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आध्यात्मिक खजाना भरने का सुवर्णकालः चतुर्मास


पूज्य बापू जी  (27 जुलाई 2015 से 22 नवम्बर 2015 तक)

चतुर्मास में किया हुआ  व्रत, जप, संयम, दान, स्नान बहुत अधिक फल देता है। इन दिनों में स्त्री सहवास करने से मानव का पतन होता है। यही कारण है कि चतुर्मास में शादी-विवाह आदि सकाम कर्म नहीं किये जाते हैं।

इन चार महीनों में जो ब्रह्मचर्य पालते हैं और धरती पर सोते हैं, उनकी तपस्या और उनका आध्यात्मिक विकास तोल-मोल के बाहर हो जाता है। पति-पत्नी होते हुए भी संयम रखें। किसी का अहित या बुरा सोचे नहीं, करे नहीं तथा ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं और सर्वत्र हैं’ ऐसा नजरिया बना ले तो चार महीने में उसके पाप-ताप मिट जायेंगे और भगवान की शांति, प्रेरणा और ज्ञान यूँ मिलता है !

चतुर्मास व्रत रखने वाले व्यक्ति को एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने का फल सहज में ही मिलता है। चतुर्मास में मौन, भगवन्नाम जप, शुभकर्म आदि का आश्रय लेकर हीन कर्म छोड़े और भगवान की स्मृति बढ़ाये हुए धरती पर (दरी या कम्बल बिछाकर) शयन करे अथवा गद्दा-तकिया हटाकर सादे पलंग पर शयन करे और ‘नमो नारायणाय’ का जप बढ़ा दे तो उसके चित्त में भगवान आ विराजते हैं।

चतुर्मास में क्या त्यागने से क्या फल ?

गुड़ के त्याग से मधुरता, तेल(लगाना, मालिश आदि) के त्याग से संतान दीर्घजीवी तथा सुगंधित तेल के त्याग से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

असत्य भाषण, क्रोध, शहद और मैथुन के त्याग से अश्वमेध यज्ञ का फल होता है। यह उत्तम फल, उत्तम गति देने में सक्षम है।

चतुर्मास में परनिन्दा का विशेष रूप से त्याग करें।

परनिन्दा महापापं परनिन्दा महाभयम्।

परनिन्दा महद्दुःखं न तस्याः पातकं परम्।।

परनिन्दा से बड़ा कोई पाप नहीं है। और पाप हो जाने पर प्रायश्चित्त करने से माफ हो जाता है लेकिन परनिन्दा तो जानबूझकर की है, उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है।

विशेष लाभदायी प्रयोग

आँवला, तिल व बिल्वपत्र आदि से स्नान करे तो वायुदोष और पापदोष दूर होता है।

वायु की तकलीफ हो तो बेल-पत्ते को धोकर एक काली मिर्च के साथ चबा के खा लें, ऊपर से थोड़ा पानी पी लें। यह बड़ा स्फूर्तिदायक भी रहेगा।

पलाश के पत्तों में भोजन करने से ब्रह्मभाव की प्राप्ति होती है।

इन दिनों में कम भोजन करना चाहिए।

जल में आँवला मिलाकर स्नान करने से पुरुष तेजवान होता है और नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है।

एकादशी का व्रत चतुर्मास में जरूर करना चाहिए।

बुद्धिशक्ति की वृद्धि हेतु

चतुर्मास में विष्णु जी के सामने खड़े होकर ‘पुरुष सूक्त’ का पाठ करने वाले की बुद्धि बढ़ती है (‘पुरुष सूक्त’ के लिए पढ़ें ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012 का अंक)। बच्चों की बुद्धि अगर कमजोर हो तो ‘पुरुष सूक्त’ का पाठ भगवान नारायण के समक्ष करवाओ, बुद्धि बढ़ेगी। भ्रूमध्य में सूर्यनारायण का ध्यान करवाओ, बुद्धि बढ़ेगी।

स्वास्थ्य रक्षक प्रयोग

बारिश के दिनों में धरती पर सूर्य की किरणें कम पड़ती हैं इसलिए जठराग्नि मंद पड़ जाती है और वायु (गैस) की तकलीफ ज्यादा होती है। अतः 50 ग्राम जीरा व 50 ग्राम सौंफ सेंक लें। उसमें 20-25 काला नमक तथा थोड़ी इलायची मिला के पीसकर रख लें। वायु, अम्लपित्त (एसिडिटी), अजीर्ण, पेटदर्द, भूख की कमी हो तो 1 चम्मच मिश्रण पानी से सेवन करें। इसमें थोड़ी सोंठ मिला सकते हैं।

दीर्घजीवी व यशस्वी होने हेतु

भगवान ब्रह्मा जी कहते हैं-

सद्धर्मः सत्कथा चैव सत्सेवा दर्शनं सताम्।

विष्णुपूजा रतिर्दाने चातुर्मास्यसुदुर्लभा।।

‘सद्धर्म (सत्कर्म), सत्कथा, सत्पुरुषों की सेवा, संतों का दर्शन-सत्संग, भगवान का पूजन और दान में अनुराग – ये सब बातें चौमासे में दुर्लभ बतायी गयी हैं।

(स्कन्द पुराण, ब्रा. खण्ड, चातुर्मास्य माहात्म्यः 3.11)

ये सद्गुण तो मनुष्य को सारे इष्ट दे देते हैं, सारे दुःखों की कुंजियाँ दे देते हैं। इनसे मनुष्य दीर्घजीवी, यशस्वी होता है। जप, सेवा सत्कर्म है, भूखे को अन्नदान करना सत्कर्म है और खुद अन्न का त्याग करके शास्त्र में बताये अनुसार उपवास करना यह तो परम सत्कर्म है।

सुबह उठकर संकल्प करें

देवशयनी एकादशी को सुबह उठकर संकल्प करना चाहिए कि ‘यह चतुर्मास के आरम्भवाली एकादशी है। पापों का नाश करने वाली यह एकादशी भगवान नारायण को प्रिय है। मैं भगवान नारायण, परमेश्वर को प्रणाम करता हूँ। कई नाम हैं प्यारे प्रभु के। आज के दिन मैं मौन रहूँगा, व्रत रखूँगा। भगवान क्षीर-सागर में कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मौन, समाधिस्थ रहेंगे तो इन चार महीनों तक मैं धरती पर सोऊँगा और ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा।’

एक वचन भिक्षा में दे दो

श्रावण मास, चतुर्मास शुरु हो रहा है तो मुझे भिक्षा में एक वचन दे दो कि ‘3,6 या 12 महीने का ब्रह्मचर्य व्रत रखेंगे।’ भीष्म पितामह, लीलाशाह जी बापू, अर्यमा देव को याद करना, वे आपको विकारों से बचने में मदद करेंगे। ॐ अर्यमायै नमः। इस मंत्र से, प्राणायाम से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है।

जैसे संसार-व्यवहार से वीर्य नाश होता है, वैसे बोलने से भी वीर्य का सूक्ष्म अंश खर्च होता है, अतः संकल्प करें कि ‘हम मौन रहेंगे, कम बोलेंगे, सारगर्भित बोलेंगे।’ रूपये पैसों की आवश्यकता नहीं है, इतना भिक्षा में दे दो कि ‘अब इस चतुर्मास में हे व्यासजी ! हे गुरुदेवो ! हे महापुरुषो ! आपकी प्रसादी पाने के लिए इस विकार का, इस गंदी आदत का हम त्याग करेंगे…..।’

मैं ईश्वर की प्रीति के निमित्त व्रत रखता था, जप करता था और ईश्वर की प्रीति के निमित्त ही सेवाकार्य करता था।

अपना आध्यात्मिक खजाना बढ़ायें

जैसे किसान बुवाई करके थोड़ा आराम करता है और खेत के धन का इंतजार करता है, ऐसे ही चतुर्मास में आध्यात्मिक धन को भरने की शुरुआत होती है। हो सके तो सावन के महीने में एक समय भोजन करे, जप बढ़ा दे। हो सके तो किसी  पवित्र स्थान पर अनुष्ठान करने के लिए चला जाय अथवा अपने घर में ही पूजा-कमरे में चला जाय और दूसरी या तीसरी सुबह को निकले। मौन रहे, शरीर के अनुकूल फलाहार, अल्पाहार करे। अपना आध्यात्मिक खजाना बढ़ाये। ‘आदर हो गया, अनादर हो गया, स्तुति हो गयी, निंदा हो गयी…. कोई बात नहीं, हम तो करोड़ काम छोड़कर प्रभु को पायेंगे।’ ऐसा दृढ़ निश्चय करे। बस, फिर तो प्रभु तुम्हारे हृदय में प्रकट होने का अवसर पैदा करेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 271

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आत्मज्ञान पाने तक सदगुरु करते हैं मार्गदर्शन


भगताँ महाराज नाम के एक ब्राह्मण जोधपुर राज्य के फूलमाल गाँव में रहते थे। एक बार एक महात्मा उनके घर पधारे और उनकी गर्भवती पत्नी को देखकर बोलेः “देवी ! तुम्हारे गर्भ में संत का वास है।” समय बीतने पर सुंदर-सलोने शिशु का जन्म हुआ पर पति-पत्नी चिंतित रहने लगे कि कहीं बेटा बड़ा होने पर साधु न हो जाय ! बेटे का नाम टीकम रखा। नन्हा टीकम रात में सोते समय पिता जी से पूछताः “पिता जी ! भगवान कहाँ रहते हैं ? वे कैसे हैं ? हमें दिखते क्यों नहीं ? आदमी मरता क्यों है ? मरकर भगवान के पास जाता है या और कहीं ? भगवान के दर्शन कैसे होते हैं ? क्या मुझे भी हो सकते हैं ?”

पिता जी एक प्रश्न का उत्तर देते तो दूसरा तैयार रहता। आखिर वे उत्तर देते-देते थक जाते और कहतेः “बेटा ! अब सो जा।”

टीकमः पिता जी ! आप ही कहते हैं न, कि ‘सब काम भगवान करते हैं। उनकी मर्जी के बिना कुछ नहीं होता।’ मुझे भगवान अभी सुला नहीं रहे हैं।”

पिता जी झुँझलाकर कहतेः “अच्छा महात्मा ! भगवान जब सुलायें तो सोना, मुझे सोने दे, भगवान मुझे सुला रहे हैं।” पिता जी सो जाते पर टीकम पड़ा-पड़ा घंटों न जाने क्या सोचता रहता।

पिता जी कभी-कभी टीकम को अपने साथ खेत पर ले जाते। खेत जोतते समय बैलों को मार पड़ने से टीकम रो पड़ता।

टीकमः “पिता जी ! जैसे आपके सिर में दर्द होता है तब आपसे काम नहीं होता, ऐसे ही शायद आज बैलों के भी सिर में दर्द हो रहा होगा, तभी वे चल नहीं पा रहे हैं। उन्हें खोल के विश्राम करने दीजिये।”

बेटे की इस प्रकार की बातें सुनकर पिता के कानों में महात्मा का बात गूँजने लगती। ‘कहीं बेटा साधु न हो जाय’ – इसी चिंता-चिंता में माता-पिता संसार से चल बसे।

अब घर का सारा बोझ टीकम के बड़े भाई रेवती व उनकी धर्मपत्नी पर पड़ गया। रेवती की पत्नी बहुत महत्वाकांक्षी स्वभाव की थी, वह टीकम को हर समय काम में जोतती रहती। टीकम जो भाभी कहती सब करते पर करते अपने ढंग से थे। खेत जोतते तो थोड़ी-थोड़ी देर  में बैलों को एक ओर खड़ा कर विश्राम करने देते व स्वयं फावड़े से खेत की गुड़ाई करने लगते।

खेत में पानी देते तो पहले चींटियों और कीड़े-मकोड़ों को बीनकर किसी ऊँचे स्थान पर रख देते। एक बार खेत में पानी देते समय उन्हें एक-दो जगह कीड़ों के बिल दिखे। उन्हें पानी से बचाने के लिए वे बिल के चारों ओर मिट्टी की मेंड़ बाँधने लगे। ऐसा करने में कुछ पौधे उखड़ गये। इतने में भाभी वहाँ आ गयी, उसने दाँत पीसते हुए कहाः “महात्मा ! ये क्या कर रहे हो ? सिंचाई कर रहे हो कि कीड़े-मकोड़े पाल रहे हो ? ढोंगी कहीं के ! खाने को चाहिए मनभर, काम करने को नहीं रत्तीभर ! यही सब करना है तो ढोंगी साधुओं में जा मिलो।”

टीकम ने आदरपूर्वक भाभी को प्रणाम किया और प्रभु की खोज में निकल पड़े। घूमते-घामते वे एक संन्यासी के आश्रम में जा पहुँचे और संन्यासी के निर्देशानुसार ध्यान-धारणा में लग गये। साधना में कुछ अनुभव हुआ किंतु आत्मतृप्ति न हुए वे बेचैन रहने लगे।

एक दिन टीकम को स्वप्न में एक महात्मा के दर्शन हुए। वे बोलेः “वत्स ! मैं तुम्हें पहले से जानता हूँ। तुम गर्भ में थे, तभी मैंने तुम्हारी माँ को तुम्हारे साधु होने की सूचना दे दी थी। तुम पिछले जन्म में ज्ञानी भक्त थे लेकिन ज्ञान के अभिमान के कारण तुम्हारे कुछ भोग शेष रह गये थे इसलिए तुम्हारा यह जन्म हुआ है। तुम पुष्कर चले जाओ और मेरे शिष्य परशुराम देव से दीक्षा ले लो।”

जब तक शिष्य आत्मज्ञान न पा ले, तब तक सदगुरु पीछा नहीं छोड़ते। कैसी है महापुरुषों की करुणा-कृपा !

पुष्कर पहुँचकर उन्होंने परशुराम देवाचार्य जी से अपनी शरण में रखने की प्रार्थना की। समर्थ गुरु से दीक्षा मिलने के बाद उनका अंतरात्मा का रस उभरा और वे लक्ष्य की ओर तीर की तरह चल पड़े। वे भगवान के भजन-चिंतन के सिवा न और कुछ करते और न उनके गुणगान के सिवा कुछ कहते-सुनते। यदि कोई कुछ और कहता तो कहतेः “भाई तत्त्व की बात कहो न ! तत्त्व का भजन छोड़ कुछ भी सार नहीं है।” इसीलिए उनका नाम तत्त्ववेत्ता पड़ गया।

एक बार उनके संन्यासी गुरु की उनसे भेंट हो गयी। उन्होंने पूछाः “बेटे ! तुम मेरे पास से क्यों चले आये ? कहाँ कह रहे हो ?”

उन्होंने परशुराम देवाचार्य जी से दीक्षा समेत सारा वृत्तान्त कह सुनाया। संन्यासी नाराज हुए। जब टीकम जाने लगे, तब उन्होंने एक घड़ा जल से भरकर देते हुए कहाः “इसे अपने नये गुरु को देना।”

टीकम ने घड़ा लाकर परशुराम जी के सामने रखा और सारी बात कह सुनायी। परशुराम जी ने घड़े में बताशे डाल दिये और तत्त्ववेत्ता जी से कहाः “अब इसे संन्यासी जी को दे आओ।”

वे संन्यासी के पास पहुँचे  और कहाः “गुरु जी ने इसमें बताशे डालकर वापस भेजा है। आपका जैसा प्रश्न था, वैसा ही उत्तर है।”

संन्यासी आश्चर्य में पड़ गयेः “बताओ, तुम क्या समझे ?”

तत्त्ववेत्ताचार्यः “आपने पानी का घड़ा भेजकर गुरु जी की परीक्षा लेनी चाही थी कि वे अगर मेरे मनोभाव को समझ गये तो निश्चित ही उच्चकोटि के महात्मा होंगे। आपके कहने का आशय यह था कि ‘मैंने तो टीकम के घट’ को विशुद्ध ज्ञान से ऊपर तक भर दिया था। उसमें कसर क्या रह गयी थी जो आपने उसे शिष्य बनाया ?’ उन्होंने मीठे पानी का घड़ा भेजकर उत्तर दिया कि आपने जो  ज्ञानोपदेश किया था, वह फीका और स्वादहीन था। मैंने उसको तीनों योगों की त्रिवेणी के सर्वोत्तम मधुर रस का पुट देकर उसे मधुरतम  बना दिया।”

संन्यासी ने गद्गद होते हुए कहाः “वत्स ! मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। धन्य हैं तुम्हारे गुरुदेव और धन्य हो तुम सामर्थ्यवान गुरु के सामर्थ्यवान शिष्य !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 271

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स्वतंत्रता दिवस पर पूज्य बापू जी का संदेश षड्यंत्रों से बचें, संयमी, साहसी और बुद्धिमान बनें


(15 अगस्त 1999 को दिया गया संदेश)

भारतवासियों में हनुमान जी जैसा बल-वीर्य, साहस, सेवाभाव और संयम आये। जब तक साहस, सेवा और संयम नहीं आयेंगे, तब तक एक ठग से, एक शोषक से बचेंगे तो दूसरे शोषक आकर शोषण करेंगे। होता भी ऐसे ही है। पहले शोषक राजाओं से बचें तो अंग्रेज शोषक आ गये, अंग्रेज शोषकों से बचे थोड़े बहुत तो दूसरे आ गये। जब तक बल-वीर्य, साहस, संयम, सामर्थ्य नहीं होता, तब तक आजादी की बात पर भले खुशी मना लें लेकिन हम शोषित होते जा रहे हैं।

इसलिए 15 अगस्त का यह संदेश है कि स्वतंत्रता दिवस की खुशियाँ मनानी हैं तो भले मना लो लेकिन खुशी मनाने के साथ खुशी शाश्वत रहे, ऐसी नजर रखो। इसके लिए देश को तोड़ने वाले षड्यंत्रों से बचें, संयमी और साहसी बनें, बुद्धिमान बनें। अपनी संस्कृति व उसके रक्षक संतों के प्रति श्रद्धा तोड़ने वालों की बातें मानकर अपने देश की जड़ें खोदने का दुर्भाग्य अपने हाथ में न आये। बड़ी कुर्बानी देकर आजादी मिली है। फिर यह आजादी विदेशी ताकतों के हाथ में न चली जाय, उसका ध्यान रखना ही 15 अगस्त के अवसर पर संदेश है।

एक आजादी है सामाजिक ढंग की, दूसरी आजादी है जीवात्मा को परमात्मा प्राप्ति की। दोनों प्रकार की आजादी प्राप्त कर लें। इसके लिए शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक बल की आवश्यकता है इसलिए शरीर स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में ज्ञान और ध्यान का प्रकाश बना रहे – ये तीनों चीजें आवश्यक हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 5, अंक 271

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