विश्व संस्कृति का उदगम स्थानः भारतवर्ष

विश्व संस्कृति का उदगम स्थानः भारतवर्ष


भारतीय संस्कृति से विश्व की सभी संस्कृतियों का उदगम हुआ है क्योंकि भारत की धरा अनादिकाल से ही संतों-महात्माओं एवं अवतारी महापुरुषों की चरणरज से पावन होती रही है। यहाँ कभी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अवतरित हुए तो कभी लोकनायक श्रीकृष्ण। संत एकनाथ जी, कबीर जी, गुरुनानकजी, स्वामी रामतीर्थ, आद्य शंकराचार्य जी, वल्लभाचार्यजी, रामानंदचार्यजी, भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाहजी महाराज आदि अनेकानेक संत-महापुरुषों की लीलास्थली भी यही भारतभूमि रही है, जहाँ से प्रेम, भाईचारा, सौहार्द, शांति एवं आध्यात्मकिता की सुमधुर सुवासित वायु का प्रवाह सम्पूर्ण विश्व में फैलता रहा है।

पूज्य बापूजी कहते हैं- “भारतीय संस्कृति ने समाज को ऐसी दिव्य दृष्टि दी है, जिससे आदमी का सर्वांगीण विकास हो। मनुष्य कार्य तो करे लेकिन कार्य करते-करते कार्य का फल पशु की तरह भोगकर जड़ता की तरफ न चला जाय, इसका भी ऋषियों ने खूब ख्याल किया है।”

जर्मनी के प्रख्यात विद्वान मैक्समूलर भारतीय संस्कृति को समझने के बाद इस संस्कृति के प्रशंसक बन गये। सन् 1858 में महारानी विक्टोरिया से उन्होंने कहा थाः “यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देश में मानव-मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा।

यदि कोई पूछे कि किस राष्ट्र के साहित्य का आश्रय लेकर सैमेटिक यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते यूरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे, जो इहलोक से ही सम्बद्ध न हो अपितु शाश्वत एवं दिव्य भी हो, तो फिर मैं भारतवर्ष की ओर इशारा करूँगा।”

फ्राँस के महान तत्त्वचिंतक वोल्तेयर ने गहन अध्ययन के बाद लिखा हैः ʹमुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि हमारे पास जो भी ज्ञान है, चाहे अवकाश-विज्ञान या ज्योतिष-विज्ञान या पुनर्जन्म-विषयक ज्ञान आदि, वह हमें गंगा-तट (भारत) से ही प्राप्त हुआ है।ʹ

अपनी ज्ञान-पिपासा को परितृप्त करने भारत ये लॉर्ड वेलिंग्टन ने लिखा हैः ʹसमस्त भारतीय चाहे राजकुमार हो या झोंपड़ों में रहने वाले गरीब, वे संसार के सर्वोत्तम शीलसम्पन्न लोग हैं, मानो यह उनका नैसर्गिक धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्य दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।ʹ

भारतीय सस्कृति के प्रति विदेशी विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं है। विश्व में ज्ञान-विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियाँ दिखाई पड़ रही हैं, उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान भारत का ही रहा है। इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं।

ऐसा उल्लेख है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और निकटवर्ती अन्य द्वीपों में जाकर बस गये थे। चौथी शताब्दी के पूर्व ही अपनी विशिष्टता के कारण यह संस्कृति उन देशों की दिशा-धारा बन गयी। जावा के बोरोबुदुर स्तूप और कम्बोडिआ के शैव मंदिर, राज्यों की सामूहिक शक्ति के प्रतीक-प्रतिनिधि थे। राजतंत्र इन धर्म-संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है।

पश्चिमी विचारकों ने भी भारत के तत्त्वज्ञान का प्रसाद लेकर महानता की चोटियों को छूने में सफलता प्रदान की है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ लेथब्रिज ने कहा हैः “पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के आदिगुरु भारतीय ऋषि हैं, इसमें सन्देह नहीं।”

गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित थे। सर मोनियर विलियम्स कहते हैं- “यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पाइथागोरस दोनों ने दर्शनशास्त्र का ज्ञान भारतीय गुरुओं से प्राप्त किया था।”

ʹयह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में लेने लायक है कि 2500 साल पूर्व समोस से गंगा-तट पाइथागोरस ज्यामिती सीखने के लिए गये थे और यदि उस समय से पूर्वकाल से यूरोप में ब्राह्मणों की विद्या की महिमा फैली नहीं होती तो वह इतनी कठिन यात्रा नहीं करता।ʹ (वोल्तेयर के दिनांक 15-12-1775 के पत्र से उद्धृत)

वास्तव में जो आज के विद्यार्थी पाइथागोरस के प्रमेय के नाम से सीखते हैं, वह महर्षि बोधायन लिखित ग्रंथ ʹबोधायन श्रौतसूत्रʹ के अंतगर्त शुल्ब सूत्रों में से एक है।

गेटे ने महाकवि कालिदास जी द्वारा रचित ʹअभिज्ञानशाकुन्तलम्ʹ नाटक से प्रेरणा पाकर ʹफॉस्टʹ नाटक की रचना की। दार्शनिक फिटके तथा हेगल, वेदांत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद पर रचनाएँ प्रस्तुत कर पाये। अमेरिकी विचारक थोरो तथा इमर्सन ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार अपनी भाषा में किया।

गणित विद्या का आविष्कारक भारत ही रहा। शून्य तथा संख्याओं को लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंकों को भिन्न-भिन्न चिह्नों से व्यक्त किया जाता था। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल, घनमूल जैसी गणितीय विधाओं का आविष्कार किया, जो आज पूरे विश्व में प्रचलित हैं।

विश्व के महान भौतिक वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाईन ने कहा हैः “हम भारतीयों के अत्यन्त ऋणी हैं कि उन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना कोई भी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज नहीं की जा सकती।”

अरब निवासी अंकों को हिंदसा कहते थे क्योंकि उऩ्होंने अंक विद्या भारत से अपनायी थी। इनसे फिर पश्चिमी विद्वानों ने सीखी। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह खोजा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इसी देश की देन है। जर्मनी के कुछ विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। उनमें वर्णित कितनी ही गुह्य विधाओं पर वहाँ के वैज्ञानिक खोज में लगे हुए हैं। भारत की महिमा सुनकर चीन के विद्वान फाह्यान, ह्युएनसांग, इत्सिंग आदि भारतभूमि के दर्शन-स्पर्श के लिए यहाँ आये और वर्षों तक ज्ञान अर्जित करते रहे।

कम्बोडिया तीसरे से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य था। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ऋषि कौण्डिय के नाम पर पड़ा। इंडोनेशिया वर्तमान में तो मुस्लिम देश है किंतु भारतीय संस्कृति की गहरी छाप यहाँ मौजूद है। ʹइंडोनेशियाʹ युनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ʹभारतीय द्वीपʹ।

जावा के लोगों का विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा वेदव्यास ऋषियों ने वहाँ विकसित सभ्य बस्तियाँ बसायी थीं। सुमात्रा द्वीप में हिन्दू राज्य की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई थी। यहाँ पाली एवं संस्कृत भाषा पढ़ायी जाती थी।

बोर्नियो में हिन्दू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गयी थी। यहाँ भगवान शिव, गणेष जी, ब्रह्माजी तथा अगस्त्य आदि ऋषियों व देवी देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई। कितने ही पुरातन हिन्दू  मंदिर आज भी यहाँ मौजूद हैं।

इतिहासकारों के अनुसार थाइलैंड का पुराना नाम ʹश्याम देशʹ था। यहाँ की सभ्यता भारत की संस्कृति से मेल खाती है। दशहरा, अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह यहाँ भी उत्सव मनाये जाते हैं। थाई रामायण का नाम ʹरामकियेनʹ है, जिसका अर्थ है ʹरामकीर्तिʹ।

ऐसे अनगिनत प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो यही बताते हैं कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के सागर से विश्व-वसुन्धरा को अभिसिंचित करता रहा है, अब  भी कर रहा है और आगे भी करता रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 236

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