मनमुखता मिटाओ, मुक्ति पाओ

मनमुखता मिटाओ, मुक्ति पाओ


ʹश्री योग वासिष्ठ महारामायणʹ में वसिष्ठजी कहते हैं- हे राम जी ! जिस शिष्य को गुरु के वचनों में आस्तिक भावना होती है, उसका शीघ्र कल्याण होता है।

पूज्य बापू जीः हाँ, गुरु के वचनों में आस्तिक भावना…. गुरु जी ने कहा है, बस ! शबरी भीलन को मतंग ऋषि ने कहाः “शबरी तू यहीं रहना। तुझे भगवान के पास जाना नहीं है, भगवान तो तेरे आत्मा हैं, फिर भी साकार भगवान तेरे पास आयेंगे।”

ʹकब आयेंगे ? आयेंगे कि नहीं आयेंगे ? हम बाट देखें क्या ?ʹ कुछ नहीं पूछा। गुरु जी ने कह दिया, बस ! रोज चढ़ती पेड़ पर, रोज झाँकती, ʹगुरु जी ने कहा है न ! राम जी आयेंगे।ʹ लोग उसे पागल बोलते लेकिन गुरुजी की बात को पकड़कर बैठ गयी। अभी शबरी जितनी आदरणीय हो गयी, उतना रावण नहीं है आदरणीय। क्या ख्याल है ? शबरी जितनी तृप्त रही उतना रावण अतृप्त होकर गया। अतृप्त आदमी गुनाही प्रवृत्ति करता है। तृप्त आदमी तो अपने में ही संतुष्ट है। तृप्त व्यक्ति को ही भगवान ने कहा है ʹयोगीʹ।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

दृढ़निश्चयी… जैसा मन में आये ऐसा तो कुत्ता भी कर लेता है। जैसा मन में आये ऐसा तो पतंगे भी कर लेते हैं। नहीं, गुरु ने जो पाया है वह हम गुरु की आज्ञा में चलकर ही पा सकते हैं।

राग और द्वेष महाशत्रु हैं, झूठ-कपट अधोपतन का राजमार्ग है। सच्चाई और समता मुक्ति का मार्ग है। मुक्त होना तो अपने बायें हाथ का खेल है लेकिन वह गलती छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं। मनमुखता छोड़ते नहीं इसलिए मुक्ति का अनुभव नहीं होता। मुक्ति का अनुभव नहीं होता तो स्वच्छंदता हो जाती है। जैसा मन में आया ऐसा ही करोगे तो मन हावी हो जायेगा, इन्द्रियाँ हावी हो जायेंगी, जीव दुर्बल हो जायेगा। जैसे घोड़े की पूँछ पकड़ी तो आदमी दुर्बल हो जायेगा औऱ अगर घोड़े की लगाम पकड़ के उसको अपने अनुसार चलाया तो आदमी बलवान हो जायेगा। ऐसे ही मन पर लगाम आयी तो तुम बलवान हो जाओगे और मन की पूँछ पकड़ी तो मन घसीटकर ले जायेगा। अब पूँछ पकड़ो या लगाम, मर्जी तुम्हारी है।

गुरु जी बता रहे हैं- “बेटा ! तूने पूँछ पकड़ी है, अब इधर आ न, तेरे को लगाम पकड़ा दूँ।”

बोलेः “नहीं पकड़ में आ रही है।”

इसलिए मेरे कहने में आ जा बस, हो गया। कोई भी काम करें, गुरु जी को अच्छा लगेगा कि नहीं लगेगा ? अच्छा लगे वह करो, अच्छा नहीं लगेगा तो नहीं करो तो आ जायेगी लगाम। देर थोड़े ही है ! गुरु जी को यह बात पसंद है कि नहीं है ? हम मनमुख हो जायें, भटकू हों, आवारा हों तो गुरुजी को अच्छा लगेगा क्या ? नहीं लगेगा। बस हो गया। गुरु की आज्ञा में रहेंगे तो हमारी उन्नति देखकर गुरु जी खुश होंगे कि नहीं होंगे ? होंगे तो बस !

ऐसे कौन से गुरु हैं जो शिष्य की उन्नति देखकर खुश न हों और ऐसे कौन-से गुरु हैं जो शिष्य आवारा हो जाय और वे खुश हो जायें ? होंगे ? नहीं। तो गुरु की प्रसन्नता निमित्त है, भलाई तो अपनी होती है। गुरुजी प्रसन्न रहें, इसलिए अपन ऐसा नहीं करें। इसमें गुरु जी को फायदा नहीं है, अपने को ही फायदा है। मैं जो गुरु की आज्ञा में रहा…. गुरु जी थोड़े ही बोलते थे कि तुम बाल कटवाओ तो मेरे से पूछो। ऐसा गुरु जी ने कभी नहीं कहा। कई लोग कटवाते थे। ऐसा अब तुम नहीं पूछना बाल कटवाने के लिए, वह पूछना तो बनावटी होगा। बस हृदय से मनमुखता छोड़ने के लिए तैयार हो जाओ। भाषणबाजी तो कोई भी कर ले। पुजवाने की वासनावाले घुस जाते हैं गुरु की जगह पर, फिर ठुस्स भी हो जाते हैं बेचारे। गुरु का मतलब यह नहीं कि उपदेशक बन गये, चमचे-चमचियाँ पीछे घूमते रहे। यह गुरु का काम नहीं है। गुरु का काम है लघु को गुरु बना दें। विषय-विकारों में गिरे हुए जीवों को भगवद-आनंद में, भगवदरस में, भगवत्प्रीति में पहुँचा दें।

जो अपने गुरु के नियंत्रण में नहीं रहता, उसका मन परमानंद को नहीं पायेगा। ऐसा नहीं कि गुरु जी के सामने बैठे रहना है। गुरु जी नैनीताल में हों, चाहे कहीं भी सत्संग कर रहे हों लेकिन गुरु  जी के नियंत्रण में अपने को रखकर हम सात साल रहे। कभी कहीं जाते तो गुरुजी की आज्ञा लेकर जाते। चौरासी लाख जन्मों की, मन की, इन्द्रियों की वासना से जीव भटकता रहता है, इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी। तो गुरु एक ऐसा सहारा मिल गया कि अब कहीं भी जाओ तो गुरु जी की आज्ञा लेंगे। तो आज्ञा लेना ठीक है कि नहीं ? जैसा मन में आये ऐसा चल दिये तो एक जन्म में क्या, दस जन्म में भी उद्धार होने वाला नहीं है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

      गुरु का सान्निध्य औऱ गुरु की आज्ञा हमें गुरु बना देती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 246

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