मानव-जाति का इतिहास है सुख-विकास की कहानी

मानव-जाति का इतिहास है सुख-विकास की कहानी


मनुष्य और मनुष्य से भिन्न प्राणियों में एक बड़ा अंतर यह है कि उन प्राणियों में जहाँ  प्राप्त सुख में संतोष अथवा तृप्ति है वहाँ मनुष्य में उच्च से उच्चतर सुखों की उपलब्धि की आकांक्षा एवं प्रयास है। मानव-जाति का इतिहास सुख-विकास की कहानी है। परंतु मनुष्य ने पाया क्या है ? उसने धन इकट्ठा किया है, महल-अट्टालिकाएँ (बहुमंजिला इमारतें) बनायी सजायी हैं, भोग विलास की सामग्री इकट्ठी की है और तद्विषयक अविद्यात्मक विद्याएँ संग्रह की हैं। उसने सुख और तृप्ति का दम्भ किया है जबकि उसका अंतर अनंत अभावों एवं दीनताओं से ग्रस्त रहा है। उसे क्यों यह होश नहीं आता कि उसके सुखप्राप्ति के प्रयत्न की दिशा ही विपरीत है। ऐन्द्रियक सुख सुख नहीं सुखाभास है। सम्पदा का सुख सुख नहीं सुखाभास है। अभिमानजन्य सुख सुख नहीं पतन का प्राक् रूप (पूर्वरूप) है। काम, दाम, चाम के सुख सुख नहीं बंधन के प्रारम्भ हैं। वह सुख सुख ही नहीं, जिसमें भय है, बंधन है, पराधीनता है और परिणाम में रोना है। परंतु यह तो विवेक है जो किसी धीर पुरुष की बुद्धि में ही उत्पन्न होता है।

शोक-मोह से पार होने पर परमानंदस्वरूप आत्मा की प्राप्ति करने का संकल्प ही किसी-किसी के हृदय में होता है फिर प्रयत्न और प्राप्ति तो अत्यंत दुर्लभ ही है।

अज्ञानी मिथ्या को सत्यवत् ग्रहण करता है और तज्जन्य (उससे उत्पन्न) राग-द्वेषरूप बंधन, दुःख और जड़ता का शिकार होता है। जिज्ञासु मिथ्या को सशंक ग्रहण करता है और तज्जन्य द्वन्द्वात्मक तनाव का शिकार होता है तथापि सद्ज्ञानोन्मुख होने के कारण वह इसके (मिथ्या संसार के) सुख के बंधन से बँधता नहीं। भक्त मिथ्या को तो मिथ्या समझता है – ईश्वराश्रित समझता है परंतु स्वयं की परिच्छिन्नता (सीमितता, अलगाव) की सत्यत्व-बुद्धि के कारण उसका यह मिथ्या ग्रहण (मिथ्या समझना) भी सत्यवत् होता है। अतः वह जगत के लेप से अछूता नहीं रहता। संसारित्व तो उसका कटता ही नहीं। परंतु ब्रह्मवेत्ता पुरुष मिथ्या को मिथ्यावत् ही ग्रहण करते हैं और यह ग्रहण भी उनकी दृष्टि में मिथ्या ही होता है।

अज्ञानी के लिए नाम-रूपात्मक प्रपंच और उसका कारण – माया बंधन का हेतु है और इसलिए भयावह है क्योंकि उसने अपने शिवस्वरूप का साक्षात्कार नहीं किया है। परंतु जो महापुरुष जगत से व्यतिरिक्त (भिन्न), जगत में अन्वित (ओतप्रोत) और जगत के अत्यंत अभाव के स्वप्रकाश अधिष्ठान तत्त्व में आत्मत्वेन (आत्मरूप से) स्थित हैं, उनके लिए जगत या उसका कारण विमर्श (कारण का विचार) आत्मोल्लासमात्र है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 9 अंक 295

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *