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भगवान से अपनत्व – स्वामी रामसुखदासजी महाराज


हमने संतों से यह बात सुनी है कि जो भगवान को मान लेता है, उसको अपना स्वरूप जना देने की जिम्मेदारी भगवान पर आ जाती है। कितनी विलक्षण बात है ! ‘भगवान कैसे हैं, कैसे नहीं है’ – इसका ज्ञान उसको खुद को नहीं करना पड़ता। वह तो केवल मान लेता है कि ‘भगवान हैं।’ वे कैसे हैं, कैसे नहीं’ – यह संदेश उसको होता ही नहीं।

पहले केवल भगवान की सत्ता स्वीकार हो जाय कि ‘भगवान हैं’, फिर भगवान में विश्वास हो जाता है। संसार का विश्वास टिकता नहीं क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान है कि वस्तु, व्यक्ति आदि पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और अब भी निरंतर नाश की तरफ जा रहे हैं। परंतु भगवान के विषय में ऐसा नहीं होता क्योंकि भगवान पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे और अब भी हैं। भगवान पर विश्वास हो जाने पर फिर उनमें अपनत्व हो जाता है कि ‘भगवान हमारे हैं’। जीवात्मा भगवान का अंश है – ममैवांशो जीवलोके….. अतः भगवान हमारे हुए। इसलिए आस्तिक भाववालों को यह दृढ़ता से मान लेना चाहिए कि भगवान हैं और हमारे हैं। ऐसी दृढ़ मान्यता होने पर फिर भगवान से मिले बिना रहा नहीं जा सकता। जैसे बालक दुःख पाता है तो उसके मन में यह बात पैदा ही नहीं होती कि ‘मैं योग्य हूँ कि अयोग्य हूँ, पात्र हूँ कि अपात्र हूँ।’

जैसे भगवान पर विश्वास होता है, ऐसे ही भगवान के संबंध पर भी विश्वास होता है कि भगवान हमारे हैं। ‘भगवान कैसे हैं ? मैं कैसा हूँ ?’ यह बात वहाँ नहीं होती। ‘भगवान मेरे हैं, अतः मेरे को अवश्य मिलेंगे’ – ऐसा दृढ़ विश्वास कर ले। यह मेरा पन बड़े-बड़े साधनों के ऊँचा है। त्याग, तपस्या, व्रत, उपवास, तितिक्षा आदि जितने भी साधन हैं, उन सबसे ऊँचा साधन है ‘भगवान में अपनापन’। अपनेपन में कोई विकल्प नहीं होता। करने वाले तो करने के अनुसार फल को प्राप्त करेंगे पर भगवान को अपना मानने वाले मुफ्त में पूर्ण भगवान को प्राप्त करेंगे।

करने वाले जितना-जितना करेंगे, उनको उतना-उतना ही फल मिलेगा परंतु भगवान में अपनापन होने से भगवान पर पूर्ण अधिकार मिलेगा। जैसे बालक माँ पर अपना पूरा अधिकार मानता है कि माँ मेरी है, मैं माँ से चाहे जो काम करा लूँगा, उससे चाहे जो चीज ले लूँगा। बालक के पास बल क्या है ? रो देना – यही बल है। निर्बल से निर्बल आदमी के पास रोना ही बल है। रोने में क्या जोर लगाना पड़े ! बच्चा रोने लग जाय तो माँ को उसका कहना मानना पड़ता है। इसी तरह रोने लग जाय कि ‘भगवान मेरे हैं तो फिर दर्शन क्यों नहीं देते ? मेरे से मिलते क्यों नहीं ?’ भीतर में ऐसी जलन पैदा हो जाय, ऐसी उत्कण्ठा हो जाय कि ‘भगवान मिलते क्यों नहीं ?’ इस जलन में, उत्कण्ठा में इतनी शक्ति है कि अनंत जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं, कोई भी दोष नहीं रहता, निर्दोषता हो जाती है। जो भगवान के लिए व्याकुल हो जाता है, उसकी निर्दोषता स्वतः हो जाती है। व्याकुलता की अग्नि में पाप-ताप जितनी जल्दी नष्ट होते हैं उतनी जल्दी जिज्ञासा में नहीं होते। जिज्ञासा बढ़ते-बढ़ते जब जिज्ञासुरूप हो जाती है अर्थात् जिज्ञासु नहीं रहता केवल जिज्ञासा रह जाती है, तब उसकी सर्वथा निर्दोषता हो जाती है और वह तत्त्व को प्राप्त हो जाता है।

जब तक मैं जिज्ञासु हूँ, यह मैं पन रहता है, तब जिज्ञास्य तत्त्व प्रकट नहीं होता। जब यह मैं पन नहीं रहता, तब जिज्ञास्य तत्त्व प्रकट हो जाता है। चाहे जिज्ञासा हो, चाहे विश्वास हो, दोनों में से कोई एक भी दृढ़ हो जायेगा तो तत्त्व प्रकट हो जायेगा। कर्तव्य का पालन स्वतः हो जायेगा। जिज्ञासु से भी कर्तव्य का पालन होगा और विश्वासी से भी कर्तव्य का पालन होगा। दोनों ही अपने कर्तव्य-कर्म का तत्परता से पालन करेंगे।

विश्वासी मनुष्य कर्तव्य की दृष्टि से कर्तव्य का पालन नहीं करता परंतु भगवान के वियोग में रोता है। रोने में ही उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। उसमें केवल भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा रहती है। केवल भगवान ही भगवान याद रहते हैं। भगवान के सिवाय और कोई चीज सुहाती नहीं।

अब कुछ भी नहीं सुहावे, एक तू ही मन भावे।

दिन में भूख नहीं लगती, रात में नींद नहीं आती, बार-बार की व्याकुलता में बहुत विलक्षण शक्ति है। यह जो भजन-स्मरण करना है, त्याग-तपस्या करना है, तीर्थ उपवास आदि करना है, ये सभी अच्छे हैं परंतु ये धीरे धीरे पापों का नाश करते हैं और व्याकुलता होने पर आग लग जाती है, जिसमें सब पाप भस्म हो जाते हैं, सारी साधनाएँ एक साथ पूरी हो जाती है और साधक साध्य को पाकर जीवन्मुक्त हो जाता है।

साधक को याद रखना चाहिएः

चातक मीन पतंग जब पिया बन नहीं रह पाये।

साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाये ?

विरह की आग लगाओ, जिसमें पाप-ताप, अहंता ममता, तू तेरा, मैं-मेरा सब स्वाहा हो जायें। सबका अधिष्ठान आत्मा-ब्रह्म प्रकाशित हो जाये, ऐसी विरह की आग लगाओ।

हे प्रभु ! ऐसी वेला कब आयेगी… हे प्रभु !….. हे हरि !….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 213

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बड़ों के सम्मान का शुभ फल


कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव पाण्डव दोनों दल युद्ध के लिए एकत्र हो गये थे। सेनाओं ने व्यूह बना लिये थे। वीरों के धनुष चढ़ चुके थे। युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ क्षणों की ही देर जान पड़ती थी। सहसा धर्मराज युधिष्ठिर ने अपना कवच उतारकर रथ में रख दिया। अस्त्र-शस्त्र भी रख दिये और रथ से उतर कर वे पैदल ही कौरव सेना में भीष्म पितामह की ओर चल पड़े।

बड़े भाई को इस प्रकार शस्त्रहीन हो के शत्रु सेना की ओर पैदल जाते देखकर अर्जुन, भीमसेन, नकुल और सहदेव भी अपने रथों से उतर पड़े। वे लोग युधिष्ठिर के पास पहुँचे और उनके पीछे-पीछे चलने लगे। श्रीकृष्णचन्द्र भी पाण्डवों के साथ ही चल रहे थे। भीमसेन, अर्जुन आदि बड़े चिंतित हो रहे थे। वे पूछने लगेः “महाराज ! आप यह क्या कर रहे हैं।

युधिष्ठिर ने किसी को कोई उत्तर नहीं दिया। श्रीकृष्ण जी ने सबको शांत रहने का संकेत करके कहाः “धर्मात्मा युधिष्ठिर सदा धर्म का ही आचरण करते हैं। इस समय भी वे धर्माचरण में ही स्थित हैं।”

उधर कौरव दल में बड़ा कोलाहल मच गया। लोग कह रहे थेः “युधिष्ठिर डरपोक हैं। वे हमारी सेना देखकर डर गये हैं और भीष्म की शरण में आ रहे हैं।” कुछ लोग यह संदेह भी करने लगे की पितामह भीष्म को अपनी ओर कर लेने की यह कोई चाल है सैनिक प्रसन्नतापूर्वक कौरवों की प्रशंसा करने लगे।

युधिष्ठिर सीधे भीष्म पितामह के समीप पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोलेः

“पितामह ! हम लोग आपके साथ युद्ध करने को विवश हो गये हैं। इसके लिए आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें।”

भीष्म बोलेः “भरतश्रेष्ठ ! यदि तुम इस प्रकार आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते तो मैं तुम्हे अवश्य पराजय का शाप दे देता। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम विजय प्राप्त करो। जाओ, युद्ध करो। तुम मुझसे वरदान माँगो। पार्थ ! मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने अपने वश में कर रखा है, इसी से मैं नपुँसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझसे जो चाहो वह माँग लो, युद्ध तो मैं कौरवों के पक्ष से ही करूँगा।”

युधिष्ठिर ने केवल पूछाः “आप अजेय है, फिर आपको हम लोग संग्राम में किस प्रकार जीत सकते हैं ?”

पितामह ने उन्हें दूसरे समय आकर यह बात पूछने को कहा। वहाँ से धर्मराज द्रोणाचार्य के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके उनसे भी युद्ध के लिए अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी वही बातें कहकर आशीर्वाद दिया परंतु जब युधिष्ठिर ने उनसे उनकी पराजय का उपाय पूछा, तब आचार्य ने स्पष्ट बता दियाः “मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई मार नहीं सकता परंतु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनने पर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। उस समय मुझे मारा जा सकता है।”

युधिष्ठिर द्रोणाचार्य को प्रणाम करके कृपाचार्य के पास पहुँचे। प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कृपाचार्य ने भीष्म पितामह के समान ही सब बातें कहकर आशीर्वाद दिया किंतु अपने उन कुलगुरु से युधिष्ठिर उनकी मृत्यु का उपाय पूछ नहीं सके। यह दारूण बात पूछते-पूछते दुःख के मारे वे अचेत हो गये। कृपाचार्य ने उनका तात्पर्य समझ लिया था। वे बोलेः “राजन् ! मैं अवध्य हूँ, किसी के द्वारा भी मैं मारा नहीं जा सकता परंतु मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि नित्य प्रातःकाल भगवान से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करूँगा और युद्ध में तुम्हारी विजय का बाधक नहीं बनूँगा।”

इसके बाद युधिष्ठिर मामा शल्य के पास प्रणाम करने पहुँचे। शल्य ने भी पितामह भीष्म की बातें दुहराकर आशीष दिया, साथ ही उन्होंने यह वचन भी दिया कि युद्ध में अपने निष्ठुर वचनों से कर्ण को हतोत्साहित करते रहेंगे।

गुरुजनों को प्रणाम करके, उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठिर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आये। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के हृदय में उनके लिय ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पाण्डवों की विजय अत्यंत दुष्कर थी।

आज का समस्याओं से भरा जटिल जीवन आम आदमी को किसी संग्राम से कम प्रतीत नहीं होता। यदि इसमें सुख-शांति की सरिता बहानी हो तो सत्संग की इस ज्ञानधारा से, इस ऐतिहासिक प्रसंग से प्रेरणा लेकर हमें भी अपने गुरुजनों का, बड़ों का सम्मान करना सीख लेना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 12,13, अंक 213

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अत्याचारी की कीमत !


जिसके जीवन में धर्म नहीं है, परदुःखकातरता नहीं है, संतों-महापुरुषों का, माता-पिता का, सदगुरु का आदर-सत्कार करने का, उनकी आज्ञा में चलकर मानव-जन्म सफल बनाने का सदगुण नहीं है, सत्संग नहीं है, सत्शास्त्रों का पठन-मनन नहीं है तो उसके जीवन की कोई कीमत नहीं। अमूल्य मानव-जन्म पाकर यदि अपने जन्म-जन्मान्तरों के बंधन काटने वाला सत्संग नहीं सुना, स्वार्थ में, ‘मैं-मेरे’ की भावना में ही अटका रहा, केवल एक शरीर को ही सब कुछ मानकर उसीकी सुख-सुविधा के पीछे जीवन बर्बाद करता रहा तो वह मनुष्य के रूप में पशु माना गया है।

मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।

एक बार तैमूरलंग ने बहुत से गुलाम पकड़े। उन गुलामों को बेचने के लिए वह स्वयं मोल भाव करता था। सौदा तय होने पर बेच देता था। उसके द्वारा पकड़े हुए गुलामों में एक बार तुर्किस्तान के दार्शनिक अहमदी था। उसने उनसे पूछाः “बताइये, पास में खड़े इन दो गुलामों की कीमत क्या होगी ?”

अहमदी ने कहाः “ये समझदार मालूम होते हैं, इनकी कीमत चार हजार अशर्फी से कम नहीं हो सकती।”

तैमूरलंग ने फिर प्रश्न कियाः “अच्छा ! बताइये, मेरी कीमत क्या होगी ?”

कुछ सोचकर अहमदी बोलेः “दो अशर्फी।” तैमूरलंग गुस्से से तमतमा उठा। गरजकर बोलाः “मेरा अपमान ! इतने पैसों की तो केवल मेरी चादर ही है।”

दार्शनिक ने तैमूर के तमतमाते चेहरे को देखकर कहाः “यह कीमत मैंने तुम्हारी चादर देखकर ही बतायी है, तुम्हारे जैसे अत्याचारी की कीमत तो एक छदाम(पुराने पैसे का चौथाई भाग) भी नहीं हो सकती।”

दार्शनिक अहमदी के इन ओजपूर्ण वचनों में उसको कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया और उसने उनको बन्धनमुक्त कर दिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 13, अंक 213

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