‘खाया-पिया और मजे से जियेंगे, गुरु वरु कुछ नहीं है…..’, ऐसे लोगों को विषयी व्यक्तियों के जीवन का अंत कैसे होता है ? बोलेः अतृप्ति, असफलता, पाप के संग्रह में तथा दुःख, चिंता और निराशा की आग और अफसोस से समाप्त हो जाता है निगुरे लोगों का जीवन। और जिनको गुरुदीक्षा मिलती है उनका जीवन कैसा होता है ?
गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परं धनम्।।
‘गुरु ही परम ब्रह्म हैं, गुरु ही परा गति हैं, गुरु ही परा विद्या हैं और गुरु को ही परम धन कहा गया है।’ (द्वयोपनिषद् 5)
गुरु ही सर्वोत्तम अविनाशी तत्त्व हैं, परम आश्रय-स्थल हैं तथा परम ज्ञान के उपदेष्टा हने के कारण गुरु महान होते हैं। और जो गुरु की शरण लेते हैं वे ‘अ-महान’ कैसे होंगे ? वे कीट-पतंग की योनि में क्यों जायेंगे ? वे हाथी-घोड़ा, चूहा-बिल्ला क्यों बनेंगे ?
राजा नृग गिरगिट बन गये। राजा अज बुद्धिमान थे लेकिन मरने के बाद साँप बन गये। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन मानवतावादी थे, मैं उनको प्यार भी करता हूँ। उनकी प्रसिद्धि करने वाली संस्थाओं में मुझे ले गये, मैं देख के भी आया। लेकिन अभी वे बेचारे व्हाइट हाउस में प्रेत होकर घूम रहे हैं क्योंकि गुरु बिना का जीवन था। तो यह उपनिषद् की बात सार्थक व सच्ची नजर आती है।
वे लोग अकाल मर जाते हैं जो असंयमी हैं, अकाल विफल हो जाते हैं जो आवेशी होते हैं। वे अकारण ही तपते रहते हैं जो ईर्ष्यालू होते हैं। वे अकारण ही फिसलते रहते हैं जो अति लोभी होते हैं। वे अकारण ही उलझते रहते हैं जो तृष्णावान हैं। जो अशिष्ट और आलसी हैं, वे संसार से हारकर कई नीच योनियों को पाते हैं लेकिन जिनमें संयम है, शांति है, ईर्ष्या और लोभ का अभाव है, तृष्णा, निष्ठुरता, अशिष्टता और आलस्य का अभाव है, वे गुरु-तत्त्व के माधुर्य में, आनंद में और साक्षात्कार में सफल हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 26, अंक 266
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