मानवमित्र व उत्तम चिकित्सक-भगवान सूर्यनारायण

मानवमित्र व उत्तम चिकित्सक-भगवान सूर्यनारायण


विश्व के सभी देशों की तुलना में आज भी भारत में जो स्वास्थ्य बरकरार है, वह हमारे देश के दूरद्रष्टा ऋषि-मुनि व संतों द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों व औषधियों की ही देन है। उनमें से एक अति सुलभ, सरल व प्रभावशाली चिकित्सा है ‘सूर्यचिकित्सा’। इससे प्राप्त जो स्वास्थ्य –लाभ ऋषियों ने शास्त्रों में सदियों पहले ही वर्णित किये हैं, उन्हीं को वैज्ञानिक आज सिद्ध कर रहे हैं।

आभारिषं विश्वभेषजीमस्यादृष्टान् नि शमयत्।

‘सूर्यकिरणें सर्वरोगनाशक हैं, वे रोगकृमियों को नष्ट करें।’ (अथर्ववेदः 6.52.3)

आधुनिक संशोधनों से सिद्ध हुए सूर्यकिरणों के लाभ

सूर्यकिरणें रोगों से लड़ने वाले श्वेत रक्तकणों का बढ़ाती हैं।

शुद्ध रक्तसंचरण करती हैं तथा रक्त में ऑक्सीजन वहन की क्षमता को बढ़ाती हैं।

यकृत में ग्लाईकोजन के संग्रह में वृद्धि करती हैं।

आयोडीन व हीमोग्लोबिन की कमी की पूर्ति करती हैं।

हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक हैं। विटामिन डी सूर्यकिरणों से सहज में प्राप्त होता है।

मधुमेह में रक्तगत शर्करा की मात्रा कम करने में सूर्यकिरणें इंसुलिन का काम करती हैं।

स्त्रियों का हार्मोन स्तर संतुलित रखती हैं।

सूर्यस्नान से यौन व प्रजनन क्षमता बेहतर बनती है।

सूर्यकिरणों से जीव-विष (टाक्सिनज़) दूर करने की अपूर्व शक्ति है।

सूर्यप्रकाश में हानिकारक जीवाणुओं की उत्पत्ति नहीं हो पाती। पश्चिमी वैज्ञानिक गार्डनर रोनी लिखते हैं- ‘सूर्यस्नान से शरीर इतना सबल हो जाता है कि वह हानिकारक कीटाणुओं को निकालकर अपने-आप स्वास्थ्य-रक्षा करने में सक्षम हो जाता है।’ एंटीबायोटिक दवाओं से तो हानिकारक जीवाणुओं के साथ-साथ हितकारी जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं।

आज कई विज्ञानी सिद्ध कर रहे हैं कि नियमित सूर्यस्नान से शक्तिहीन, गतिहीन अंगों की जड़ता दूर होकर उनमें चेतनता आती है। हृदयरोग, उच्च रक्तचाप, गठिया, संधिवात, आँतों की सूजन जैसी गम्भीर बीमारियों के साथ एक्जिमा, सोराइसिस, त्वचारोग, कटिस्नायुशूल (साईटिका), गुर्दे संबंधित रोग, अल्सर आदि में भी बहुत लाभ होता है। केवल यही नहीं डॉ. सोले कहते हैं- “कैंसर, नासूर, भगंदर आदि दुःसाध्य रोग जो विद्युत और रेडियम के प्रयोग से भी दूर नहीं किये जा सकते थे, वे सूर्यकिरणों के प्रयोग से दूर हो गये।”

अमेरिका के डॉ. एलियर के चिकित्सालय में सूर्यकिरणों द्वारा ऐसे रोग भी ठीक होते देखे गये जिनका ऑपरेशन के अलावा अन्य कोई इलाज नहीं था।

सूर्यप्रकाश के अभाव से दुष्प्रभाव

सूर्यकिरणों से प्राप्त होने वाले विटामिन डी तथा अन्य पोषक तत्वों के अभाव में संक्रामक रोग, क्षयरोग (टी.बी.), बालकों में सूखा रोग (रिकेट्स), मोतियाबिंद, महिलाओं में मासिक धर्म की समस्याएँ, मांसपेशियों व स्नायुओं की दुर्बलता तथा गम्भीर मनोविकार हो जाते हैं। यही कारण है कि नॉर्वे, फिनलैण्ड जैसे उत्तर यूरोपियन देशों में महीनों तक सूर्यप्रकाश के बिना रहने वाले लोगों में चिड़चिड़ापन, थकावट, अनिद्रा, मानसिक अवसाद, त्वचा का कैंसर तथा आत्महत्या की समस्याएँ अधिक पायी जाती हैं।

इन सब रोगों के शमन के लिए सूर्यस्नान एक अदभुत उपाय है।

सूर्यस्नान की विधि

प्रातःकाल सिर ढँककर शरीर पर कम-से-कम वस्त्र धारण करके सूर्य के सम्मुख इस प्रकार बैठें अथवा लेटें कि सूर्यकिरणें 5-7 मिनट छाती व नाभि तथा 8-10 मिनट पीठ पर पड़ें। इस समय संकल्प करें कि ‘आरोग्यप्रदाता सूर्यनारायण की जीवनपोषक रश्मियों से मेरे रोम-रोम में रोगप्रतिकारक शक्ति का अतुलित संचार हो रहा है। ॐ….ॐ….’ इससे सारे रोग समूल नष्ट हो जायेंगे।

ग्रीष्म ऋतु में सुबह 7 बजे तक और शीत ऋतु में 8-9 बजे तक सूर्यस्नान करना लाभदायक है। शरद ऋतु में सूर्यस्नान ऐसे स्थान पर लेटकर करें जहाँ हवा से पूर्ण बचाव हो। निर्जलीकरण (डिहायड्रेशन) से बचने के लिए धूप सेवन के  पहले व बाद में ताजा पानी पियें। सूर्य से आँख नहीं लड़ायें।

पूज्य बापू जी भी नित्य सूर्यकिरणों का लाभ लेते हैं एवं आपश्री की प्रेरणा से आपके करोड़ों शिष्य भी सूर्यकिरणों का लाभ लेकर बिना खर्च स्वस्थ व प्रसन्न रहते हैं।

सूर्यदेव बुद्धि के प्रेरक देवता हैं। इनमें ईश्वरीय भावना करके उपासना करने से मानव मानसिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक विकास सहज में ही कर सकता है। सूर्यस्नान के साथ यदि व्यायाम का मेल किया जाय तो मांसपेशियों की दृढ़ता और मजबूती में कई गुना वृद्धि होती है। प्रातः नियमित सूर्यनमस्कार करने व सूर्यदेव को मंत्रसहित अर्घ्य देने से शरीर हृष्ट-पुष्ट व बलवान एवं व्यक्तित्व तेजस्वी, ओजस्वी व प्रभावशाली होता है। अर्घ्य हेतु सूर्य गायत्री मंत्रः

ॐ आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि। तन्नो भानुः प्रचोदयात्। अथवा

ॐ सूर्याय नमः। ॐ रवये नमः। आदि।

या ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः। यह भी प्रभावशाली मंत्र है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2014, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 262

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