Monthly Archives: July 2016

ऐसे महान बुद्धिमानों की संतानें गुरुकुल में रहती हैं


पूज्य बापू जी

एक बार शहर के किसी विद्यालय के प्रधानाचार्य विद्यार्थियों को लेकर जंगल के एकांत गुरुकुल में गये। शहर के विद्यार्थियों ने देखा कि ‘बेचारे गुरुकुल के विद्यार्थी धरती पर सोते हैं, गायें चराते हैं, गाये दोहते हैं और गोबर के कंडे सुखाते हैं, लकड़ियाँ इकट्ठी करने जाते हैं….’ उन बच्चों ने कहाः “प्रधानाचार्य जी ! ये गरीबों, कंगालों के बच्चे हैं, लाचारों के बच्चे हैं जो गुरुकुल में पड़े हैं बेचारे !”

आचार्य ने कहाः “ऐसा नहीं है। चलो, गुरुकुल के गुरु जी से मिलते हैं।”

बातचीत करते-करते प्रधानाचार्य और गुरुकुल के गुरु जी ने निर्णय किया कि गुरुकुल के विद्यार्थी और शहरी विद्यालय के विद्यार्थी आपस में चर्चा करें, विचार-विमर्श करें। चर्चा करते-करते शहर के विद्यार्थियों ने देखा कि ‘ये हर तरह से हमारे से आगे हैं। शरीर हमारे से सुदृढ़ हैं और शिष्टाचार, नम्रता में और दूसरे को मान देकर आप अमानी रहने में राम जी का गुण इनमें ज्यादा है। शारीरिक संगठन मजबूत है, बौद्धिक क्षमताएँ भी तगड़ी हैं, स्मरणशक्ति भी गजब की है तथा व्याख्यान पर अपना अधिकार भी है और इतना होने पर भी निरभिमानिता का बड़ा सदगुण भी इनमें हैं। हर तरह से ये हमारे से बहुत आगे हैं।’

शहर के विद्यार्थियों ने कहाः “कंगाल और गरीबों के बच्चे इतने आगे कैसे ?”

प्रधानाचार्य ने कहाः “ये गरीबों और कंगालों के बच्चे नहीं हैं। ये दूरदर्शियों के बच्चे हैं, बुद्धिमानों, धनवानों के भी बच्चे हैं। वे दूरदर्शी जानते हैं कि विद्यार्थी-जीवन में विलासिता और सुविधा की भरमार देंगे तो बच्चे खोखले हो जायेंगे, विघ्न-बाधा और कष्टों में विद्याध्ययन करेंगे तो लड़के मजबूत होंगे, ऐसे महान बुद्धिमानों की संतान हैं जो गुरुकुल में रहते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 26, अंक 283

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ऋषि प्रसाद की सेवा में भागीदार पुण्यात्मा मुक्ति की यात्रा करते हैं


(ऋषि प्रसाद जयंतीः 19 जुलाई 2016)

हम असत्य से सत्य की ओर जायें, अंधकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर जायें इसीलिए मनुष्य जन्म मिला है और ऋषियों का यही प्रसाद है।

मेरे गुरुदेव 10 महीने तो सत्संग साधन-भजन आदि द्वारा समाजरूपी देवता की सेवा करते थे, 2 महीने नैनीताल के जंगल में एकांत में रहने पधारते थे। तब भी वे महापुरुष सुबह घूमने जाते तो छोटी मोटी गठरी बना लेते कुछ पुस्तकों की। उसे अपने सिर पर रखकर पहाड़ी पर जहाँ आश्रम था वहाँ से नीचे उतरते और दूसरी पहाड़ी पर जहाँ देहातियों के 25-50 घर होते, वहाँ जाकर उन लोगों को ‘ईश्वर की ओर’, ‘पुरुषार्थ परम देव’, जैसी, विद्यार्थियों के लिए अमुक-अमुक, नारियों के लिए अमुक-अमुक पुस्तकें देते। उन महापुरुष ने सिर पर गठरी रखकर पहाड़ी के देहातियों को भी भगवद्भक्ति मिले, उनका शरीर स्वस्थ रहे और जीवन जीवनदाता के काम आने योग्य बने तथा उनके कुल-खानदान का मंगल हो ऐसे साहित्य को पहुँचाने की सेवा की।

तो इतना श्रम करके जिन महापुरुषों ने शास्त्र का प्रसाद लोगों तक पहुँचाया, उन्हीं महापुरुषों का कृपा-प्रसाद सत्संग के रूप में और ऋषि प्रसाद के रूप में ऋषि प्रसाद के सेवकों के द्वारा घर-घर अभी भी पहुँच रहा है। फर्क यह है कि वे गठरी बाँधकर सिर पर ले जाते थे और अभी उनके पोते…. मैं गुरु जी का शिष्य अर्थात् बेटा हुआ और मेरे शिष्य उनके पोते… कोई साइकिल पर तो कोई स्कूटर पर तो कोई बस में तो कोई पैदल थैले में ऋषि प्रसाद लेकर जाते हैं लेकिन काम वही कर रहे हैं। और वे पुस्तकें अनेक होती थीं जबकि ऋषि प्रसाद एक है परंतु इसमें अनेक पहलुओं का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान हर महीने मिलता है। वहाँ तो साल में दो महीने ही गुरु जी ऐसा करते थे, यहाँ तो बारहों महीना लोगों को ताजा प्रसाद मिलता रहता है। मुझे तो लगता है कि मेरे गुरु जी के श्रम से आपका श्रम कम है लेकिन सेवा आपकी दूर तक पहुँचती है। गुरु जी तो एक-दो गाँव में घूमकर साहित्य देते थे, तुम तो दसों गाँव तक पहुँच जाते हो। इसीलिए हजारों नहीं, लाखों घरों में ऋषि प्रसाद जाती है।

ऋषियों की, संतों की, वैदिक संस्कृति की प्रसादी लोगों तक पहुँचाना यह स्वार्थी आदमी के बस का नहीं है। सेवा करके जो वाहवाही चाहता है वह अपनी सेवा का धन खर्च डालता है। ‘जहाँ आदर हो वहाँ ऋषि दें और जहाँ अनादर हो वहाँ न दें, नहीं-नहीं, जहाँ अनादर होता है वहाँ खास जाओ।

आदर तथा अनादर, वचन बुरे त्यों भले।

निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले।।

वह आदमी ईश्वर को पा लेगा। ‘आदर तथा अनादर शरीर का है, मेरा नहीं है। अपना तो उद्देश्य सेवा का है’ जो ऐसा मानेगा, वह मनुष्य दुनिया को बहुत कुछ दे सकता है।

‘ऋषि प्रसाद’ पत्रिका घर-घर तक पहुँचाने की दैवी सेवा करने वाले पुण्यात्माओं का हौसला बुलंद है। यह ‘ऋषि प्रसाद’ पहुँचाने की दैवी सेवा करने वालों को अपनी योग्यता के अनुसार जैसा भी कोई काम मिलता होगा, वे अगर शांत होकर अपने पिया प्रभु से पूछें कि ‘मैंने यह किया, कैसा किया ?’ तो मैं दावे से कहता हूँ कि उनका अंतरात्मा कहेगा कि ‘बहुत बढ़िया कर रहे हो !’ उन्होंने अपने कर्तृत्व का सदुपयोग सत्यस्वरूप ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया है तो उनका अंतरात्मा संतुष्ट होता होगा। हर एक शुभ कर्म कर्ता को संतोष की झलक देता है। ऐसा करते-करते कर्ता का अंतःकरण शुद्ध होता है। कर्म करने के पहले उत्साह होता है, कर्म करते वक्त पौरूष होता है, कर्म करने के बाद कर्म का फल अपने हृदय में फलित होता है। अपने हृदय में शांति, आनंद, प्रसन्नता अथवा अंतरात्मा का धन्यवाद फलित हो तो कर्ता मान ले कि यह कर्म प्रवृत्ति, पराश्रय से तो हुआ लेकिन इसने ‘स्व’ के आश्रम में ला दिया। जब परमात्मा के निमित्त, प्रभु की प्रसन्नता के निमित्त युद्ध जैसा घोर कर्म करके भी आदमी मुक्ति पा सकता है, अर्जुन, भीष्म मुक्ति पा सकते हैं तो फिर मुक्ति का मार्ग दिखाने वाली ‘ऋषि प्रसाद के दैवी कार्य में भागीदार होने वाले मुक्ति के रास्ते की यात्रा नहीं कर पायेंगे ? जरूर करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 283

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संसार-बंधन से मुक्त होने का उपायः सद्गुरु-सेवा


 

सदगुरु की महिमा बताते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं- “हे उद्धव ! सदगुरु के लक्षण बताते समय शब्द कम पड़ जाते हैं। जो सनातन पूर्णब्रह्म ही हैं, उन्हें लक्षण की क्या आवश्यकता है ? फिर भी एक लक्षण बताने का स्फुरण आता है कि उनमें सर्वत्र शांति दिखाई देती है। उद्धव ! वह शांति ही समाधान है, ब्रह्मज्ञान है और पूर्णब्रह्म है !”

सदगुरु की विलक्षणता सुनकर शिष्य की कैसी दशा होती है, इस स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं- “सदगुरु की ऐसी स्थिति जानकर शिष्य के मन में गुरुभक्ति के प्रति प्रीति और भी अधिक बढ़ गयी। इसलिए वह गुरु की खोज में निकल पड़ा, उसका अंतःकरण उसे विश्राम नहीं करने देता था। आठों पहर वह गुरु के लक्षणों का ही चिंतन करने लगा, ‘उस सर्वसमर्थ को मैं कब देख पाऊँगा ? मेरा यह पाश कब छूटेगा ? मन को परम शांति कब प्राप्त होगी ?’ इस प्रकार वह सदगुरु के लिए पिपासा से भर गया। ‘देखते-देखते यह आयुष्य समाप्त होने को आया है लेकिन मेरी अभी सदगुरु से भेंट नहीं हो रही, यह मनुष्य-देह समाप्त होते ही सब कुछ डूब जायेगा।’ ऐसा से लगने लगता है।

गुरु का सिर्फ नाम सुनते ही वह मन से आगे भागने लगता है और उस वार्ता के ही गले लग जाता है, उसकी आतुरता इतनी बढ़ जाती है ! यदि सदगुरु से प्रत्यक्ष भेंट नहीं होती  तो वह मन से ही गुरुनाथ की पूजा करने लगता है और परम भक्ति से पूजा करते समय उसका प्रेम इतना अधिक उफन उठता है कि वह हृदय में नहीं समा पाता। नित्यकर्म करते समय भी वह एक क्षण के लिए भी गुरु को नहीं भूलता। वह निरंतर ‘गुरु-गुरु’ का जप करता रहता है। हे उद्धव ! गुरु के अतिरिक्त वह अन्य किसी का चिंतन नहीं करता। उठते-बैठते, खाते सोते समय वह मन में गुरु का विस्मरण नहीं होने देता। जाग्रत तथा स्वप्नावस्था में भी उसे गुरु का निदिध्यासन लगा रहता है। देखो ! केवल गुरु का स्मरण करते ही उसमें भूख-प्यास सहने का सामर्थ्य आ जाता है। वह घर-बाहर के सुख को भूलकर सदा परमार्थ की ही ओर उन्मुख रहता है। सदगुरु के प्रति जिसका प्रेम रहता है, उसकी आस्था प्रतिस्पर्धा से बढ़ती ही जाती है। उसे गुरु के रूप में तत्काल चिद्घन चैतन्य ही दर्शन देता है। उत्कंठा जितनी अधिक रहती है, उतनी ही भेंट अधिक निकट होती है। भेंट के लिए साधनों में विशेष उत्कंठा यही प्रमुख साधन है। अन्य कितने ही बड़े साधनों का प्रयोग क्यों न करें लेकिन आत्मज्ञान का अल्पांश भी हाथ नहीं लगेगा लेकिन यदि सदगुरु के भजन में आधी घड़ी भी लगा देंगे तो आत्मज्ञान की राशियाँ झोली में आ जायेंगी।

सदगुरु के भजन में लगने से मोक्ष भी चरणों पर आ पड़ता है। लेकिन  गुरु का भक्त उसे भी स्वीकार नहीं करता क्योंकि वह श्रीचरणों में ही तल्लीन रहता है। श्री गुरु चरणों का आकर्षण ऐसा होता है कि उसके सामने मोक्षसुख का भी विस्मरण होता है। जिनकी रुचि गुरु-भजन में नहीं होती, वे ही संसार के बंधन में पड़ते हैं। संसार का बंधन तोड़ने के लिए सदगुरु की ही सेवा करना आवश्यक है। सदगुरु की सेवा ही मेरा भजन है क्योंकि गुरु में और मुझमें कोई भेदभाव नहीं है। हे उद्धव ! इस प्रकार गुरुभक्तों की श्रद्धा कितनी असीम होती है और उन्हें गुरु-भजन के प्रति कितना प्रेम रहता है यह मैंने अभिरुचि के साथ, बिल्कुल स्पष्ट करके तुम्हें बताया है।”

(श्री एकानाथी भागवत, अध्यायः 10 से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 11, अंक 271

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