मृत्यु पीड़ाएँ मंत्रदीक्षित को नहीं सतातीं

मृत्यु पीड़ाएँ मंत्रदीक्षित को नहीं सतातीं


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

भगवान के नाम का आश्रय और भगवान के प्यारे संतों का सत्संग जिनके जीवन में है, वे लोग जितना फायदे में हैं उतना मनमुख लोग नहीं हैं।

रानी एलिजाबेथ टेबल पर भोजन कर रही थी, एकाएक दौरा पड़ा। डॉक्टरों ने कहाः “पाँच मिनट से ज्यादा नहीं जी सकोगी।”

उसने कहाः “मेरा राज्यवैभव सब कुछ ले लो पर मुझे एक घंटा जिंदा रखो, जिससे मैं कुछ कर सकूँ।”

मृत्युवेला आने पर कुछ कर सकें, ऐसा जीवित रखने का डॉक्टरों के वश का नहीं है। वह मर गयी बेचारी।

अमेरिका का एक बड़ा धनाढय व्यक्ति एँड्रयू कार्नेगी डींग हाँकता था कि ʹमौत आयेगी तो मैं उसको बोलूँगा अभी बाहर खड़ी रह ! मैं इतना काम निपटाकर फिर आऊँगा।ʹ लेकिन उस डींग हाँकने वाले की मुसाफिरी करते-करते कार में ही मौत हो गयी। कार में से उसकी लाश निकालनी पड़ी।

सामान्य आदमी मरते हैं तो चार तकलीफें उनके सिर पर होती हैं। मरते समय कोई न कोई पीड़ा होती है। एक तो शरीर की पीड़ा सताती है। पीड़ा पीड़ा में प्राण निकल जाते हैं। चाहे हृदयाघात (हार्ट अटैक) की पीड़ा हो, चाहे बुढ़ापे की हो, चाहे कोई और पीड़ा हो। गुरु साधक को युक्ति सिखाते हैं कि शारीरिक पीड़ा होती है तो शरीर को होती है, तुम्हारे में नहीं घुसनी चाहिए। सदगुरु ज्ञान देते हैं कि शरीर की बीमारी तुम्हारी बीमारी नहीं है, मन का दुःख तुम्हारा दुःख नहीं है। गुरु जी दिव्य ज्ञान पहले से ही देते रहते हैं। तो मरते समय अपने में पीड़ा का आरोप न करने वाले साधक बहुत उन्नत पद को पाते हैं लेकिन मरते समय शरीर की पीड़ा को अपने में जो मानते है वे पीड़ित होकर मरते हैं।

जो कोई पीड़ित होकर मरता है या प्रेत होता है तो उसको मरते समय की पीड़ा सताती रहती है। प्रेत जिस शरीर में जाते हैं वहाँ ऐसे ही काँपते रहते हैं जैसे मरते समय शरीर छोड़कर आये थे। अंते मतिः सा गतिः। तो मरते समय अंत मति सुहानी हो, इसका ध्यान रखते हैं संत-महापुरुष। गुरु चाहते हैं कि मरते समय की पीड़ा मेरे शिष्यों को न सताये।

दूसरा, किसी से आपने बदसलूकी की ही है, किसी के साथ अत्याचार किया है तो मरते समय अंतरात्मा लानतें देता है। किसी को दुःख दिया है तो मरते समय वह कर्म भी पीड़ा देगा। औरंगजेब को मरते समय बहुत पीड़ा हुई क्योंकि उसने सरमद फकीर की और अपने भाई दारा शिकोह की हत्या करवायी थी।

इस प्रकार जो ब़ड़े पाप होते हैं वे मरते समय अंतरात्मा को खूब तपाते हैं व पीड़ा देते हैं।

तीसरा, जीवन भर जिनके साथ हमारा मोह रहा, ममत्व रहा, आसक्ती रही उनके वियोग का कष्ट होता है कि वे हमसे छूट रहे हैं। जहाँ आपका मन अटका है, रूपया पैसा, शादी ब्याह, एफ.डी. (आवधिक जमा) आदि की याद आयेगी। इस देश का नाम अजनाभ खंड था। राजा भरत ने इस देश की सुन्दर व्यवस्था की थो तो भरत के नाम से इसका नाम पड़ गया ʹभारतʹ। भरत ने मरते समय हिरण का चिंतन किया तो मरने के बाद हिरण बना।

चौथी बात होती है कि मरकर कहाँ जाऊँगा ? ये चार मुसीबतें सबके सिर होती हैं लेकिन साधकों के ऊपर नहीं होतीं क्योंकि उनके पास गुरु का दिया आत्मज्ञान, परमात्म-ध्यान और मंत्र है। मंत्रदीक्षा लेने वाले का आत्मबल, बुद्धिबल, मनोबल बढ़ जाता है। गुरुमंत्र के कितने-कितने फायदे हैं उनकी गिनती हम-आप नहीं कर सकते। भगवान शिवजी कहते हैं-

गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धय्न्ति नान्यथा।

दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्धय्नते गुरुपुत्रके।।

गुरुमंत्र जिसके मुख में है उसको आध्यात्मिक आधिदैविक सब फायदे होते हैं। जिसके जीवन में गुरूमंत्र नहीं वह बालिश है, मूर्ख है। शास्त्रों में निगुरे आदमी की ऐसी दुर्दशा कही गयी हैः

सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना…

निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना,

चौरासी में आना जाना।

पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना…..

गुरु बिन माला क्या सटकावे,

मनवा चहुँ दिश फिरता जावे।

यह का बने मेहमान निगुरे नहीं रहना…

हीरा जैसी सुंदर काया,

हरि भजन बिन जनम गँवाया।

कैसे हो कल्याण निगुरे नहीं रहना…..

निगुरा होता हिय का अंधा,

खूब करे संसार का धंधा।

क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना…

सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना।

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सही दिशा के लिए दीक्षा आवश्यक

भगवान शिवजी पार्वती को वामदेव गुरु से दीक्षा दिलाते हैं। शिवजी की बुद्धि की बराबरी कौन कर सका है ? शिवजी की अक्ल से कोई अपनी अक्ल मिला नहीं सकता। इतने महान हैं फिर भी शिवजी ने पार्वती को वामदेव गुरु से दीक्षा दिलायी। कलकत्ते की काली माता प्रकट होकर गदाधर पुजारी से बोलती है कि “तोतापुरी गुरु से दीक्षा ले लो।”

बोलेः मैया तुम प्रकट हो जाती हो तो फिर मुझे दीक्षा लेने की क्या जरूरत ?”

बोलीः “मैं मानसिक भावना से प्रकट होती हूँ। तेरे को मंदिर में दर्शन होते हैं, अर्जुन का तो श्रीकृष्ण के सतत दर्शन होते थे फिर भी अर्जुन को गुरु की जरूरत पड़ी।”

गदाधर पुजारी ने तोतापुरी गुरु से दीक्षा ली। तो जो कृष्ण का आत्मा है, राम का आत्मा है, वही मेरा आत्मा है, ऐसा साक्षात्कार हुआ तब उनका नाम पड़ा रामकृष्ण परमहंस। अगर गदाधर में से रामकृष्ण बने, नरेन्द्र में से विवेकानन्द बने, आसुमल से आशाराम बने तो यह गुरुकृपा है।

नामदेव महाराज के सामने विट्ठल भगवान प्रकट हो जाते थे। उन्होंने कहाः “जाओ, विसोबा खेचर से दीक्षा लो।।”

बोलेः “अब तुम्हारे दर्शन होते हैं फिर भी…..”

“अरे, हम भी आते हैं तो गुरु की शरण में जाते हैं। सांदीपनी गुरू की शरण में गय़े थे कृष्ण रूप में और वसिष्ठ मुनि के चरणों में गये थे भगवान राम के रूप में। तू इनसे बड़ा है क्या  ?”

दीक्षा राग-द्वेष मिटाकर जीव ब्रह्म की एकता करा देती है। अगर गदाधर पुजारी कोक काली माता प्रकट होकर आदेश नहीं देतीं और दीक्षा नहीं लेते तो गदाधर पुजारी रह जाते, रामकृष्ण परमहंस नहीं बन पाते। नामदेव को अगर विट्ठल भगवान प्रकट होकर गुरूदीक्षा लेने की आज्ञा नहीं देते तो नामदेव भावुक भगत रह जाते हैं। इसलिए जीवन को सही दिशा देने के लिए आत्मज्ञान की दीक्षा बहुत आवश्यक है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 16,17

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