Yearly Archives: 2015

भारत में मानव-अधिकार नहीं हैं ?


-मिसेज ए. हिग्गिंस, लंदन, इंग्लैंड
(अंग्रेजी में प्राप्त हुई ईमेल का अनुवाद)
मैं एक 58 वर्षीय महिला हूँ, जिसका जन्म इंग्लैंड में हुआ था। मेरे माता-पिता के धर्म अलग-अलग थे। उन्होंने मुझे कोई भी धर्म अपनाने की स्वतंत्रता दी। मैंने बहुत सारे धर्म देखे लेकिन उनमें से कोई भी मुझे मेरे अनुकूल नहीं लगा। मैं समझो एक अरण्य में उलझ गयी। मुझे धर्म की जरूरत थी पर मैं एक ऐसा धर्म चाहती थी जो मुझे सांत्वना, सुख और स्वीकृति दे, जो सबको बिना शर्त के स्वीकार करता हो और जिसे मैं सच्चे हृदय से स्वीकार कर सकूँ।
50 वर्ष की उम्र में मैंने जब पहली बार 2007 में ग्वालियर (म.प्र.) में बापू जी के दर्शन किये तो मुझे लगा कि जिसकी आशा कर रही थी वही धर्म मुझे मिल गया। हिन्दू धर्म सभी का स्वागत करता है और सबको अपना लेता है। यह साम्प्रदायिक धर्मान्धता से बिल्कुल रहित है। यहाँ हर जाति, मत और धर्म के लोगों का स्वागत होता है, यहाँ तक कि धर्मविहीनों के लिए भी इसका द्वार खुला है।
यह मेरे लिए अब तक का सबसे विलक्षण अनुभव था। मैंने बापू जी से दीक्षा ली और अपने जीवन में पूर्णता का एहसास किया। मैं अपने आपको अत्यंत भाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे एक हयात ब्रह्मज्ञानी संत गुरु के रूप में मिले।
मैं एक सफल प्रॉपर्टी डेवलपर हूँ। मेरा जीवन स्तर काफी सम्पन्न है। लेकिन यह क्षणभंगुर सफलता उस सच्चे सुख के मुकाबले में कुछ भी नहीं है जिसे मैंने बापू जी से मिलने के उपरान्त अपनी आत्मा में विश्वास के रूप में पाया है।
जब मैं बापू जी से मिली, उसी क्षण उन्होंने मुझे अपने चरणों में स्थान दिया। बापू जी ने कभी मुझसे एक रुपया भी नहीं मांगा। बापू जी और उनके शिष्यों की साधुताई से मेरे आध्यात्मिक कल्याण के लिए सब कुछ हुआ है। मैं कितनी भाग्यशाली और धन्य हूँ, यह मेरे लिए शब्दों में बयान करना असम्भव है। जब से बापू जी मिले हैं तब से मेरे जीवन में बहुत सारी चमत्कारी घटनाएँ घटी हैं और अब भी घटती रहती हैं। मेरे जीवन में मानो अब सब कुछ बहुत ही आसान सा हो गया। मैं अपने प्यारे गुरुदेव बापू जी के प्रति सदा कृतज्ञ रहूँगी क्योंकि उन्होंने मुझे विश्वास, आशा और उदारता प्रदान की।
यह मेरी समझ से बाहर है कि आज बापू जी जेल में क्यों हैं। इन बुजुर्ग संत को तो इस उम्र में अपने निःस्वार्थ भाव तथा अथक प्रयासों से किये हुए समस्त पुण्यमय एवं पवित्र संत-उचित कार्यों को भली प्रकार पूरा करने के सुफलों का आनंद उठाते हुए आराम करना चाहिए था। उन लोगों को अपने किये पर वास्तव में शर्म आनी चाहिए जिन्होंने बापूजी को फँसाने के लिए यह षड्यंत्र रचा है। आज जो भारत में बापू जी के साथ हो रहा है ऐसा पूरे विश्व में कहीं पर भी नहीं होता। क्या भारत में मानव-अधिकार की रक्षा करने वाली व्यवस्था नहीं है ? बापू जी के अधिकारों का क्या हुआ ? उन्हें एक साजिश के तहत 2 साल से भी ज्यादा समय से जेल में रखा गया है। उनके खिलाफ न तो कोई ठोस सबूत है और न ही मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि हुई है फिर भी उनको जमानत क्यों नहीं दी जाती ? भारत एक बुजुर्ग सज्जन के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है ?
मैं रोज बापू जी की रिहाई हेतु प्रार्थना करती हूँ। मुझे आशा है कि भारत शीघ्र ही जागेगा और अपने किये हुए को समझते हुए बापू जी को रिहा कर देगा। यह एक लोकतांत्रिक सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात है कि वे एक ऐसे महानतम दर्जे के देशभक्त संत के साथ इस कदर अत्याचार कर रहे हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन अपने देश और पूरे विश्व की भलाई के लिए न्योछावर कर दिया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 29 अंक 275
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अडिग रहा वह शूरमा, पाया अविचल धाम


एक बार संत चरनदासजी के शिष्य गोसाईं जुगतानंद जी चुरु (राज.) पधारे। उनका सत्संग व दर्शन पाकर वहाँ के शासक काँधलोत राठौड़ वंश के हरिसिंह जी उनके शरणागत हो गये। उन्हीं के वंश के एक नवयुवक ने भी जुगतानंद जी से दीक्षा ले ली। गुरुकृपा से उसका वैराग्य जागा और वह संसार से उदासीन रहकर हर समय जप व ध्यान में तल्लीन रहने लगा। उसका वैराग्य जब कुछ शिथिल पड़ता तो वह संत चरनदास जी के पद-पदावलियों को पढ़ता। उनके पद विवेक-वैराग्य जगाते, जिससे उस नवयुवक का मन नयी शक्ति व उत्साह के साथ पुनः भजन में लग जाता। नवयुवक के माता-पिता को बेटे की स्थिति देख चिंता हुई, उन्होंने उसका विवाह कर देना चाहा। वे उसे अनेकों महापुरुषों के उदाहरण व शास्त्र-वचनों के प्रमाण दे-दे के विवाह के लिए राज़ी करने की कोशिश करके किंतु युवक का वैराग्य बड़ा तीव्र था।
माता-पिता ने युक्ति से उसका विवाह कर दिया। विवाह के दूसरे दिन ही अर्धरात्रि में वह घर से निकल गया और अपने गुरुदेव के पास दिल्ली जा पहुँचा।
दूसरे दिन प्रातः उसे घर में न देख हाहाकार मच गया। चुरु में चारों ओर भाग दौड़ करने पर जब वह कहीं न मिला तो माता-पिता गुरु जी के आश्रम पहुँच गये। अपने बेटे को वहाँ देख वे रो-रोकर गुरु जी से प्रार्थना करने लगे कि “इसे वापस भेज दो।” गुरु जी ने कहाः “बेटा ! तुम घर जाओ। घर जाकर भजन करो।”
वह गुरु जी की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका। वह माता-पिता के साथ चला गया। उसने गुरुआज्ञा का पूरी तरह पालन किया। घर में रहकर भजन करने लगा पर खाना-पीना बंद कर दिया। उसके माता-पिता उसे समझाने लगे किंतु वह उलटा अपने माता-पिता को कहताः “घर में आग लगी हो और कोई आपसे कहे खाने को तो आप बैठे-बैठे खाना खायेंगे या घर से बाहर निकल के किसी सुरक्षित स्थान पर जाने की चेष्टा करेंगे ? संसार में आग लगी है। महाकाल की प्रचंड अग्नि फैल-फैलकर प्राणियों को भस्मीभूत करती जा रही है। न जाने कौन, कब उसके लपेटे में आ जाय ? गुरुदेव के शीतल चरणों को छोड़ ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ जीव सुरक्षित रह सके। पर आप लोग मोहवश संसार से चिपके हुए हैं, मुझे भी चिपकाये रखना चाहते हैं।”
कई दिन हो गये उसे निराहार रहते। उसका शरीर कृश होता गया। माता-पिता को भय हुआ कि कहीं उसके प्राण ही न निकल जायें। तब उन्होंने कहाः “अच्छा बेटा ! यदि तुम्हारा यही निश्चय है कि तुम गुरुदेव की शरण में रहकर भजन करोगे तो भले ही उनके पास चले जाओ। जहाँ भी रहो, सुख से रहो। भगवान तुम्हारा मंगल करें।”
लड़के ने कहाः “मुझे तो गुरुदेव की आज्ञा है घर पर रहकर ही भजन करने की। मैं उनकी आज्ञा के बगैर और कहीं नहीं जाऊँगा।”
हारकर पिता ने गुरुदेव के पास एक आदमी द्वारा समाचार भेजा। गुरुदेव की आज्ञा मिलते ही वह माता-पिता को प्रणाम कर प्रसन्न मन से गुरुदेव के पास चल दिया।
वह अब गुरुदेव के आश्रम पहुँचा तो रात्रि अधिक हो गयी थी और बरसात हो रही थी। आश्रम का दरवाजा बंद हो गया था। गुरुदेव को नींद से जगाता कैसे ? पूरी रात वह भीगते हुए बाहर ही खड़ा रहा।
प्रातः होते ही वह गुरुदेव के चरणों में जा गिरा। गुरुदेव ने उसे हृदय से लगा लिया और उसे विरक्त वेश दिया और नाम रखा अडिगदास। क्योंकि वह अपने संकल्प पर दृढ़ व अडिग रहा था और गुरुदेव उसकी दृढ़ता से बहुत प्रसन्न थे।
अडिगदास जी की गुरुनिष्ठा अद्वितीय थी। गुरुनिष्ठा के बल पर ही उन्हें भगवत्प्राप्ति हुई। उन्होंने अपने कई दोहों में गुरुकृपा का वर्णन इस प्रकार किया हैः
धन धन सत गुरुदेव जी, अनन्त किया उपकार।
‘अडिगदास’ भवसिन्धु सूँ, सहज लगाया पार।।
दया शील संतोष दै, प्रेम भक्ति हरि ध्यान।
‘अडिगदास’ सतगुरु कृपा, पापा पद निर्वान।।
छिन छिन1 सतगुरु कृपा करि, सार सुनायो नाम।
‘अडिगदास’ तिह प्रताप तें, पायो अविचल धाम।।
1-क्षण-क्षण।
अडिगदास के भजनों में साधकों के लिए अडिग रहने का बहुमूल्य उपदेश है। उनका कहना है कि भजन में शूर और सती की भाँति अडिग रहना चाहिए। जैसे शूर रणभूमि में पीछे मुड़कर अपने बंधु-बांधवों की ओर नहीं देखता, जैसे सती पीछे मुड़ के संसार की ओर नहीं देखती, वैसे ही साधक को भी संसार की ओर दृष्टि न रख के अपने सदगुरु की ओर केन्द्रित रखनी चाहिए। भजन में अडिग रहने से भगवान मिलते हैं, डगमग-डगमग करने से नहीं मिलतेः
‘अडिगदास’ अडिग रहो, डिगमिग डिगमिग छाँड।
टेक2 गहो हरि भक्ति की, सूर सती ज्यों मांड।।
‘अडिगदास’ अडिग रहो, ज्यों सूरा रणखेत।
पीठ फेर देखै नहीं, तजे न हरि का हेत।।
2-आधार।
स्रोतः ऋषि प्रसाद नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 275
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आत्मा ब्रह्म बनता नहीं, स्वयं ब्रह्म ही है


ब्रह्मज्ञान से ग्रंथि (अज्ञान ग्रंथि) और उसके मूल – दोनों का नाश हो जाता है। आत्मा में आत्मा के अज्ञान से बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, विषय इनके संयोग-वियोग, सुख-दुःख सब प्रतीत होते हैं। परंतु सम्पूर्ण प्रतीति वहीं दिखती है जहाँ यह नहीं है। अनंत में सांत (अंतयुक्त), चेतन में जड़, सत् में असत्, अनन्य में अन्य और अद्वितीय में अनेक दिखता है। सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु अपने अभाव के अधिष्ठान में ही दिखते हैं (जैसे रस्सी में साँप)। अतः वे सब प्रतीतियाँ मिथ्या हैं और प्रतीति का अधिष्ठान (जिसमें वे भास रही हैं) देश-काल-वस्तु से अपरिच्छिन्न ब्रह्म हैं।
इसी अधिष्ठान ब्रह्म के ज्ञान के लिए हम ब्रह्मविचार करते हैं। शांति से चुप बैठे रहने का नाम ब्रह्मविचार नहीं होता। ‘शांति’ विचार के जागरण की भूमि है परंतु विचार नहीं है। अज्ञान का नाश शांति से नहीं, विचार से होता है और विचार आत्मा व ब्रह्म की एकता का होना चाहिए।
आत्मा ब्रह्म बनता नहीं है, स्वयं ब्रह्म ही है। उसका ब्रह्मत्व केवल अज्ञान से आवृत है। ज्ञान द्वारा वह अज्ञान नष्ट हो जाता है और ब्रह्मत्व प्रकट हो जाता है। जो वस्तु ज्ञान से मिलती है वह पहले से ही मिली रहती है और जो वस्तु अज्ञान से अनमिली रहती है वह भी पहले से ही मिली होती है। अतः आत्मा का ब्रह्मत्व सिद्ध ही है, ज्ञान से केवल उसके अनमिलेपन का भ्रम निवृत्त होता है। यही कारण है कि ब्रह्म की प्राप्ति कर्म, उपासना या योग-समाधि से नहीं होती, केवल वेदांत-ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) से होती है। आत्मा में अज्ञान नित्यनिवृत्त है। ज्ञान से नित्यनिवृत्ति की ही निवृत्ति होती है।
कई आश्चर्य अज्ञान को नहीं मानते। बड़े घटाटोप (उग्रता, प्रबलता) के साथ वे अज्ञान का खंडन करते हैं। इसके लिए वे आश्रयानुपपत्ति, विषयानुपपत्ति, निमित्तानुपपत्ति, निवर्तकानुपपत्ति, निवृत्यनुपपत्ति आदि अनेक अनुपपत्तियों का वर्णन करते हैं।*** किन्तु ऐसा करके वे अद्वैत मत का ही मंडन करते हैं क्योंकि अद्वैत मत में भी अज्ञान नित्यनिवृत्त ही है। यह तो केवल सबकी प्रत्यक्ष अनुभूति है कि ‘मैं अज्ञानी हूँ, ब्रह्म को नहीं जानता’ इसका प्रतिपादन करके अज्ञान सिद्ध करता है और परमार्थतः उसका अनुभव न होने से उस नित्यनिवृत्त घोषित करता है। इसलिए ब्रह्मज्ञान से नित्यनिवृत्त अज्ञान की ही निवृत्ति होती है, किसी सत्य अज्ञान की नहीं।
*** उपपत्ति यानी जिस विषय को सिद्ध करना है उसके समर्थन में तर्कसंगत युक्ति। उपपत्ति का विरोधी शब्द है अनुपपत्ति यानी उपपत्ति का अभाव (असंगति या असिद्धि) । अद्वैत वेदांत के सिद्धान्त में अविद्या के स्वीकार के खंडन के लिए श्री रामानुजाचार्य जी ने जो आपत्तियाँ उठायी हैं, जिनके कारण वे अविद्या का स्वीकार नहीं कर सकते, वे हैं-
आश्रय अनुपपत्ति- अविद्या का आश्रय नहीं मिलता।
विषय अनुपपत्ति- अविद्या का विषय नहीं मिलता।
निमित्त अनुपपत्ति- अविद्या का निमित्त कारण नहीं मिलता।
निवर्तक अनुपपत्ति- अविद्या को मिटाने वाला नहीं मिलता।
निवृत्ति अनुपपत्ति- अविद्या का सम्पूर्ण रूप से मिटना सम्भव नहीं है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 21, अंक 274
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ