संकल्पशक्ति के सदुपयोग का पर्वः रक्षाबन्धन

संकल्पशक्ति के सदुपयोग का पर्वः रक्षाबन्धन


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

हमारी भारतीय संस्कृति त्याग और सेवा की नींव पर खड़ी होकर पर्वरूपी पुष्पों की माला से सुसज्ज है। इस माला का एक पुष्प रक्षाबन्धन का पर्व भी है जो गुरूपूनम के बाद आता है।

यूँ तो रक्षाबन्धन भाई-बहन का त्योहार है। भाई बहन के बीच प्रेमतंतु को निभाने का वचन देने का दिन है, अपने विकारों पर विजय पाने का, विकारों पर प्रतिबंध लगाने का दिन है एवं बहन के लिए अपने भाई के द्वारा संरक्षण पाने का दिन है लेकिन व्यापक अर्थ में आज का दिन शुभ संकल्प करने का दिन है, परमात्मा के सान्निध्य का अनुभव करने का दिन है, ऋषियों को प्रणाम करने का दिन है। भाई हमारी लौकिक सम्पत्ति का रक्षण करते हैं किंतु संतजन व गुरुजन तो हमारे आध्यात्मिक खजाने का संरक्षण करते हैं। उत्तम साधक बाह्य चमत्कारों से प्रभावित होकर नहीं अपितु अपने अंतरात्मा की शांति और आनंद के अनुभव से ही गुरुओं को मानते हैं। साधक को जो आध्यात्मिक संस्कारों का खजाना मिला है वह कहीं बिखर न जाय, काम, क्रोध, लोभ आदि लुटेरे कहीं उसे लूट न लें इसलिए साधक गुरुओं से रक्षा चाहता है। उस रक्षा की याद ताजा करने का दिन है रक्षाबंधन पर्व।

लोकमान्य तिलक जी कहते थे कि मनुष्यमात्र को निराशा की खाई से बचाकर प्रेम, उल्लास और आनंद के महासागर में स्नान कराने वाले जो विविध प्रसंग हैं, वे ही हमारी भारतीय संस्कृति में हमारे हिन्दू पर्व हैं। हे भारतवासियो ! हमारे ऋषियों ने हमारी संस्कृति के अनुरूप जीवन में उल्लास, आनंद, प्रेम, पवित्रता, साहस जैसे सदगुण बढ़ें ऐसे पर्वों का आयोजन किया है। अतएव उन्हें उल्लास से मनाओ और भारतीय संस्कृति के ऋषि-मनीषियों के मार्गदर्शन से जीवनदाता का साक्षात्कार करके अपने जीवन को धन्य बना लो।

तिलक जी ने यह ठीक ही कहा कि अपने राष्ट्र की नींव धर्म और संस्कृति पर यदि न टिकेगी तो देश में सुख, शांति और अमन-चैन होना संभव नहीं है।

तिलकजी एक बार विदेश यात्रा कर रहे थे। वहाँ अकस्मात् उन्हें याद आया कि आज तो रक्षाबंधन है। बहन की अनुपस्थिति को सोचकर वे कुछ चिंतित और दुःखी से हुए लेकिन उपाय के रूप में उन्होंने वहाँ एक भारतीय परिवार को खोज लिया। उनके घर जाकर महिला से निवेदन कियाः “बहन ! आज रक्षाबंधन है। तू मेरी धर्म की बहन बन जा। मुझे शुभ कामनाओं का एक छोटा सा धागा ही बाँध दे, ताकि मुझमें सच्चरित्रता, उत्साह और प्रेम बना रहे।”

वह महिला खुश हो गयी और बोलीः “वाह भैया ! धर्म भाई के रूप में तुम्हें पाकर तुम्हारी यह बहन तो सचमुच धन्य हो गयी !”

वह धागा ले आयी और प्रेम से तिलकजी की कलाई पर बाँध दिया। तिलक जी को उस दिन उस बहन के प्रेमपूर्ण आग्रह ने इतना विवश कर दिया कि वे भोजन किये बिना अपनी बहन के घर से विदा न हो सके।

राखी मँहगी है या सस्ती, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है लेकिन इस धागे के पीछे जितना निर्दोष प्रेम होता है, जितनी अधिक शुद्ध भावना होती है, जितना पवित्र संकल्प होता है, उतनी रक्षा होती है तथा उतना ही लाभ होता है। जो रक्षा की भावनाएँ धागे के साथ जुड़ी होती हैं, वे अवश्य फलदायी होती हैं, रक्षा करती हैं  इसलिए भी इसे रक्षाबंधन कहते होंगे।

राखी का धागा तो 25-50 पैसे का भी हो सकता है किंतु धागे के साथ जो संकल्प किये जाते हैं वे अंतःकरण को तेजस्वी व पावन बनाते हैं। जैसे इन्द्र जब तेजहीन हो गये थे तो शचि ने उनमें प्राणबल मनोबल भरने के भाव का आरोपण कर दिया कि ʹʹजब तक मेरे द्वारा बँधा हुआ धागा आपके हाथ पर रहेगा, आपकी ही विजय होगी, आपकी रक्षा होगी तथा भगवान करेंगे कि आपका बाल तक बाँका न होगा।”

शचि ने इन्द्र को राखी बाँधी तो इन्द्र में प्राणबल का विकास हुआ और इन्द्र ने युद्ध में विजय प्राप्त की। धागा तो छोटा सा होता है लेकिन बाँधने वाले का शुभ संकल्प और बँधवाने वाले का विश्वास काम कर जाता है।

कुंता ने अभिमन्यु को राखी बाँधी और जब तक राखी का धागा अभिमन्यु की कलाई पर बँधा रहा तब तक वह युद्ध में जूझता रहा। पहले धागा, टूटा, बाद में अभिमन्यु मरा। उस धागे के पीछे भी तो कोई बड़ा संकल्प ही काम कर रहा था कि जब तक वह बँधा रहा, अभिमन्यु विजेता बना रहा। लेकिन यहाँ न तो किसी ने कुंता से धागा बँधवाया है, न ही शचि से क्योंकि सूक्ष्म जगत में स्थूलता का मूल्य कम होता है। यहाँ सूक्ष्म संकल्प ही एक-दूसरे की रक्षा करने में पर्याप्त होते हैं।

जो देह में अहंबुद्धि करते हैं, उनको बाह्य धागे की जरूरत पड़ती है लेकिन जो ब्रह्म में, गुरु तत्त्व अथवा आत्मा में अहंबुद्धि करते हैं, उनके लिए धागा तो दिखने भर के लिए है, उनके संकल्प ही एक दूसरे के लिए काफी होते हैं। राखी का यह धागा तो छोटा सा होता है परंतु इस धागे के पीछे-कर्तव्य का संकेत होता है।

ʹभाई छोटी छोटी बातों के कारण आवेश और आवेग का शिकार न हो जाय, सदैव सम रहे, राखी का यह कच्चा धागा भाई में पक्की समझ जगाने का स्मृतिचिह्न बनेʹ – ऐसा मंगल चिंतन करते-करते बहन भाई को राखी बाँधे तथा भाई भी बहन के जीवन में आने वाली व्यावहारिक, सामाजिक एवं मानसिक मुसीबतों को मिटाने के अपने संकल्प की स्मृति ताजी करे, ऐसा पावन दिन रक्षाबंधन है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या आवरण पृष्ठ एवं 27

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