अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा

अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा


आपके लिए दूसरा कोई साधन नहीं कर सकता। त्याग आपके स्वयं का धर्म है और सच्चिदानंद ब्रह्म आपके स्वयं का स्वरूप है। साधन, भजन, त्याग खुद को करना पड़ता है। आलसी, प्रमादी लोगों का यह रास्ता नहीं है। वेदांत का अध्ययन दूसरी वस्तु है और श्रवण दूसरी वस्तु है।

प्रमाणगत संशय ( वेदांत शास्त्र का तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म की एकता में ही है और वही मोक्ष है, ऐसे निश्चय का न होना ‘प्रमाणगत संशय’ है। वेदांत शास्त्र ‘प्रमाण’ है और आत्मा-ब्रह्म की एकता प्रमेय है।) और प्रमेयगत संशय ( आत्मा और ब्रह्म की एकता में ही वेदांत का तात्पर्य है यह तो जान लिया लेकिन उसके प्रति बुद्धि में जो अनिश्चय है अर्थात् वह एकता बुद्धि से सम्भव नहीं लग रही है तो यह ‘प्रमेयगत संशय’ कहा जाता है।) को निवृत्त करके जो नैसर्गिक विपर्यय ( निश्चय होने पर भी व्यवहार का जो मूल आधार है उस आत्मा का देह के साथ जो सहज अध्यास है, उसमें सत्यत्व-भ्रांति ‘नैसर्गिक विपर्यय’ है।) है उसे दूर करने के लिए निदिध्यासन स्वयं करना पड़ता है।

इस संसार समुद्र में आप डूब रहे हो तो इससे अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा। यह पंच भूतों में जो आपकी आकृति बनी हुई है और इसको चलाने वाले जो पंचभूतों के कार्य प्राणादि हैं, उनको ‘मैं-मेरा’ मानना, बस यही भवसागर में डूबना है।

‘उद्धार’ शब्द का अर्थ है – कोई नीचे गिर रहा हो या गिरा हो उसे ऊपर उठाना और फिर उसे पुनः गिरने न देना। अब आत्मा तो नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त ही है, उसका क्या पतन और क्या उद्धार ? तब जो पतित मन से तादात्म्यापन्न (एकरूप) हो गया है वही पतितात्मा है और जो उत्थित मन (उठे हुए मन) से एक हो गया है वह उत्थितात्मा है। अतः ‘अपना उद्धार स्वयं करे’ – इस वाक्य का अर्थ है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप की बुद्धि से युक्त होकर देहात्म-भ्रम में पड़े हुए अपने-आपको स्वरूप-स्थित करे। अपने-आपको बिखेरे नहीं, उजाड़े नहीं।

आपने अपना ज्ञान बिखेर रखा है – थोड़ा प्रयोगशाला में, थोड़ा किताबों में, थोड़ा बैंक में, थोड़ा दुकान में, थोड़ा घर में। इस बिखराव को रोकिये।

कैसे रोकें इस बिखराव को ? इसके लिए पहले एकनिष्ठा जीवन में लानी चाहिए कि ‘जो सत्य है उसी को मैं जीवन में स्वीकार करूँगा।’ और सत्य वह है जिसमें कोई पारमार्थिक भेद नहीं है। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण जीवन को गुरु द्वारा उपदिष्ट परमार्थ-सत्य के अनुभव की दिशा में प्रवाहित किया जाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 16, अंक 298

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