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परहित में छुपा स्वहित


(पूज्य बापू जी की परम हितकारी अमृतवाणी)

आपके जीवन में देखो कि आप बहू हो तो सासु के काम आती हो कि नहीं ? देरानी हो तो जेठानी के और जेठानी हो तो देरानी के काम आती हो ? पड़ोसी हो तो पड़ोस के काम आती हो ? आप ईश्वर के काम आते हो ? समाज में किसी के काम आते हो ? आपके द्वारा किसी का मंगल होता है कि नहीं होता ? रोज देखो कि आप किसके-किसके काम आये और किसका-किसका मंगल हुआ ? जितना-जितना आप दूसरे के काम आयेंगे, दूसरे के मंगल में आप हाथ बँटायेंगे उतना ही घूम-फिर के आपका मंगल होगा। सब स्वस्थ रहेंगे और सब ठीक खायेंगे तो आपको भी तो खाना मिलेगा। सब प्रसन्न रहेंगे तो आपको भी तो प्रसन्नता मिलेगी। ʹसब भाड़ में जायें और मैं…मैं…. मैं….ʹ तो फिर मैं…. मैं… बैं…. बैं…. बकरा, भेड़ बनना पड़ेगा।

अपने दुःख में रोने वाले ! मुस्कराना सीख ले।

दूसरों के दुःख-दर्द में, तू काम आना सीख ले।।

आप खाने में मजा नहीं, जो औरों को खिलाने में है।

जिंदगी है चार दिन की, तू किसी के काम आना सीख ले।।

अर्जुन में और दुर्योधन में क्या फर्क है ? अर्जुन कहता है कि मैं जिनके लिए युद्ध करूँगा वे लोग तो सामने के पक्ष में और मेरे पक्ष में मरने-मारने को तैयार है। वे अगर मर जायेंगे तो मुझे राज्य-सुख क्या मिलेगा ! मुझे ऐसा युद्ध नहीं करना। दूसरों का रक्त बहे और रक्त बहाने वाले चले जायें तो मैं राज्य का क्या करूँगा ! मुझे नहीं करना युद्ध !

और दुर्योधन क्या बोलता है ? दुर्योधन का दृष्टिकोण बिना विवेक का है और अर्जुन का दृष्टिकोण विवेकपूर्ण है। दुर्योधन बिना विवेक के आज्ञा देता है। उसका उद्देश्य स्वार्थ-साधन है।

दुर्योधन बोलता हैः मदर्थे त्यक्तजीविताः… (गीताः1.9) मेरे लिए ये जान कुर्बान करने को तैयार हैं। यो तो मर जायेंगे लेकिन मुझे राज्य मिलेगा। दुर्योधन की नजर स्वार्थी है। स्वार्थी नजरिये वाला अशांत रहता है, दुःखी रहता है और उसकी बुद्धि मारी जाती है।

अर्जुन क्या बोलता है ? अर्जुन की दृष्टि लोकहित की है।

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।

त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।

ʹहमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।ʹ (गीताः 1.33)

जिनके लिए मैं युद्ध करना चाहता हूँ वे ही युद्ध के लिए खड़े हैं तो मैं युद्ध क्यों करूँ ? अर्जुन की चेष्टा में सबका भला छुपा है और सबकी भलाई में युद्ध होता है तो उसमें युधिष्ठिर की जीत भी होती है, उनको राज्य भी मिलता है। श्रीकृष्ण के ज्ञान की महिमा भी होती है। लोकहित भी होता है और दुष्टों का दमन भी होता है और सज्जनों की सेवा भी होती है। अर्जुन का युद्ध बहुतों का मंगल लेकर चलता है और दुर्योधन का युद्ध अपना स्वार्थ, वासना, अहं पोसने को लेकर चलता है।

आपका जीवन दिव्य कब होता है ? आपका जो संकल्प है, जो कर्म है वह बहुतों का हित लेकर चले। आपकी बुद्धि परिवारवालों के हित में है  तो आपका बोलना उनका दुःख दूर करने वाला तो है न ? आपका हिलना-डुलना-चलना औरों के लिए हितकारी है, मंगलकारी है कि दूसरों की आँख में चुभने वाला है ? ऐसे कपड़े न पहनो कि जो किसी की आँख में चुभें और उसको जलन हो। ऐसे बोल न बोलो कि अंधे की औलाद अंधी। इन द्रोपदी के दो कटु वचनों ने दुर्योधन को वैरी बना दिया, महाभारत का युद्ध हुआ और लाखों-लाखों लोगों की जान ले ली।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।

कागा काको धन हरै, कोयल काको देत।

मीठा शब्द सुनाय के, जग अपना करि लेत।।

अर्जुन सबका भला चाहते हैं तो अर्जुन का बुरा होगा क्या ? मैं सबका भला चाहता हूँ तो सब मेरा भला नहीं चाहते हैं क्या ? मैं सबको स्नेह करता हूँ तो सब मेरे लिए पलकें बिछा के नहीं बैठते हैं क्या ? यह भगवत्प्रसादजा बुद्धि नहीं तो और क्या है ? अगर मैं स्वार्थपूर्ण हृदय से आऊँ तो इतने लोग घंटों भर बैठ नहीं सकते और बैठे तो अहोभाव नहीं रख सकते।

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

दूसरे के हित में आपका हित छुपा है क्योंकि दूसरे की गहराई में आपका परमेश्वर है वही का वही !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 231

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हनुमान जी की सेवानिष्ठा


हनुमान जयंतीः 

(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

सेवा क्या है ? जिससे किसी का आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक हित हो वह सेवा है। सेवक को जो फल मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों, जती-जोगियों को भी नहीं मिलता। सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवा न करे। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है, सच्चे सेवक के आगे-पीछे सारे पद घूमते हैं।

कोई कहे कि ʹमैं बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हूँʹ तो यह बिल्कुल झूठी बात है। सेवा में जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर जगत का मोही हो जाता है लेकिन जो सेवा में अपना अहं मिटाकर दूसरे की भलाई तथा तन से, मन से, विचारों से दूसरे का मंगल चाहता है और मान मिले चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की जन्मतिथि सर्वत्र मानी जाती है। चैत्री पूर्णिमा हनुमान जयंती के रूप में मनायी जाती है।

हनुमान जी को, तो जो चाहे सेवा बोल दो, ʹभरत के पास जाओʹ तो भरत के पास पहुँच जाते, ʹसंजीवनी लाओʹ तो संजीवनी ले आते, समुद्र पार कर जाते। भारी इतने कि जिस पर्वत पर खड़े होकर हनुमान जी ने छलाँग मारी वह पाताल में चला गया। छोटे भी ऐसे बन गये कि राक्षसी के मुँह में जाकर आ गये। विराट भी ऐसे बन गये कि विशालकाय ! ब्रह्मचर्य का प्रभाव लँगोट के पक्के हनुमानजी के जीवन में चम-चम चमक रहा है।

लंका में हनुमान जी को पकड़ के लंकेश के दरबार में ले गये। हनुमान जी भयभीत नहीं हुए, उग्र भी नहीं हुए, निश्चिंत खड़े रहे। हनुमानजी की निश्चिंतता देखकर रावण बौखला गया। बौखलाते हुए हँस पड़ा, बोलाः “सभा में ऐसे आकर खड़ा है, मानो तुम्हारे लिए सम्मान-सभा है। तुमको पकड़ के लाये हैं, अपमानित कर रहे हैं और तुमको जरा भी लज्जा नहीं ! सिर नहीं झुका रहे हो, ऐसे खड़े हो मानो ये सारे सभाजन तुम्हारे सम्मान की गाथा गायेंगे।”

हनुमानजी ने रावण को ऐसा सुनाया कि रावण सोच भी नहीं सकता था कि हनुमान जी की बुद्धि ऐसी हो सकती है। हनुमानजी तो प्रीतिपूर्वक सुमिरन करते थे, निष्काम भाव से सेवा करते थे। बुद्धियोग के धनी थे हनुमानजी। हनुमानजी ने सुना दियाः

ʹमोहि न कुछ बाँधे कइ लाजा।

मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं  है। तुम बोलते हो कि निर्लज्ज होकर खड़ा हूँ, यह लाज-वाज का जाल मुझे बाँध नहीं सकता।

कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।

मैं तो प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ। चाहे बँधकर तुम्हारे पास आऊँ, चाहे आग लगाते हुए तुम्हारे यहाँ से जाऊँ, मुझे तो भगवान का कार्य करना है। मुझे लाज किस बात की ? मैं तो टुकुर-टुकुर देख रहा हूँ। तुमने मेरे स्वागत की सभा की हो या अपमान की सभा – यह तुम जानो, मैं तो निश्चिंत हूँ। मैं प्रभु के कार्य में सफल हो रहा हूँ।” सेवक अपने स्वामी का, गुरु का, संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता का अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है ?

यह सुन क्रोध में आ के रावण ने हनुमानजी की पूँछ में कपड़ा बाँधकर आग लगाने को कहा। हनुमानजी ने  पूँछ लम्बी कर दी, अब इन्द्रजीत कहता हैः “इस पूँछ को हम ढँक नहीं सकते इतनी लम्बी पूँछ कर दी इस हनुमान ने। कहीं यह पूँछ लम्बी होकर लंका में चारों तरफ फैलेगी तो लंका भी तो जल सकती है !” घबरा गया इन्द्रजीत। हनुमान जी ने पूँछ छोटी कर दी तो ढँक गयी। दैत्य बोलते हैं- “हमने पूँछ ढँक दी, हमने सेवा की।”

जो दैत्यवृत्ति के होते हैं वे सेवा के नाम से अहंकार का चोला पहनते हैं लेकिन हनुमान-वृत्तिवाले सेवा के नाम पर सरलता का अमृत बरसाते हैं।

तो हनुमानजी ने पूँछ को सिकोड़ भी दिया लेकिन उनके पिता हैं वायुदेव, उनसे प्रार्थना कीः “पिता श्री ! आपका और अग्नि का तो सजातीय संबंध है, पवन चलेगा तो अग्नि पकड़ेगी। हे वायुदेव और अग्निदेव ! थोड़ी देर अग्नि न लगे, धुआँ हो – ऐसी कृपा करना।”

राक्षस फूँकते-फूँकते अग्नि लगाने की मेहनत कर रहे थे। रावण ने कहाः “देखो ! अग्नि क्यों नहीं लग रही ? हनुमान तुम बताओ।”

हनुमानजी ने कैसी कर्मयोग से सम्पन्न बुद्धि का परिचय दिया ! बोलेः “ब्राह्मण को जब बुलाते हैं, आमंत्रित करते हैं तभी ब्राह्मण भोजन करते हैं। अग्निदेव तो ब्राह्मणों के भी ब्राह्मणों हैं। यजमान जब तक शुद्ध होकर अग्नि देवता को नहीं बुलाता, तब तक अग्नि कैसे लगेगी ? तुम तुम्हारे दूतों के द्वारा लगवा रहे हो। तुम खुद अग्निदेव को बुलाओ। वे तो एक-एक मुख से फूँकते हैं, तुम्हारे तो दस मुख हैं।” देखो, अब हनुमानजी को ! सेवक स्वामी का यश बढ़ाता है।

हनुमान जी ने कहाः “एक-एक फूँक मारकर उसमें थूक भी रहे हो तो अशुद्ध आमंत्रण से अग्निदेव आते नहीं। तुम तो ब्राह्मण हो, पुलस्त्य कुल में पैदा हुए हो, पंडित हो।” मूर्ख को उल्लू बनाना है तो उसकी सराहना करनी चाहिए और साधक को महान बनाना हो तो उसको प्रेमपूर्वक या तो डाँट के, टोक के, उलाहने से समझाना चाहिए।

रावण को लगा कि ʹहनुमानजी की युक्ति को ठीक है। चलो, अब हम स्वयं अग्नि लगायेंगे।ʹ रावण ने अंजलि में जल लिया, हाथ पैर धोये। अब रावण ने पूरा घी छँटवा दिया, ʹ अग्नये स्वाहा।ʹ करके अग्नि देवता का आवाहन किया और बोलाः “दस-दस मुख से मैं फूँकूँगा तो अग्नि बिल्कुल प्रज्जवलित हो जायेगी ! राक्षस फूँक रहे हैं तो अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो रही है। धुआँ नाक में, आँखों में जाने से राक्षस परेशान से हो गये हैं, उन्हें जलन हो रही है।”

रावण के मन में पाप था, बेईमानी थी कि ʹदस मुखों से ऐसी फूँक मारूँगा कि पूँछ के साथ हनुमानजी भी जल जायें। इसको जलाने से मेरा यश होगा कि राम जी का खास मंत्री, जिसने छलाँग मारी तो पर्वत ऐसा दबा कि पाताल में चला गया, ऐसे बहादुर हनुमान को जिंदा जला दिया !”

अब मन में बेईमानी है और अग्नि देवता का सेवक बन रहा है। फूँक तो मारी लेकिन हनुमानजी तो क्या जलें, उस आग में उसकी दाढ़ी और मूँछें जल गयीं, नकटा हो गया। जो सेवा का बहाना करके सेवा करता है उसकी ऐसी ही हालत होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 231

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एक में अनेक, अनेक में एक


एक-ही-एक

(पूज्य बापू जी के मुखारविंद से निःसृत ज्ञानगंगा)

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य

जन्तोर्निहितो गुहायाम।

ʹइस जीवात्मा की हृदयरूपी गुफा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अति सूक्ष्म और महान से भी महान है।ʹ (कठोपनिषद, द्वितिय वल्लीः 20)

उसके विषय में कहा गया हैः

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

ʹयह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है फिर न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है।ʹ (गीताः 2.20)

शरीर के मरने पर भी जो शुद्ध ʹमैंʹ है वह मरता नहीं है। देखा जाय तो शरीर भी वास्तव में नहीं मरता है। मृत्यु के बाद शरीर को जला दो तो उसका जो जलीय भाग है वह वाष्प हो जायेगा और बादल बनकर नहीं बरसेगा। जो पृथ्वी का भाग वह राख होकर मिट्टी में मिल जायेगा, उससे कोई पौधा उगेगा। जो तेज का अंश है, अग्नि का भाग है, वह महाअग्नि में मिल जायेगा। उसमें जो आकाश-तत्त्व है वह महाकाश में मिल जायेगा।

नाश तो कुछ होता नहीं है, रूपांतरित होता है। हमारी आँखों से कोई ओझल होता है तो हम समझते हैं वह मर गया। वास्तव में कोई मरता नहीं है। जब कोई मरेगा नहीं तो जन्मेगा कैसे ? उन पंचमहाभूतों का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा इकट्ठा होकर शरीर दिखता है, तब कहते हैं, ʹजन्म हुआʹ। वह जियेगा 60-70 साल, फिर वे पाँच भूत अलग-अलग व्यापक पाँच महाभूतों में मिल जाते हैं, उसे कहते हैं ʹमर गयाʹ। वास्तव में तो

न कोई जन्मे, न कोई मरे।

न कोई भाई, न कोई बाप।

आप ही लाड़ी, आप ही लाड़ा,

जहाँ देखो वहाँ आप-ही-आप।।

कहीं तो वह लाड़ी के रूप में दिख रहा है, कहीं लाड़ा दिख रहा है किंतु है तो वही चैतन्य आत्मा। अनेक रूपों में वही एक है। संसार के सारे क्रिया कलापों का आधार भी वही है। जैसे सिनेमा में आप देखते हैं कि एक ही प्रकाश है पर प्लास्टिक (फिल्म) की पट्टियों पर पड़ता है तो अनेक रूप-रंग और क्रियाएँ देखने को मिलती हैं। कहीं मोटरगाड़ी भागी जा रही है तो कहीं रेलगाड़ी दौड़ रही है। कहीं नायिका को गुंडों ने पकड़ा है, कहीं बस्ती में आग लगायी जा रही है तो कहीं उत्सव मनाया जा रहा है। इस प्रकार देखोगे कि आग भी उसी में, बस्ती भी उसी में, नायिका भी वहीं और गुंडे भी वहीं, उसी पर्दे पर। सब प्रकाश का ही चमत्कार है।

एक ही प्रकाश अऩेक रूपों में दिखता है। ऐसे ही अनेक रूपों में छिपा हुआ एक-का-एक जो तत्त्व है वही सबका आधार है। वह एक ही तत्त्व अनेक रूपों में भासता है। यह ज्ञान समझ में आ जाय तो फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मेरा-तेरा सब छूट जायेगा। ये गुलाब, गेंदा, चमेली, सेब-संतरे सब अलग-अलग दिखते हैं लेकिन तत्त्वदृष्टि से देखो तो सब एक है। ऐसे ही जिसको तत्त्व की बात समझ में आ जाय वह चांडाल, कुत्ता, गाय, ब्राह्मण और हाथी में छुपे हुए एक तत्त्व को जानकर सबको समभाव से देखता है।

जिसने भी उस तत्त्व को जान लिया है, तत्त्व का ज्ञान पा लिया है, उसे तो सर्वत्र वही, आकाश से भी सूक्ष्म चिदानंदघन परमेश्वर नजर आता है। वह अपने-आपको भी वहीरूप जान लेता है। उसके रोम-रोम से ʹसर्वोहम्ʹ के आंदोलन स्वाभाविक रूप से फैलते रहते हैं।

तुम कितने भी भयानक हो, कितने भी डरावने हो, तुम्हें देखकर छोटे-बड़े डर जायें लेकिन तुम अपने-आपको देखकर कभी नहीं डरोगे। मान लो तुम्हारा रूप इतना सुहावना है कि तुम्हें देखकर कई लोग तुम्हारे पीछे दीवाने हो जायें, पर तुम अपने को देखकर दीवाने होओगे क्या ? नहीं। दूसरे को देखकर काम होगा, दूसरे को देखकर क्रोध होगा, दूसरे को देखकर मोह होगा। अपने को देखकर काम, क्रोध, मोह थोड़े ही होगा ! अगर आप सबमें, अपना-आपा देख लोगे तो फिर आप ही आप बचोगे, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, चिंता सब शान्त हो जायेगा। यह ज्ञान समझ में आ जाय तो जपी का जप सफल हो जाय, तपी का तप सफल हो जाय। ऐसा अदभुत ज्ञान है यह आत्मज्ञान।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 231

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