Monthly Archives: November 2016

मेरे गुरुदेव की कितनी नम्रता व सत्संग-निष्ठा !


 

(भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज महानिर्वाण दिवस)

आओ श्रोता तुम्हें सुनाऊँ महिमा लीलाशाह की।
सिंध देश के संत शिरोमणि बाबा बेपरवाह की।।…..

मेरे गुरुदेव (साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) को 20 साल की उम्र में ईश्वर साक्षात्कार हो गया, 16 साल की उम्र तो अच्छी तरह से समाधि लग जाती थी। 12 साल की उम्र में खाली बारदान अनाज आदि से भर गये, इतना संकल्पबल ! ऐसे महापुरुष 84 साल की उम्र में भी बिना सत्संग के भोजन नहीं करते थे। एकांत में रहते थे नैनीताल के जंगल में तब भी, कोई सत्संग सुनने वाला नहीं है तो मेरे को और दूसरे दो को बुलाते। योगवासिष्ठ हो, उपनिषद् हो…. मैं पढ़ता और गुरु जी सुनते, फिर कृपा करके थोड़ी व्याख्या भी सुना देते। जैसे स्नान मनुष्य को स्वच्छ रखता है, ऐसे ही सत्संग हमारे मन को स्वच्छ रखने का एक अदभुत साधन है। कुछ लोग सत्संग पढ़ते हैं तो वह लिखकर दूसरे को सुना देते हैं। नहीं, नहीं, मेरे गुरु जी तो सत्संग सुनते-सुनते विश्राम पाते थे। मेरे गुरु जी जब 81 साल के हुए, मैंने अपनी आँखों से देखा कि हरिद्वार में एक जगह पर ‘पंचदशी’ का सत्संग चलता था, 20-25 श्रोता होते थे। गुरु जी अगर प्रवचन करते तो हजारों लोग उनके चरणों में आ जाते लेकिन गुरु जी जहाँ पंचदशी का सत्संग चलता था, वहाँ जाकर बैठ जाते थे। सत्संग करने वाले महामंडलेश्वर को जब पता चलता कि ये श्री लीलाशाह जी बापू हैं तो वे उठकर बुलातेः “आइये-आइये, गद्दी पर बैठिये।” अपनी गद्दी पर बिठा लेते थे।
गुरु जी बोलतेः “ठीक है, ठीक है।”
गुरु जी सामने बैठ जाते श्रोताओं के साथ। कितनी बहादुरी !
एक बार मेरे गुरुदेव घूमते-घामते रमण महर्षि तक पहुँच गये। उनसे बातचीत हुई। रमण महर्षि जी बोलेः “आपकी ऐसी ऊँची स्थिति ! फिर इधर-उधर सत्संग करने को इतना काहे को घूमते हो ? मैं तो इधर बैठा हूँ तो बैठा हूँ।”

मेरे गुरुदेव ने कहाः “सबके हृदय में वही है, फिर भी सभी दुःखी हैं। उनका दुःख देखकर मेरे को बैठने की इच्छा नहीं होती इसलिए मैं घूमता हूँ। इधर-उधर करके उनका दुःख हर के उनको आनंदित करता हूँ, उसका भी मेरे को आनंद है।”

रमण महर्षि जी की आँखें भर गयीं और “धन्य हो लीलाशाह जी ! आप धन्य हो !! इतना आनंद छोड़ के जीवों के दुःख से द्रवित होकर उनके मंगल के लिए घूमते हो !” ऐसा कहकर वे मेरे गुरुदेव लीलाशाह जी को गले लगे।

गुरुदेव का महाप्रयाण मेरी गोद में….
महाप्रयाण के समय मेरे गुरुदेव की कैसी लीला कि चौबीसों घंटे साथ रहने वाले सेवकों में से किसी को कुछ हुआ , किसी को शौच जाना हुआ तो किसी को तैयार होने के लिए नहाने को जाना पड़ा। मेरे गुरुदेव जब आखिरी श्वास लेने वाले थे तो इसी गोद में मेरे गुरु जी के महाप्रयाण का मंगल-कार्य, ज्ञानदाता का मस्तक इसी गोद में, निगाहें मेरी निगाह में तथा मेरी निगाहें उनके श्रीचरणों में और दृष्टि से जो कुछ बरसा-बरसाया, उसी का फल है कि अभी करोड़ों लोग लाभ ले रहे हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 275
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तो मैं अपने धर्म का त्याग क्यों करूँ ?


महात्मा आनंद स्वामी के पिता थे गणेशदास जी। वे एक रिटायर्ड कर्नल के यहाँ मुंशीगिरी करते थे। वहाँ रहते हुए धर्म पर से उनका धीरे-धीरे विश्वास उठता गया। एक दिन उन्होंने ईसाई बनने की ठान ली। सभी लोग इस निर्णय से हैरान परेशान हो गये पर ईसाइयों के लिए यह बड़ी विजय का सूचक था। ‘मंहतों के वंश का प्रतिनिधि ही ईसाई बन जायेगा तो उसके अनुयायी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।’ यह सोचकर ईसाइयों ने खूब प्रचार किया। नगरों में पोस्टर लगाये, ढिंढोरे पीटे गये, दावतनामे भेजे, मिठाइयाँ और फल बाँटने की तैयारियाँ की गयीं।

मुंशी गणेशदास एक दिन पहले ही गाँव से नगर में पहुँचे जहाँ धर्मांतरण कराया जाना था। शाम को सैर पर निकले तो एक जगह ऋषि दयानंद प्रवचन दे रहे थे। मुंशी ने प्रवचन सुना। दयानंद जी ने ईसाई मत की पोल खोल दी।

प्रवचन के बाद मुंशी ने कहाः “महाराज ! आपने मेरी सारी दुविधा दूर कर दी मगर पछतावा इस बात का है कि कल ही मैं ईसाई बन जाऊँगा।”

“कारण ?”

“अपने धर्म में विश्वास नहीं रहा तो ईसाई बनने का संकल्प ले बैठा।”

”भोले मनुष्य ! यह संकल्प नहीं दुःसंकल्प है। संकल्प तो उत्तम भाव का होता है।”

“किंतु मैं वचन दे चुका हूँ।”

“तो उन्हें कहो कि एक संन्यासी ईसाई मत को पाखंडों की गठरी मानते हैं। यदि उन्हें ईसाई बना लो तो मैं भी बन जाऊँगा अन्यथा नहीं।”

मुंशी तत्काल गिरजाघर के पादरी के पास पहुँचे और शर्त उसके सामने रख दी। उसने तुरंत मुंशी के साथ जाकर दयानंद जी को अपने तर्कों के जाल में फाँसने की कोशिशें शुरु कर दीं किंतु उनके जवाबी तर्क सुनकर पादरी चुप हो गया। आखिर झुँझलाकर बोलाः “इस साधु के चक्कर में न पड़ो। इसमें हमारी बात समझने का सामर्थ्य नहीं है।”

मुंशीः “जब आपमें एक प्रकाण्ड विद्वान को भी अपनी बात समझाने की ताकत नहीं है तो आप मुझे क्या समझा पायेंगे ? इन्होंने मेरे सारे संशय दूर कर दिये हैं।”

पादरी जल भुनकर बोलाः “और जो इतनी मिठाइयाँ व फल खऱीदे गये हैं, इतना प्रचार किया गया है उनका क्या होगा ?”

“मैंने कब कहा था कि इस काम के ढिंढोरे पीटे जायें ? जब मुझे विश्वास हो गया कि हमारा धर्म ईसाइयों के धर्म से ऊँचा है तो मैं अपने धर्म का त्याग क्यों करूँ ?”

पादरी छोटा सा मुँह लेकर लौट गया। गणेशदास जी तो हिन्दू थे लेकिन इतिहास में ऐसे भी उदाहरण हैं कि अन्य धर्म के जिन विद्वानों और धर्मप्रचारकों, ईसाई पादरियों ने दोषदर्शन की दृष्टि से नहीं अपितु तटस्थ होकर हिन्दू धर्म का, उसके सत्शास्त्रों का, संतों-महापुरुषों के ज्ञान का अध्ययन किया है वे मुक्तकंठ से हिन्दू धर्म की महिमा गाये बिना नहीं रह सके। कइयों ने तो हिन्दुत्व की शिक्षा-दीक्षा ले ली। सनातन धर्म के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः…’ सबका मंगल सबका भला… के  विश्वहितकारी सिद्धान्त में सचमुच सबका हित समाया हुआ है। किसी कीमत पर इस सिद्धान्त का त्याग नहीं किया जा सकता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 25, अंक 287

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आगे बढ़ने से रोकने वाला शत्रुः अभिमान


विद्यार्थियों के उज्जवल भविष्य निर्माण में अभिमान एक बहुत बड़ी बाधा है। यह विद्यार्थियों की योग्यताओं का नाश करने वाला दुर्गुण है। मनुष्य में अहंकार का आना पतन का सूचक है। अभिमान नासमझी से उत्पन्न होता है और विचार करने से घड़ी भर भी नहीं टिक सकता।

किसी विद्यार्थी को कक्षा में कोई चीज समझ में नहीं आयी तो वह अभिमान के कारण ही दूसरे से सहायता लेने में हिचकता है। संकोचवश वह शिक्षक से भी नहीं पूछता और परीक्षा में सटीक जवाब नहीं दे पाता। और कोई विद्यार्थी कड़ी मेहनत से पढ़ाई करता है एवं अच्छे अंक प्राप्त करता है तो छाती चौड़ी करता है कि उसके समान तीव्र बुद्धिवाला कोई अन्य छात्र नहीं है। यह भी अभिमान है। फलतः आगे चलकर इसी मिथ्याभिमान के कारण उसकी मेहनत में कमी आ जाती है और वह लक्ष्य से भटक जाता है। हर जगह अभिमान कर्ता को गिराता ही है।

दोस्तों की सस्ती वाहवाही लूटने हेतु किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाना, न चाहते हुए भी दोस्तों के दबाव और बहकावे में आ जाना, जोश में होश खोकर गलत काम कर बैठना – ये अभिमान के ही छद्म रूप हैं। ‘मुझमें अभिमान नहीं, यह भी अभिमान है। यह बहुत ही सूक्ष्म होता है, इतना सूक्ष्म कि ईश्वर के बाद इसी के नम्बर है। इसके  बहुत रूप हैं। अभिमान, अहंकार, मैं-मेरा, तू-तेरा ही तो पतनकारी वृत्तियाँ हैं। संत तुलसीदास जी कहते हैं-

मैं अरू मोर तोर तैं माया।

जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।। (श्री रामचरित. अरं.कां. 14.1)

अभिमान और अहंकार माया है, जिसके वशीभूत होकर जीव नष्ट हो जाता है। यही माया मानव-मन में शारीरिक सुख की तीव्र कामना पैदा करती है। इसी सुख को पाने के लिए एवं इसे पाने के मार्ग के विघ्नों को हटाने के लिए व्यक्ति कोई भी पापकर्म करने के लिए तैयार हो जाता है। इसलिए ‘श्री रामचरितमानस’ (उ.कां. 73.3) में आता है-

सकल सोक दायक अभिमाना।

समस्त दुःखों को देने वाला अभिमान है।

‘विदुर नीति’ में भी आता है कि ‘अभिमान सर्वस्व को नष्ट कर देता है।’

जो बहुत घमण्ड करते हैं वे अपने ही घमंड के कारण गिरते हैं। इसलिए किसी को घमंड नहीं करना चाहिए। यही हार का, पतन का कारण है।

भगवान सब कुछ सह लेते हैं पर भक्त का अहंकार नहीं। अहंकार न रावण का बचा न कंस का और न कौरवों का, न हिटलर न सिकंदर का बचा। संसार में कुछ भी अभिमान करने योग्य नहीं है क्योंकि जिस चीज का अभिमान किया जा रहा है उससे श्रेष्ठ चीज अनेक लोगों के पास है। अभिमान परमात्म-प्राप्ति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। अतः निराभिमानिता को जीवन में लाइये। निराभिमानिता आयेगी सत्संग सुनने और मनन करने से तथा ब्रह्म ज्ञानी महापुरुषों के दैवी सेवाकार्यों में विनयपूर्वक सहभागी होने से। विवेकपूर्ण विनय चित्त से अहंकार का उन्मूलन करके आत्मप्रसाद का बीजारोपण करता है। जिसका अहं मिट जाता है उसका चित्त परमात्मा में स्थिर हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 15, अंक 287

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