” यह सुनकर उत्तंक राजमहल में गये। वहाँ उन्हें रानी नहीं दिखीं, तब राजा के पास आकर बोलेः “महाराज ! क्या आप मुझसे हँसी करते हैं ? रानी तो भीतर नहीं हैं।”

राजा ने कहाः “ब्राह्मण ! रानी भीतर ही हैं। जरूर आपका मुख उच्छिष्ट है। सती स्त्रियाँ उच्छिष्ट मुख पुरुष को दिखाई नहीं देतीं।”

उत्तंक को अपनी गलती मालूम हुई। उन्होंने हाथ पैर धोकर, प्राणायाम करके तीन आचमन किया, तब वे भीतर गये। वहाँ जाते ही रानी दिखायी दीं। उत्तंक का उन्होंने सत्कार किया और आने का कारण पूछा।

उत्तंक ने कहाः “गुरुपत्नी के लिए मैं आपके कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।”

उसे स्नातक ब्रह्मचारी और सत्पात्र समझकर रानी ने अपने कुण्डल उतारकर दे दिये और यह भी कहा कि “बड़ी सावधानी से इन्हें ले जाना। सर्पों का राजा तक्षक इन कुण्डलों की तलाश में सदा घूमा करता है।” उत्तंक रानी को आशीर्वाद देकर कुण्डलों को लेकर चल दिये।

रास्ते में एक नदी पर वे नित्यकर्म कर रहे थे कि इतने में ही तक्षक मनुष्य का वेश बनाकर कुण्डलों को लेकर भागा। उत्तंक ने उसका पीछा किया किंतु वह अपना असली रूप धारण कर पाताल में चला गया। इन्द्र की सहायता से उत्तंक पाताल में चला गया। इन्द्र को अपनी स्तुति से प्रसन्न करके नागों  को जीतकर तक्षक से उन कुण्डलों को ले आये। इन्द्र की ही सहायता से वे अपने निश्चित समय से पहले गुरुपत्नी के पास पहुँच गये। गुरुपत्नी उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोलीं- “मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, तुम्हें सब सिद्धियाँ प्राप्त हों।”

गुरुपत्नी को कुण्डल देकर उत्तंक गुरु के पास गये। समाचार सुनकर गुरु ने कहाः “इन्द्र मेरे मित्र हैं। वह गोबर अमृत था, उसी के कारण तुम पाताल में जा सके। मैं तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम प्रसन्नता से घर जाओ।” इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का आशीर्वाद पाकर उत्तंक अपने घर गये।

परमात्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के श्रीचरणों में जिसकी अनन्य श्रद्धा हो, गुरुवचनों पर पूर्ण विश्वास हो एवं गुरु-आज्ञापालन में दृढ़ता हो उसके लिए जीवन में कौन सा कार्य असम्भव है ! आगे चलकर उत्तंक बड़े ही तपस्वी, ज्ञानी ऋषि हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के अनंतर द्वारका लौटते समय इन्हें अपने महिमामय विराट स्वरूप का दर्शन कराया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 11, 25 अंक 212

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