सम्पन्न घरों के कुशाग्र बच्चों की ऐसी दुर्दशा क्यों ?

सम्पन्न घरों के कुशाग्र बच्चों की ऐसी दुर्दशा क्यों ?


अमेरिकन विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन का चौंकाने वाला खुलासा

हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे बड़े होकर उनके परिवार का नाम रोशन करने वाले बनें लेकिन ऐसी कौन सी कमी रह जाती है कि माँ-बाप जिन बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाने हेतु सब कुछ करते हैं वे ही बच्चे चोरी, धोखाधड़ी, नशाखोरी, स्वेच्छाचार आदि आपराधिक कार्यों में फँसकर उनके नाम पर धब्बा बन जाते हैं।

इस संबंध में अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन ने गम्भीरता से अध्ययन कर जो निष्कर्ष निकला वह विचारणीय है। उन्होंने अपराधी बालकों के एक गिरोह के चार बच्चों के पारिवारिक जीवन का अध्ययन किया। वे सभी बालक सम्पन्न घरों के थे। एक दिन उन्होंने किसी की नील गाय पकड़ ली और उसे मारकर उसकी खाल एक दुकानदार को बेच दी। दुकानदार ने खाल भीतर रख दी और बाहर आकर फिर काम करने में लग गया। लड़कों ने इतने ही क्षणों में कमरे की पीछे वाली खिड़की तोड़ ली और वह खाल निकाल के फिर से उसी दुकानदार को बेच दी। दुकानदार सस्ती खालें मिलने से प्रसन्न था और बच्चों की आमदनी बढ़ रही थी। एक ही खाल इन बच्चों ने चार बार बेची। इस बार दुकानदार अंदर गया तो एक ही खाल देखकर सन्न रह गया !

मार्क ट्वेन ने इन बच्चों की घरेलू परिस्थितियाँ व उनका स्कूली जीवन देखा तो पाया कि ये बच्चे स्कूल में तीक्षणबुद्धि माने गये हैं पर घर में उनके माता-पिता में से किसी ने उन्हें शायद ही किसी दिन 10-15 मिनट देकर उनकी परिस्थितियाँ पूछी हों, उनके संस्कारों पर ध्यान दिया हो। सरंक्षण और उचित मार्गदर्शन के इस अभाव ने इन बच्चों के साहस और बुद्धिमत्ता को यहाँ तक  ला दिया।

उनके माता-पिता ने मार्क ट्वेन के परामर्श को स्वीकार कर अपने किशोरों को प्रतिदिन निश्चित समय पर सही मार्गदर्शन देना प्रारम्भ किया तो वे ही बच्चे बड़े पदों पर पहुँचे।

शिक्षा के साथ सुसंस्कार भी जरूरी

संसार के पद तो बहुत छोटे हैं, यदि बच्चों को शिक्षा के साथ किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की दीक्षा एवं सत्संग मिल जाय तो वे महापुरुष भी  बन सकते हैं, अनंत सामर्थ्य-स्रोत ब्रह्मांडनायक परमात्मा का ज्ञान अपने भीतर प्रकट कर सकते हैं। फिर उनके चरणों में कई डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, बड़ी-बड़ी डिग्रियों वाले ही नहीं, देवता भी नतमस्तक होकर अपना भाग्य बनाने को उत्सुक होंगे।

सुसंस्कार कहीं बाजार से मिलने वाली चीज नहीं है। बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो जहाँ अच्छे संस्कार मिलते हैं ऐसे बापू जी के बाल संस्कार केन्द्रों या गुरुकुलों में उन्हें भेजना चाहिए। महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ाना-सुनाना चाहिए और उन्हें प्यार से समझाना चाहिए कि ‘बेटा ! तुम्हारे अंदर भी महापुरुषों का यह…. यह…. सदगुण है…. ऐसी-ऐसी योग्यता है…. तुम इन्हें बढ़ाकर अवश्य महान बन सकते हो।’ बच्चे कोमल पौधे की तरह होते हैं, उन्हें जिस ओर मोड़ना चाहें उधर मोड़ सकते हैं। और हम अपने बच्चों से जिन सदगुणों की अपेक्षा रखते हैं, अगर वे हम अपने जीवन में ले आयें तो फिर बच्चों को सिखाने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करने पड़ेंगे, वे सहज में ही उन सदगुणों से प्रेरित होकर उच्च दिशा में चल पड़ेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 297

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