गुरुसेवा से मिलता परम अमृत

गुरुसेवा से मिलता परम अमृत


(संत एकनाथ षष्ठीः 13 मार्च 2012)

एकनाथ जी गुरुसेवा से अपने को धन्यभाग समझते थे। जो भक्त नहीं है उन्हें सेवा में बड़ा कष्ट मालूम हो सकता है, पर एकनाथ जैसे गुरुभक्त के लिए वही सेवा परमामृतदायिनी होने से उसी को उन्होंने अपना महद् भाग्य समझा। उन्होंने स्वयं स्वलिखित ʹभागवतʹ में गुरु और गुरु भजन की महिमा गयी है। उन्होंने कहा है कि ʹभवसागर से पार उतरने के लिए मुख्य साधन गुरु-भजन ही है।ʹ और गुरु का लक्षण क्या है ?

एकनाथ महाराज कहते है कि ʹसदगुरु वे ही हैं जो आत्मस्वरूप का बोध कराकर समाधान करा दें।ʹ लौकिक विद्याओं के लौकिक गुरु अनेक हैं पर सदगुरु वे ही ऐसे सदगुरु प्राप्त होते हैं। और ऐसे सदगुरु की सेवा सत्शिष्य कैसे करता है ? एकनाथ महाराज वर्णन करते हैं- ʹगुरु ही माता, पिता, स्वामी और कुलदेवता हैं। गुरु बिना और किसी देवता का स्मरण नहीं होता। शरीर, मन, वाणी और प्राण से गुरु का अनन्य ध्यान हो – यही गुरुभक्ति है। प्यास जल को  भूल जाय, भूख मिष्टान्न भूल जाय और गुरु चरण-सवांहन करते हुए निद्रा भी भूल जाय। मुख में सदगुरु का नाम हो, हृदय में सदगुरु का प्रेम हो, देह में सदगुरु का ही अहर्निश अविश्रान्त कर्म हो। गुरुसेवा में मन ऐसा लगे कि स्त्री, पुत्र, धन भी भूल जाय, यह भी ध्यान न हो कि मैं कौन हूँ।ʹ

गुरु ही भगवान, गुरु ही परब्रह्म और गुरु भजन ही भगवद-भजन है। गुरु और भगवान एक ही हैं, यही नहीं प्रत्युत ʹगुरुवाक्य ही ब्रह्म का प्रमाण है अन्यथा ब्रह्म केवल एक शब्द है।ʹ

गुरुसेवा का मर्म बताते हुए एकनाथ महाराज कहते हैं- ʹगुरु को आसन, भोजन, शयन में कहीं भी न भूले। जिनको गुरु माना उन्हें जाग्रत और स्वप्न के सारे निदिध्यासन में गुरु माना। गुरु स्मरण करते-करते भूख-प्यास का विस्मरण हो जाता है और देह एवं गेह का सुख भी भूल जाता है, उनके बदले सदा परमार्थ ही सम्मुख रहता है।ʹ

सदगुरु के सामर्थ्य और सत्सेवा का सुख कैसा है, इस विषय में एकनाथ महाराज के ये प्रेमभरे उदगार हैं- ʹसदगुरु जहाँ वास करते हैं वहीं सुख की सृष्टि होती है। वे जहाँ रहते हैं वहीं महाबोध स्वानंद से रहता है। उन सदगुरु के चरण-दर्शन होने से उसी क्षण भूख-प्यास भूल जाती है। फिर कोई कल्पना ही नहीं उठती। अपना वास्तविक सुख गुरुचरणों में ही है।”

गुरुसेवा के संबंध में नाथ फिर अपना अनुभव बतलाते हैं- सेवा में ऐसी प्रीति हो गयी कि उससे आधी घड़ी भी अवकाश नहीं मिलता। सेवा में आलस्य तो रह ही नहीं गया क्योंकि इस सेवा से विश्रांति का स्थान ही चला गया। प्यास जल भूल गयी, भूख मिष्टान्न भूल गयी। जम्हाई लेने की भी फुरसत नहीं रह गयी। सेवा में मन ऐसे रम गया कि एका (एकनाथ जी) गुरु जनार्दन स्वामी जी की शरण में लीन हो गया।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 17, अंक 230

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