अपना वास्तविक स्वरूप जानो !

अपना वास्तविक स्वरूप जानो !


महर्षि पराशर अपने शिष्य मैत्रेय को जीव के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान देते हुए कहते हैं- “हे शिष्य ! सुख-दुःख, हर्ष-शोक, धर्म-अधर्म का जो ज्ञाता है, जिससे ग्रहण-त्याग दोनों सिद्ध होते हैं तथा स्थूल, सूक्ष्म व कारण तीनों शरीर और उनके धर्म जिसके द्वारा प्रकाशित नहीं कर सकता, वह चैतन्य स्वयं ज्योति तुम्हारा स्वरूप है। तात्पर्य-बुद्धि, आकाश, काल, दिशा आदि अति सूक्ष्म सभी अनात्म पदार्थों को तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु और उनके कार्य देह, पर्वत आदि अति स्थूल पदार्थों को आत्मा समान ही प्रकाशता है। जैसे हम लोगों की दृष्टि से परमाणु अति सूक्ष्म है और देह, पर्वत आदि अति स्थूल हैं परंतु सूर्य की दृष्टि से परमाणु सूक्ष्म नहीं और देह, पर्वत आदि स्थूल नहीं है क्योंकि सूर्य परमाणु आदि पदार्थों तथा पर्वत आदि पदार्थों को एक समान ही प्रकाशता है। तू ʹअस्ति, भाति, प्रियʹ रूप सामान्य चैतन्य स्वमहिमा में स्थित है (अस्ति-है, भाति-जानने में आता है)।

जो बुद्धि आदि सर्व अनात्म दृश्य-पदार्थों को मापने वाला है और जो उऩ अनात्म पदार्थों से मापा नहीं जाता, वही तुम्हारा स्वरूप है। द्रष्टा ही दृश्य को मापता है, दृश्य से द्रष्टा मापा नहीं जाता। जो सब देश, काल, वस्तु में ʹअस्ति, भाति, प्रियʹ स्वरूप से उन देश, काल आदि का आधार, सर्वदा हाजिर-हजूर है तथा जो मन के चिंतन में नहीं आता अपितु मन का द्रष्टा है, उसी को तुम अपना स्वरूप ब्रह्म जानो। जो मन, वाणी के चिंतन, कथन में आता है उसे अज्ञान, माया व उनका कार्य प्रपंच जानो। वह तुम्हारा स्वरूप ब्रह्म नहीं, वह संसारी माया का स्वरूप है।”

(ʹआध्यात्मिक विष्णु पुराणʹ से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2013, पृष्ठ संख्या 17, अंक 241

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