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गुरु के सत्संग-सान्निध्य का मूल्य


बाबा गम्भीरनाथ नाथ सम्प्रदाय के एक सिद्ध योगी थे। एक बार वे गया के पास एक पहाड़ पर विराजमान थे। उन्हें भीड़ बिल्कुल पसंद न थी किंतु जब साधक दर्शन के लिए आते तो उन्हें सत्संगामृत का पान कराते।

जिस पहाड़ पर बाबा जी विराजमान थे, उसी  पहाड़ की तलहटी में चोर-लुटेरों का एक गाँव था। पहाड़ पर होने वाली चहल-पहल उन लुटेरों की नजर में आ गयी। उन लुटेरों ने अनुमान लगाया कि भक्तगण दर्शन के लिए जाते हैं तो बाबा जी के पास खूब माल-सामान एकत्र हुआ होगा।

मार्ग पर आते-जाते साधकों को लूटने से उनका आना जाना बंद हो जायेगा इस डर से लुटेरों ने बाबा जी को ही लूटने की योजना बनायी। एक रात्रि में वे बाबा जी की कुटिया पर डाका डालने गये। पहले तो पत्थरबाजी करके लुटेरों ने उन्हें डराना चाहा। पत्थरों के गिरने की आवाज सुनकर एक भक्त ने बाबा जी को बतायाः “पहाड़ की तराई में लुटेरों की बस्ती है और वे लोग ही चोरी करने आये हैं।”

“इतनी सी बात है !” ऐसा कहकर बाबा जी बाहर निकले और जोर से  आवाज लगाते हुए कहाः “अरे भाइयो ! पत्थर मारने की जरूरत नहीं है। तुमको जो चाहिए वह ले जाओ।”

बाबा जी खुद ही चोरों को बुलाकर अंदर ले गये। सब सामान बताते हुए कहने लगेः “जो सामान चाहिए, सब तुम्हारा ही है।”

चोरों को बाबा जी की सरलता देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। संतों की लीला तो संत ही जाने !

ज्यों केले के पात में, पात पात में पात।

त्यों संतन की बात में, बात बात में बात।।

चोरी के दिन के बाद भी रोज सत्संग होता रहा। ठीक 15 दिन के बाद लुटेरों ने पुनः द्वार खटखटाये। बाबा जी बोलेः “आओ-आओ, इस बार माल थोड़ा ज्यादा है। खुशी से ले जाओ।”

पहली बार तो चोरी के विषय में किसी को कुछ पता न चल पाया किंतु दूसरी बार की चोरी के बाद भक्तों में चर्चा का  विषय बन गया। ‘गुरु के माल-सामान की सुरक्षा प्राणों से भी प्यारी होनी चाहिए। यह जगह सलामत नहीं है, अतः हमें स्थान बदल देना चाहिए। दान की चोरी तो उन्हें न जाने किस नरक में ले जायेगी !….’ भक्तों के बीच होती यह खुसर-फुसर बाबा जी के कानों तक भी गयी। तब बाबा जी ने अधिकांश साधकों को इच्छा के अनुरूप स्थान बदलने का निश्चय किया। किंतु एक साधक माधोलाल ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहाः “बाबा जी ! आप यहीं रहिये। किन पुण्यों के प्रताप से आपके सत्संग-सान्निध्य का लाभ हमें मिल रहा है, वह मैं नहीं जानता और उसके मूल्य का आकलन भी मैं नहीं कर सकता। आपने ही सत्संग के दौरान कहा था कि ‘भगवान से भी सत्संग की महिमा ज्यादा है।’ बाबा जी ! मुझे सेवा का एक मौका दीजिए। लुटेरों को जो चाहिए, उस सीधा-सामान की पूर्ति मैं स्वयं कर दूँगा। यह शिष्य आपका दिया हुआ ही आपको अर्पण करता है। उसका सदुपयोग होने दीजिए। लुटेरों को बता दें कि पंद्रह दिन की जगह रोज आयें। मुझे रोज सेवा का मौका मिलेगा।’ इतना कहकर माधोलाल बाबा जी के चरणों में गिरकर रो पड़ा।

गुरु तो दया की खान होते हैं। बाबा जी ने एक साधक को गाँव में भेज कर लुटेरों के सरदार को बुलवाया और उससे कहाः “देख भाई ! अब तुम्हें यहाँ तक आने की मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। तुम्हें जो भी सीधा-सामान चाहिए उस यह माधोलाल तुम्हारे घर तक पहुँचा देगा।”

लुटेरों के सरदार को अत्यंत विस्मय हुआ। जब उसने पूरी बात सुनी तो उसका हृदय परिवर्तित हो गया और वह गद्गद कंठ से बोलाः “बाबा जी ! आप यहाँ मौज से रहें। अब आपको कोई भी परेशान नहीं करेगा। हमारे अपराधों को माफ कर दें।” इतना कहते-कहते वह बाबा जी के चरणों में गिर पड़ा। बाबा जी ने भी उसके सिर पर प्रेमपूर्वक अपना करकमल रख दिया।

धन्य हैं वे सत्शिष्य, जो संतों के सान्निध्य एवं सत्संग की महिमा को जानते हैं ! ऐसे सत्शिष्यों का दिव्य भाव लुटेरों का भी हृदय बदल दे तो इसमें क्या आश्चर्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 15, 19 अंक 271

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ऐसे सद्गुरु की शरण में जायें


समर्थ रामदासजी

कोई औषधियों का प्रयोग, कीमियागरी (कीमिया – लोहे-ताँबे से सोना-चाँदी बनाने की विद्या), नजरबंदी और केवल दृष्टि से इच्छित वस्तु को तत्काल प्राप्त कर लेने का मार्ग बतलाते हैं। कोई साहित्य, संगीत, राग-ज्ञान, गीत, नृत्य, तान-मान और अनेक वाद्य सिखलाते हैं। ये सभी एक प्रकार के गुरु हैं। कोई पंचाक्षरी विद्या सिखाते हैं अथवा नाना प्रकार की झाड़-फूँक या जिन विद्याओं से पेट भरता है, वे सिखाते हैं। जिस जाति का जो व्यापार है वह पेट भरने के लिए सिखाते हैं, वे भी गुरु हैं परंतु वे वास्तव में सदगुरु नहीं हैं। अपने माता-पिता भी यथार्थ में गुरु ही हैं परंतु जो भवसागर से पार करते हैं, वे सदगुरु दूसरे ही हैं।

जो ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें, अज्ञानांधकार का निवारण करें, जीव और शिव का ऐक्य करें, जीवपन और शिवपन के कारण ईश्वर और भक्त में जो भिन्नता आ गयी है, उसे जो मिटायें अर्थात् परमेश्वर और भक्त को एक करें, वे सदगुरु हैं।

भव-भयरूपी व्याघ्र पंचविषयीरूपी छलाँगे मारकर जीवरूपी बछड़े को ईश्वररूपी गौ से छीन लेता है। उस समय जो अपने ज्ञानरूपी खड्ग (तलवार) से उस व्याघ्र को मारकर बछड़े को बचाते हैं और गौ से फिर उसे मिला देते हैं अर्थात् जीव और ब्रह्म का ऐक्य कर देते हैं, वे ही सदगुरु हैं। जो प्राणी मायाजाल में पड़कर संसार-दुःख से दुःखित हों उनको जो मुक्त करते हैं, वासनारूपी नदी की बाढ़ में डूबता हुआ प्राणी घबरा रहा है – वहाँ जाकर उसे जो पार लगाते हैं, जो ज्ञान देकर गर्भवास के भारी संकट और इच्छा-बंधन की बेड़िया काट देते हैं, जो अपने उपदेश के अप्रतिम प्रभाव से आत्मदर्शन (आत्मानुभव) करा देते हैं, शाश्वत से मिला देते हैं वे ही सद्गुरु हैं, सच्चे रक्षक हैं। जीव बेचारा जो एकदेशीय है, उसे जो साक्षात ब्रह्म ही बना देते हैं और उपदेशमात्र से संसार के सारे संकट दूर करते हैं तथा वेदों का गूढ़ तत्त्व प्रकट करके जो शिष्य के हृदय में अंकित कर देते हैं, वे सदगुरु हैं।

जो गुरु शुद्ध ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी कर्मयोगी अर्थात् ‘सत्’ का अनुभव  उपदेश करने वाले होते हैं, वे ही सदगुरु हैं और वे ही शिष्य को परमात्म-दर्शन करा सकते हैं।

शास्त्र-अनुभव, गुरु अनुभव और आत्म-अनुभव – तीनों का मनोहर संगमरूपी लक्षण जिस पुरुष में दिखे, वे ही उत्तम लक्षणों से सम्पन्न सद्गुरु हैं। जो सचमुच में मोक्ष पाना चाहता है ऐसे जिज्ञासु को पूरे मन से और अत्यंत आदर के साथ ऐसे सदगुरु की शरण में जाना चाहिए, उनसे विनम्र व निष्कपट होकर आत्मविद्या का लाभ लेना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 14, अंक 271

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ऋषि प्रसाद सेवादारों की सेवा सराहनीय है


पूज्य बापू जी

(ऋषि प्रसाद जयंतीः 31 जुलाई 2015)

‘ऋषि प्रसाद’ के सेवाधारियों कि सेवा सराहनीय है। जो भी सेवाधारी ऋषि प्रसाद की सेवा करते हैं, उनकी जगह पर अगर वेतनभोगी रखें तो वे इतने प्रेम से सेवा नहीं करेंगे और उन्हें वह आनंद नहीं आयेगा जो सेवाधारियों को आता है। क्योंकि उनकी नज़र रुपयों पर होगी और सेवाधारियों की नजर है गुरुप्रसाद पर। हमारा लक्ष्य तो

राम काजु कीन्हें बिन मोहि कहाँ बिश्राम।

भोगी लोग आखिर नरकों में ले जाते हैं और ऋषि प्रसाद के सेवाधारी ज्ञान दे रहे है तो ज्ञानयोगी बन जायेंगे। और ज्ञानयोगी जहाँ जायेगा वहाँ नरक भी स्वर्ग हो जाता है। श्वास स्वाभाविक चल रहा है, उसमें ज्ञान का योग कर दो ‘सोऽहम्’।

जो भी सेवाधारी कोई सेवा करते हैं तो वे अपना कल्याण करने के लिए कर रहे हैं। भोग वासना को मिटाने के लिए कर्मयोग कर रहे हैं।

यह बात पक्की कर लो !

ऋषि प्रसाद के जो सेवाधारी हैं, उनकी सेवाओं से लाखों लोगों तक हाथों-हाथ ‘ऋषि प्रसाद’ पहुँचती है लेकिन हम उनको शाबाशी नहीं देंगे। वे जानते हैं कि ‘बापू जी हमको नकली दुनिया से बचाते हैं, नकली शाबाशी से बचाते हैं और बापू जी ऐसी चीज देना चाहते हैं जो भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा ब्रह्मज्ञानियों के हृदय में लहराती है, स्फुरित होती है…. वह खजाना देना चाहते हैं।’

ब्रह्मवेत्ता के सिवा अन्य लोगों का संग करोगे तो वे अपनी ही कल्पनाओं में, अपने ही रंग में आपके चित्त को रँगेंगे। ब्रह्मज्ञानी के संग के बिना जो भी संग हैं, वे संसार में घसीटने वाले संग हैं। ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का संग ही सत्संग है, बाकी सब कुसंग है कुसंग ! कर्मों के जाल में बाँधे वह कुसंग और कर्म को योग बना दे वह सत्संग। सत्यस्वरूप परमात्मा से मिला देने वाला कर्म सत्संग है और ईश्वर से मिलाने वाला, परमात्मा से मिलाने वाला संग ही सत्संग है। मुझे तो यह बात ऋषि प्रसाद वालों को पक्की करानी है कि

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

अब काम पर मस्ताना, लोभ पर मस्ताना, धन में मस्ताना तो कई लोग देख लिये। वाहवाही में मस्ताना कइयों को देखा। अरे, कोई निंदा भी करे तब भी वही शांति बनी रहे। कोई वाहवाही करे या निंदा करे तब भी क्या फर्क पड़ता है ! सुखद स्थिति आये तो क्या हो गया ? समय तो पसार हो रहा है। समय सभी को निगल रहा है। काल को जो जानता है, उस अकाल ‘सोऽहम्’ का स्वभाव को तू पहचान ले बस, हो गया काम !

सबसे बड़ा और अनोखा आशीर्वाद

‘तुम्हारे सामने दुःख न आये, तुम सदा सुखी रहो’ – यह आशीर्वाद हम नहीं देते हैं लेकिन ‘तुम सुख और दुःख के भोक्ता न बनो, उनको साधन बना लो। सुख आये तो बहुजनहिताय और दुःख आय तो बहुत गयी थोड़ी रही…. आया है सो जायेगा…. संयम और सोऽहम्… दुःख का द्रष्टा दुःखी नहीं होता, सुख का द्रष्टा सुखी नहीं होता अपितु बाँटकर आनंदमय होता है।

यह भी देख, वह भी देख।

देखत देखत ऐसा देख कि मिट जाय धोखा, रह जाय एक।।

सोऽहम्… शिवोऽहम्… आनंदोऽहम्…। तुम अपने आत्मा को जानो, जहाँ सुख-दुःख तुच्छ हो जायें तथा संसार स्वप्न हो जाय’, बस ! इससे बड़ा आशीर्वाद तो कोई हो सकता है, यह मेरे को समझ में नहीं आता।

‘तुम भी निर्लेप रहो, बेटे-बेटियाँ भी निर्लेप रहें, संसार छूट जाय उसके पहले उसकी आसक्ति छोड़कर अपना आत्मयोग करो’, बस ! मैं तो यह सलाह देता हूँ, यह शुभ भावना कर सकता हूँ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 271

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