बालक तीर्थराम जब एक वर्ष के थे तभी उनकी माँ का देहान्त हो गया था। उनका पालन-पोषण उनकी बुआ ने किया था, जो एक धर्मपरायण महिला थीं। वे प्रतिदिन बालक को मंदिर ले जातीं। बालक के मन पर वहाँ के सात्त्विक वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। शंख-ध्वनि से तीर्थराम को इतना प्रेम था कि उसको सुनकर वह रोना भूल जाता और एकदम शांत हो जाता।
तीर्थराम के पिता कहते थे कि “जब राम (तीर्थराम) तीन वर्ष का था तब एक दिन संध्या के समय में उसे लेकर सत्संग में गया। उसके लिए सत्संग समझना एक प्रकार से असम्भव था परंतु वह अत्यंत शांत मुद्रा में बैठकर संत की ओर अपलक नेत्रों से देख रहा था। दूसरे दिन जब सत्संग प्रारम्भ हेतु शंख की ध्वनि हुई राम फूट-फूट के रोने लगा। घरवाले उसके रोने का कारण समझ नहीं सके। उसे चुप कराने के लिए मिठाइयाँ और खिलौने दिये परंतु उसने सारी वस्तुएँ फेंक दीं और उसका रोना चिल्लाना चालू ही रहा। अंत में उसे गोद मैं सत्संग स्थल की ओर चला। ज्यों-ज्यों उस स्थान की ओर बढ़ता, त्यों-त्यों वह शांत होता गया। ज्यों ही मैं रुकता, उसका रोना चीखना शुरु हो जाता। वहाँ पहुँचने पर वह अत्यधिक आह्लादित और शांत हो गया। इतना ही नहीं, वह टकटकी लगाकर संत की तरफ देखने लगा।”
उम्र के साथ तीर्थराम का सत्संग के प्रति प्रेम भी बढ़ता गया। चाल साल में तो वे अकेले ही सत्संग सुनने जाने लगे। एकांत से उन्हें खूब अनुराग था तथा वृत्ति बचपन से ही अंतर्मुखी थी। वे प्रायः एकांत में चिंतन में मग्न रहने लगे।
6 वर्ष की उम्र में उन्हें प्रारम्भिक पाठशाला में भर्ती कराया गया। तीर्थराम को स्वाध्याय के प्रति असीम अनुराग था। प्रातःकाल का समय वे अध्ययन, चिंतन, ध्यान में व्यतीत करते। विद्यार्थी जीवन में भी उनका सत्संग के प्रति अनुराग बना रहा। पाठशाला के पास की धर्मशाला में प्रतिदिन दो बजे सत्संग होता था। एक बार उन्होंने अपने अध्यापक से सत्संग में जाने की अनुमति माँगी परंतु उन्होंने इन्कार कर दिया। इससे तीर्थराम की आँखों में आँसू आ गये। उन्होंने करूण भाव से प्रार्थना कीः “साहब ! मुझे सत्संग में जाने दीजिए। मैं एक घंटे वाले अवकाश में पाठशाला का सारा काम पूरा कर लूँगा।” उनकी इस निष्ठा से अध्यापक महोदय भी पिघल गये और उन्हें सहर्ष आज्ञा दे दी। बचपन के आध्यात्मिक संस्कारों तथा सत्संग-प्रेम ने बालक तीर्थराम को आगे चलकर ब्रह्मानुभूति की यात्रा करने में सहायता की और वे स्वामी रामतीर्थ के नाम से विश्वविख्यात हुए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 25, अंक 285
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