Monthly Archives: November 2016

मैं झूठ की जीत स्वीकार नहीं करूँगा


बात उन दिनों की है जब श्री गोपालस्वरूप पाठक इलाहाबाद में वकालत करते थे। उन्होंने अपने मार्गदर्शक महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी से प्रेरणा ली थी कि वे कभी झूठ नहीं बोलेंगे और न किसी को धोखा देंगे।

एक बार पाठक जी के पास सम्पत्ति के विवाद का मुकद्दमा आया। उन्होंने अपने मुवक्किल से दस्तावेज माँगे। उसने कह दिया कि कागजात कुछ दिन बाद देगा। श्री पाठक ने न्यायाधीश के समक्ष जोरदार पैरवी की। उनके तर्कों से सहमत होकर न्यायाधीश ने उनके पक्ष में निर्णय लिख दिया किंतु निर्णय अगले दिन सुनाने वाले थे।

मुवक्किल मिठाई का डिब्बा तथा उपहार लेकर पाठक जी की कोठी पर पहुँचा। बातचीत में उसके मुख से निकल गया कि दस्तावेज फर्जी थे। यह सुनते ही पाठकजी न्यायाधीश के पास जा पहुँचे, बोलेः “महोदय, मैंने भ्रमवश न्यायालय को गुमराह किया है। मैं झूठ की जीत स्वीकार नहीं करूँगा। आप निर्णय बदलने की कृपा करें।”

न्यायाधीश इस अनूठे वकील के सत्याचरण को देखकर हतप्रभ रह गये।

कैसे सत्यप्रेमी वकील ! किसी निरपराध को झूठे तर्कों के आधार पर दंड दिलाना वे अनैतिकता और अधर्म मानते थे। धन के लालच में अन्याय का पक्ष लेने को वे कभी तैयार नहीं हुए। भारत का यह सौभाग्य ही रहा कि ऐसे सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने आगे चलकर इस देश के उपराष्ट्रपति पद को गौरवान्वित किया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 10 अंक 287

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हर परिस्थिति में अचूक मंत्र


एक बड़ा प्रतापी राजा था। उसके दरबार में एक से बढ़कर एक बुद्धिमान भरे पड़े थे। एक दिन उसने सबको बुलाया और कहाः “ऐसा कोई मंत्र खोजकर लाओ जो हर परिस्थिति में अचूक हो और बड़े-से-बड़े खतरे का मुकाबला कर सके।”

सारे बुद्धिमान दरबारी मंत्र की खोज में निकल पड़े। उन्होंने चहुँ ओर खूब खोज की लेकिन ऐसा कोई मंत्र उनके हाथ न लगा। थक-हारकर वे एक आत्मवेत्ता संत की शरण में जा पहुँचे।

संत ने उन्हें एक तह किया हुआ छोटा सा कागज देकर कहाः “इसे सिर्फ सबसे बड़े और आखिरी खतरे के वक्त खोला जाय। इसे पढ़कर तुम जान लोगे कि क्या करना चाहिए।”

दरबारियों ने तहशुदा कागज राजा को ला सौंपा। राजा उसे अपनी हीरे की अँगूठी में छिपाकर रख लिया। जब भी कोई खतरा सामने आता, राजा का ध्यान अँगूठी पर जाता और उसे संत का वचन याद आता कि ‘इसे सिर्फ सबसे बड़े और आखिरी खतरे के वक्त खोला जाय।’ कई खतरे आये और गये। हर बार राजा ने ठहरकर सोचा, ‘नहीं, यह आखिरी खतरा नहीं है। अभी और कोई उपाय किया जा सकता है।’

समय बीतता गया, राजा की मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। मरणासन्न राजा शय्या पर पड़ा था। उसका ध्यान अँगूठी पर गया। तभी ख्याल आया, ‘नहीं, अभी कुछ और उपाय हो सकता है !’

दरबारियों ने विनती कीः “महाराज ! कृपा करके कागज को खोलिये। हम जानना चाहते हैं कि अब क्या उपाय क्या जाय ?”

राजा ने कहाः “हमें वचन निभाना चाहिए। जहाँ तक मंत्र का सवाल है, वह सचमुच अचूक है। इसके रहते मुझे कभी किसी खतरे का एहसास ही नहीं हुआ। हर बार कोई न कोई उपाय सूझ गया क्योंकि मैं इस मंत्र के बल पर घटनाओं को केवल साक्षी बनकर देख सका। मैंने स्वयं को घटनाओं के तेज बहाव में बह जाने नहीं दिया।”

और राजा चल बसा। जैसे ही राजा ने आखिरी साँस ली, दरबारियों ने सबसे पहले हीरे की अँगूठी से कागज निकाल के खोला। वह कोरा था, उसमें कोई मंत्र नहीं लिखा था ! दरबारी देख नहीं पाये फिर भी मंत्र अपना काम कर चुका था।

यह भी देख, वह भी देख।

देखत देखत ऐसा देख,

मिट जाय धोखा रह जाय एक।।

साक्षीभाव, असंगता वास्तव में एक ऐसा मंत्र है जो हर परिस्थिति में अचूक है। यह जिसके जीवन में आ जाता है वह दुनिया की सारी परिस्थितियों के सिर पर पैर रखकर सदगुरु कृपा से अपने परमात्म-स्वरूप, ब्रह्मस्वरूप को पा लेता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 7, अंक 287

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सारे संसार को जीतने का कोर्स कर लो-पूज्य बापू जी


सत्संग से जितना लाभ होता है उतना किसी कोर्स और तपस्या से भी नहीं होता। (कोर्स-पाठ्यक्रम)। इसलिए सत्संग देने वाले अनुभवी सत्पुरुषों का जितना आदर करें उतना कम है। उनकी आज्ञा के अनुसार जितना जीवन ढालें उतना ही अपना मंगल है। व्यापार में तो हानि-लाभ होता है, पढ़ाई में पास-नापास होता है, दुनियावी कितने सारे कोर्स कर लो फिर भी अशांति और जन्म-मरण होता रहता है लेकिन सत्संग से लाभ ही लाभ होता है, हानि नहीं होती, अशांति नहीं होती, शांति बढ़ती है, पाप नहीं होता, पुण्य ही होता है, नरकों में नहीं जाते हैं, भगवत्प्राप्ति होती है। सत्संग निर्दोष कोर्स है। दुनिया में बड़े में बड़ा, निर्दोष से निर्दोष, सस्ते में सस्ता और महान में महान कोई कोर्स है तो सत्संग का कोर्स है, भगवन्नाम जप अनुष्ठान का कोर्स है। नाशवान शरीर में और नाशवान कोर्स में जितनी प्रीति है उतनी अविनाशी आत्मा-परमात्मा में हो जाय तो बस, ब्रह्म परमात्मा को पाना सुलभ हो जाय।

सत्संग से 5 लाभ तो सहज में होने लगते हैं- 1.भगवन्नाम के जप कीर्तन का लाभ। 2.भगवान के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान मिलता है। भगवद्ध्यान एवं सेवा का सदगुण विकसित होने लगता है। 4.बुद्धि में ईश्वर व ईश्वरप्राप्त महापुरुष के विलक्षण लक्षण विकसित होने लगते हैं और 5.अच्छा संग मिलता है। जो सत्संग भी करते हैं और आज्ञा का उल्लंघन भी करते हैं वे समझो सत्संग का गला घोंटते हैं।

ससांरी कोर्स करने से शोक, भय और चिंता बढ़ते हैं। ‘भूल न जाऊँ….. नौकरी मिलेगी कि नहीं मिलेगी ?…. यह हमारे से आगे न बढ़ जाये…. हमको जो मिला है चला न जाय…..’ इस प्रकार का भय बढ़ेगा, चिंता बढ़ेगी और इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी तथा भगवन्नाम जपने से और यह भगवत्कोर्स करने से इज्जत बढ़ेगी, मन सुख-शांति का एहसास करेगा, माता-पिता और सात-सात पीढ़ियों का मंगल हो जायेगा। नेता को खुशामदखोर लोग अच्छे लगते हैं और संतों को साधना करने वाले अच्छे लगते हैं।

‘बिजनेस कोर्स करूँ…. मैनेजमेंट कोर्स करूँ….. फलाना कोर्स करूँ….’ ये तो कई कर-करके मर गये, आप सारा जगत जीतने का कोर्स कर लो, चलो ! और एक साल के अंदर जगजीत प्रज्ञा ! ऐसा कोर्स कर लो-करवा लो।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः।। (गीताः 5.19)

क्या बढ़िया कोर्स है ! एक श्लोक… बस ! यह कोर्स कर लो तो मैनेजमेंट कोर्सवाले फिर आपके चरणों की धूलि लेकर अपना भाग्य बनायेंगे। जिनका अंतःकरण समता में स्थित है उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है क्योंकि ब्रह्म में स्थित हो गये।

सभी कर सकते हैं यह कोर्स। बचपन में ही संस्कार डाल दोः सुख-दुःख में सम रहना है – ब्रह्म कोर्स ! मान अपमान सपना है और रब अपना है- बच्चों में ये संस्कार डालो। मेरे गुरुदेव में उनकी दादी माँ ने ये संस्कार डाले और गुरुदेव ऐसे ब्रह्मज्ञानी हुए कि उनकी कृपा प्रसादी से आसुमल में से आशाराम हो गये और लाखों-करोड़ों लोगों को उस दादी माँ की प्रसादी बँट रही है। बच्चों में संस्कार डालने का कितना भारी प्रभाव है ! मेरे लीलाशाहजी प्रभु की दादी जी तो पाँचवीं भी नहीं पढ़ी थीं, तीसरी भी नहीं पढ़ी होंगी शायद और घर में ही कैसा कोर्स करके बैठ गयीं ! मेरी माँ का कोर्स कर लो, चलो। बापू की माँ का कोर्स कौन सा था ? “साँईं ने कहा है, दही नहीं खाऊँगी, बस। साँईं ने कहा है, भुट्टे भारी होते हैं। इस उम्र में मकई के भुट्टे नहीं खाने हैं, बस। साँईं की आज्ञा !” मेरी माँ ने ऐसे ही आज्ञापालन का कोर्स कर लिया तो ऐसे ही मुफ्त में तर गयीं ! मनुष्य जीवन का फल यही है, वही कोर्स कर ले बस…. ब्रह्म को पा ले।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 287

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