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सत्साहित्य जीवन का आधार है


जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं, वैसे ही विचार मन के भीतर चलते रहते हैं और उन्हीं से हमारा सारा व्यवहार प्रभावित होता है। जो लोग कुत्सित, विकारी और कामोत्तेजक साहित्य पढ़ते हैं, वे कभी ऊपर नहीं उठ सकते। उनका मन सदैव काम विषय के चिंतन में ही उलझा रहता है और इससे वे अपनी वीर्यरक्षा करने में असमर्थ रहते हैं।

गंदे साहित्य कामुकता का भाव पैदा करते हैं। सुना गया है कि पाश्चात्य जगत से प्रभावित कुछ नराधम चोरी छिपे गंदी फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं, जिससे वे अपना और अपने सम्पर्क में आने वालों का विनाश करते हैं। ऐसे लोग महिलाओं, कोमल वय की कन्याओं तथा किशोर एवं युवावस्था में पहुँचे हुए बच्चों के साथ बड़ा अन्याय करते हैं। ʹब्ल्यू फिल्मʹ देखने-दिखाने वाले महाअधम, कामांध लोग मरने के बाद कूकर, शूकर, खरगोश, बकरा आदि दुःखद योनियों में भटकते हैं। निर्दोष कोमल वय के नवयुवक उन दुष्टों के शिकार न बनें, इसके लिए सरकार और समाज को सावधान रहना चाहिए।

बालक देश की सम्पत्ति हैं। ब्रह्मचर्य के नाश से उनका विनाश हो जाता है। अतः नवयुवकों को मादक द्रव्यों, गंदे साहित्यों व गंदी फिल्मों के द्वारा बरबाद होने से बचाया जाय। वे ही तो राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं। युवक-युवतियाँ तेजस्वी हों, ब्रह्मचर्य की महिमा समझें। स्कूलों कॉलेजों में विद्यार्थियों तक संयम पर लिखा गया साहित्य पहुँचायें। पुण्यात्मा, परोपकारी, बुद्धिमान यह दैवी कार्य करते हैं, और लोग भी उनके सहयोगी बनें।

ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाशʹ पुस्तक से कोई एक परिवार पतन की खाई से बचा तो यह पुण्य-कार्य देश के, परिवार के लिए तो हितकारी है लेकिन जिन्होंने किया उनका भी तो भगवान मंगल ही करेंगे।

कर भला सो हो भला।

सरकार का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह संयम विषय पर शिक्षा प्रदान कर विद्यार्थियों को सावधान करे ताकि वे तेजस्वी बनें।

जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके जीवन पर दृष्टिपात करो तो उन पर किसी न किसी सत्साहित्य की छाप मिलेगी। अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक इमर्सन के शिष्य थोरो ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उन्होंने लिखा हैः ʹʹमैं प्रतिदिन गीता के पवित्र जल से स्नान करता हूँ। यद्यपि इस पुस्तक को लिखने वाले देवता को अनेक वर्ष व्यतीत हो गये लेकिन इसके बराबर की कोई पुस्तक अभी तक नहीं निकली है।”

योगेश्वरी माता गीता के लिए दूसरे एक विदेशी विद्वान, इंग्लैंड के एफ.एच.मोलेम कहते हैं- “बाइबिल का मैंने यथार्थ अभ्यास किया है। जो ज्ञान गीता में है, वह ईसाई या यहूदी बाइबिलों में नहीं है। मैं ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतना आदर मान इसलिए रखता हूँ कि जिन गूढ़ प्रश्नों का हल पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक नहीं कर पाये, उनका हल इस गीता ग्रँथ ने शुद्ध और सरल रीति से दे दिया है। गीता में कितने ही सूत्र अलौकिक उपदेशों से भरपूर देखे, इसी कारण गीता जी मेरे लिए साक्षात् योगेश्वरी माता बन गयी हैं। विश्व भर के सारे धन से भी न मिल सके, भारतवर्ष का यह ऐसा अमूल्य खजाना है।”

सुप्रसिद्ध पत्रकार पॉल ब्रंटन सनातन धर्म की ऐसी धार्मिक पुस्तकें पढ़कर जब प्रभावित हुआ तो वह हिन्दुस्तान आया और यहाँ के रमण महर्षि जैसे महात्माओं के दर्शन करके धन्य हुआ। देशभक्तिपूर्ण साहित्य पढ़कर ही चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, वीर सावरकर जैसे रत्न अपने जीवन को देशहित में लगा पाये।

इसलिए सत्साहित्य की तो जितनी महिमा गायी जाय उतनी कम है। श्री योगवासिष्ठ महारामायण, श्रीमदभगवदगीता, श्रीमदभागवत, रामायण, महाभारत, उपनिषद, दासबोध, सुखमनी साहिब, विवेकचूड़ामणि, स्वामी रामतीर्थ के प्रवचन, जीवन रसायन, दिव्य प्रेरणा-प्रकाश आदि भारतीय संस्कृति की ऐसी कई पुस्तकें हैं, जिन्हें पढ़ो और अपने दैनिक जीवन का अंग बना लो। ऐसी वैसी विकारी और कुत्सित पुस्तक-पुस्तिकाएँ हों तो उन्हें उठाकर कचरे के ढेर पर फेंक दो या चूल्हे में डालकर आग तापो, मगर न तो स्वयं पढ़ो और न दूसरों के हाथ लगने दो।

आध्यात्मिक साहित्य सेवन में संयम, स्वास्थ्य मजबूत करने की अथाह शक्ति होती है। संयम, स्वास्थ्य, साहस और आत्मा-परमात्मा का आनंद व सामर्थ्य अपने जीवन में जगाओ। कब तक दीन-हीन होकर लाचार-मोहताज जीवन की ओर घसीटे जाओगे भैया ! प्रातःकाल स्नानादि के पश्चात दैनंदिन कार्यों में लगने से पूर्व एवं रात्रि को सोने से पूर्व कोई-न-कोई आध्यात्मिक पुस्तक पढ़नी चाहिए। इससे वे ही सत्त्वगुणी विचार मन में घूमते रहेंगे जो पुस्तक में होंगे और हमारा मन विकारग्रस्त होने से बचा रहेगा।

कौपीन (लँगोटी) पहनने का भी आग्रह रखो। इससे अंडकोष स्वस्थ रहेंगे और वीर्यरक्षण में मदद मिलेगी। वासना को भड़काने वाले नग्न व अश्लील पोस्टरों एवं चित्रों को देखने का आकर्षण छोड़ो। अश्लील शायरी और गाने भी जहाँ गाये जाते हों, वहाँ न रूको।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ट संख्या 23,24, अंक 232

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परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमय अमृतवाणी)

ʹभागवतʹ के 11वे स्कन्ध में उद्धव ने बड़े ऊँचे प्रश्न पूछे हैं और भगवान श्रीकृष्ण ने खूब उन्नति करने वाले परम ऊँचे व सार-सार उत्तर दिये हैं।

उद्धव जी ने कहाः “हे मधुसूदन ! आपकी मधुमय वाणी सुनने से मेरी शंकाएँ निवृत्त होती हैं। आप सूझबूझ के धनी हैं। हे भगवान श्रीकृष्ण ! आपको मैं नमस्कार करता हूँ। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि परम दान क्या है ? धन का दान, वस्त्र का दान, भूमि का दान, कन्यादान, सुवर्णदान, गोदान, गो-रसदान – ये सब ठीक हैं लेकिन सबसे बड़ा दान क्या है ?”

भगवान श्रीकृष्ण बोलेः “बड़े-में-बड़े जो परमात्मा हैं, उनके ज्ञान का दान और उनका ज्ञान होने से किसी को भी दंड न देना…. अभयदान ! अभयदान सबसे बड़ा दान है। ʹगीताʹ में भी मैंने कहा है…. अभयं सत्त्वसंशुद्धिः….. (गीताः……16.1)

सत्संग में अभयदान मिलता है।”

उद्धवजी ने पूछाः “प्रभु ! तपस्या किसको बोलते हैं ?”

भगवान बोलेः “शरीर से किसी को कष्ट न देना, तीर्थयात्रा करना, ठंडी-गर्मी सहना – यह शारीरिक तप है। सत्य बोलना, बुरा न सोचना – यह मानसिक तप है। राग और द्वेष से बचना – यह बौद्धिक तप है, परन्तु उद्धव ! इन सभी तपों से एकाग्रता बड़ा तप है। एकाग्रता से भी भोगों की वासना त्यागना परम तप है। ʹमुझे यह मिल जाय तो मैं सुखी हो जाऊँ, मैं यह पाऊँ तो सुखी हो जाऊँ, इधर जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ…ʹ इस बेवकूफी का त्याग करना बड़ी तपस्या है। ʹमैं जहाँ हूँ, भगवान का हूँ। सुख तो मेरा आत्मा है, भगवत्स्वरूप है।ʹ भोगों की इच्छा का त्याग करना परम तप है।”

उद्धवजी पूछते हैं- “प्रभु ! शूरवीर किसको बोलते हैं ?”

दंगल-कुश्ती में किसी को पछाड़ दिया, किसी को मार डाला सीमा पर या कुछ और कर लिया तो वे तो हथियार के शूरवीर हैं, मिथ्या जगत के शूरवीर हैं।

श्रीकृष्ण बोलेः “उद्धव ! जो अपने गलत स्वभाव को बदलने में लग जाता है, बुरी आदतों को अपने से उखाड़कर फेंकने में लग जाता है, वही सचमुच में शूरवीर है।”

जरा-जरा बात में डर लगता हो तो ʹૐ ૐ ૐ….. डर मन में आया है, मैं तो निर्भय हूँʹ ऐसा चिंतन करो। जरा जरा सी बात में गुस्सा आय तो हाथों की उँगलियों के नाखूनों से हथिलियों की गद्दी पर दबाव पड़े ऐसे मुठ्ठियाँ बन्द कर लो और ʹૐ शांति… ૐ शांति….ʹ जपो। इस प्रकार गुस्से को रोको या बदलो। चिंता आयी तो सोचो।

ʹप्रारब्ध पहले रच्यो, पीछे भयो शरीर।

तुलसी चिंता क्या करे, भज ले श्री रघुवीर।।

ૐ ૐ प्रभु जी !…… चिंता आयी है….. राम राम राम….. ૐ ૐ….. हा… हा…. हा….ʹ (हास्य प्रयोग करो)। चिन्ता तो दुःख दे रही थी लेकिन स्वभाव बदल दिया। यह शूरवीरता है।

माँ ने कुछ सुना दिया, बाप ने कुछ सुना दिया या गुरु ने कुछ सुना दिया। लगा कि इतने आदमियों के बीच हमारा अपमान हो गया। अरे, यह धक्का लगता है अहं को। सोचो, ʹमाँ ने, पिता ने, गुरु ने जब कहा है तो यह हमारे अहं को कहा है, हमारी भलाई के लिए कहा हैʹ ऐसा करके अपने स्वभाव को बदलें – यह शूरवीरता है। यह ज्ञान आपको सारी जिंदगी में कहीं नहीं मिलेगा।

शबरी भीलन थी। एक तो भील जाति….. ऐसे ही बेचारे काले-काले होते हैं। दूसरे फिर शबर….. और कुरूप ! लेकिन शबरी मतंग ऋषि के चरणों में गयी तो इतनी महान बन गयी थी कि रावण को रामजी ने तीरों का निशाना बनाया परंतु शबरी की झोंपड़ी में राम जी स्वयं गये। शबरी के जूठे बेर खाकर राम जी बखान करते हैं। गुरु के सत्संग से शबरी ने अपना स्वभाव बदल लिया। सामान्य लड़कियाँ तो डरकर कामी, क्रोधी, लोभी, मोहियों के चक्कर में आती थीं किंतु शबरी इन चक्करों में पड़ने के स्वभाव से पार हो गयी। कितनी महान हो गयी ! स्वभावविजयः शौर्यम्।

जो अपने कई जन्मों का और अभी सामाजिक स्वभाव है दुःखी होने का, सुखी होने का , झूठ कपट का…. उस पर विजय पाना यह बड़ा शूरवीरता है।

उद्धवजी ने पूछा “प्रभु ! सत्यवादी किसको बोलते हैं ?”

श्रीकृष्ण बोलेः “सभी में सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्मा है, इसकी अनुभूति करने वाला ही वास्तव में सत्यवादी है। वही सत्य बोलता है। बाकी सब लोग कितना भी सत्य बोलें तो भी मिथ्या ही बोलते हैं।

किसी ने कहाः “मैंने आज दो पराँठे खाये”

सचमुच उसने दो पराँठे खाये तो लगेगा सत्य है। नहीं-नहीं, न पराँठा सत्य है, न खाना सत्य है, उसको जानने वाला परमात्मा सत्य है। बाकी सब कल्पना है। तुम सत्य, समत्व में टिको तो ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, काल्पनिक सत्य है, सामाजिक सत्य है, व्यवहारिक सत्य है, पारमार्थिक सत्य नहीं है। सत्-चित्-आनन्द में स्थिति ही सत्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 232

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नजरें बदलीं तो नजारे बदले…..


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

सपने से जगाने के लिए भगवान ने सुंदर व्यवस्था की है। अनुकूलता आती है तो आपका उल्लास, उत्साह बढ़ाती है। प्रतिकूलता आती है तो आपका विवेक जगाती है। अनुकूलता आकर आपको उदार बनाती है, परदुःखकातरता का सदगुण जगाती है। प्रतिकूलता आकर आपको विवेक-वैराग्यवान बनाती है।

अनुकूलता में जो आसक्त होता है वह अनुकूलता में फँसता है और प्रतिकूलता में जो उद्विग्न होता है वह प्रतिकूलता में फँसता है। भगवान ने अनुकूलता और प्रतिकूलता ये सभी के जीवन में दे रखी हैं। यह मंगलमय विधान किसी व्यक्ति या जाति के लिए नहीं, सभी के लिए है। पृथ्वी पर एक भी प्राणी नहीं मिलेगा जिसे सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ न आयी हों।

विधान मंगलमय परमात्मा का है। मंगलमय प्यारे ऐसा विधान नहीं करते जिससे किसी को हानि हो। उनका विधान हानि के लिए नहीं, लाभ के लिए ही होता है। सभी के हित के लिए ही होता है परम हितैषी का विधान। ʹगीताʹ में आता हैः

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

ʹदुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।ʹ (गीताः 2.56)

भगवान कहते हैं दुःखों में मन उद्वेगरहित हो। सुख में स्पृहा नहीं, आसक्ति नहीं हो। उद्विग्न मत हो, दुःखद परिस्थिति आपको विवेकी बनाने के लिए, वैराग्यवान बनाने के लिए, संयमी बनाने के लिए आयी है। सुख में तो व्यक्ति आसक्त होकर फँस सकता है लेकिन दुःख में आसक्ति नहीं होती। दुःख आये तो परम सौभाग्य मानकर उसका स्वागत करना चाहिए कि ʹचलो, विवेक जगाने का समय आया है। पाप नष्ट कराने के लिए दुःख आया है। अपने वालों की परीक्षा के लिए भी दुःख आया है। खुशामदखोरों की पोल खोलने के लिए भी दुःख आया है। चापलूसी करके उल्लू बनाने वालों से बचाने के लिए भगवान ने दुःख दे दिया है। वाह ! वाह !! दुःख तो व्यक्ति को सजाग होने के लिए है। दुःख में तो विवेक जगता है, वैराग्य जगता है, सूझबूझ जगती है, सजगता जगती है और सुख में विवेक सोता है, वैराग्य सोता है तो आदमी भोगी हो जाता है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि जो फँसाने वाला सुख है उसको पाकर, फँसाने वाली परिस्थिति को पाकर व्यक्ति अपने को भाग्यशाली मानते हैं और फँसान से निकालने वाली परिस्थितियाँ पाकर व्यक्ति अपने को अभागा मानते हैं। अभागा तो वह व्यक्ति है कि जिसके जीवन में प्रतिकूलता नहीं आयी। अभागा तो वह व्यक्ति है कि जिसके जीवन में असुविधा नहीं आयी, सत्संग नहीं आया, सदगुरू का ज्ञान नहीं आया, सजगता नहीं आयी।

प्रतिकूलता आयी तो यह दुर्भाग्य नहीं मानना चाहिए। अनुकूलता के भोगी बने तो फँसने का खतरा है, सावधान !

श्रीकृष्ण कहते हैं कि अनुकूलता में आसक्ति मत करो कि ऐसी परिस्थिति बनी रहे, मान मिलता रहे। आहाहा….. ! यह सब ऐसा बना रहे, और भी बढ़िया-बढ़िया मिलता रहे। अरे, मिल गये तो मिल गये, चले गये तो चले गये, तुम इनसे ऊपर हो। इनको महत्त्व देकर तुम इनकी महिमा बढ़ाते हो। ʹयह मिठाई बहुत बढ़िया है…ʹ – तुम अपनी मिठास डालते हो, अपनी मधुरता डालते हो तभी मधुर लगती है। ʹयह चीज बहुत बढ़िया है…ʹ – तुम अपना बड़प्पन डालते हो तब बढ़िया लगती है। तुम ऐसे चैतन्य वपु (चिन्मय शरीर) हो कि जिसके प्रति प्रीति से देखते हो वह प्रेमास्पद हो जाता है। जिसके प्रति रसमय दृष्टि से देखते हो वह रसमय हो जाता है, जिसके प्रति अपनत्व की नजर से देखते हो वह अपना हो जाता है। तुम ऐसे सजग, सज्जन चैतन्य हो। खामखाह इन वस्तुओं को महत्त्व देकर दीनता-हीनता की जंजीरों में अपने को बाँध रहे हो।

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

दुःख में मन को उद्विग्न मत होने दो और सुख में लम्पुटता को छोड़ दो तो सुख भी साधन हो जायेगा, दुःख भी साधन हो जायेगा और आप साध्य को पा लेंगे।

सुख सपना दुःख बुलबुला, दोनों हैं मेहमान।

दोनों बीतन दीजिये, आत्मा को पहचान।।

अपने आपको पहचानो। सुख  सपना व दुःख बुलबुला है, दोनों मेहमान हैं। जो सुखाकार दुःखाकार वृत्ति है वह चित्त में पैदा होती है। सुखद-दुःखद परिस्थितियों के पास समय नहीं कि आपको सुखी-दुःखी करने के लिए ठहरें। सभी परिस्थितियाँ आ-आकर चली जाती हैं लेकिन हम मूढ़ता से परिस्थितियों को अपने में आरोपित कर लेते हैं। प्रारब्ध से, ईश्वर की व्यवस्था से, ऋतु-मौसम के अनुसार सुख-दुःख, ठंडी-गर्मी आती है लेकिन ʹमैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँʹ – यह मूढ़ता करें अथवा तो सजाग हो जायें कि ʹमैं इनको देखने वाला हूँ, मैं साक्षी हूँʹ यह अपने हाथ की बात है।

हम हैं अपने-आप, हर परिस्थिति के बाप !

स्वभाव में जग गे तो अनुकूलता भी साधन, प्रतिकूलता भी साधन ! अनुकूलता आये तो चिपके नहीं रहना और प्रतिकूलता आये तो भागना नहीं। प्रतिकूलता आयेगी और जायेगी, अनुकूलता आयेगी और जायेगी पर मेरा अंतरात्मा राम रहेगा, रहेगा और रहेगा। बाल्यकाल आया और चला गया, बाल्यकाल के  बहुत सपने आये और गये, बहुत सुख-दुःख आये और गये, जवानी के बहुत सपने और पुरानी कल्पनाएँ आयीं और चली गयीं पर उनको जानने वाला गया नहीं। वह मेरा प्यारा मेरे साथ है। वह नित्य चैतन्य वपु है, ज्ञानस्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है। वह सुख और दुःख को हमें देकर अपनी तरफ मोड़ता है। तो भक्त की नजर दु-ख पर नहीं, दुःख-सुख की व्यवस्था कर-करके दुःख-सुख से पार करने वाले प्रभु पर होती है। इसीलिए भक्त दुःख में भी मस्त रहता है, सुख में भी मस्त रहता है। हानि में भी मस्त रहता है, लाभ में भी मस्त रहता है। यश में भी मस्त रहता है, अपयश में भी मस्त रहता है क्योंकि उसकी नजर परम मस्तस्वरूप परमात्मा पर है।

नजरें बदलीं तो नजारे बदले।

किश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदले।।

ऊँची नजर सत्संग से मिलती है, फिर भक्त को लगता है कि ʹवाह प्रभु ! हमें अपनी तरफ आकृष्ट करने के लिए आपकी यह सारी व्यवस्था है।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 232

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