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अब मुझे इस दक्षिणा की जरूरत है ! – पूज्य बापू जी


दूरद्रष्टा पूज्य बापू जी द्वारा 13 वर्ष पहले ‘संस्कृति रक्षार्थ’ बताया गया सरल प्रयोग, जो साथ में देता है निरोगता स्वास्थ्य, प्रसन्नता, आत्मबल एव उज्जवल मंगलमय जीवन भी….

संत सताये तीनों जायें, तेज बल और वंश।

ऐसे ऐसे कई गये, रावण कौरव और कंस।।

भारत के सभी हितैषियों को एकजुट होना पड़ेगा। भले आपसी कोई मतभेद हो किंतु संस्कृति को उखाड़ना चाहें तो हिन्दू अपनी सस्कृति को उखड़ने नहीं देगा। वे लोग मेरे दैवी कार्य में विघ्न डालने के लिए कई बार क्या-क्या षड्यंत्र कर लेते हैं। लेकिन मैं इन सबको सहता हुआ भी संस्कृति के लिए काम किये जा रहा हूँ। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहाः “धरती पर से हिन्दू धर्म गया तो सत्य गया, शांति गयी, उदारता गयी, सहानुभूति गयी, सज्जनता गयी।”

गहरा श्वास लेकर ॐकार का जप करें, आखिर में ‘म’ को घंटनाद की नाईं गूँजने दें। ऐसे 11 प्राणायाम फेफड़ों की शक्ति तो बढ़ायेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति तो बढ़ायेंगे साथ ही वातावरण से भी भारतीय संस्कृति की रक्षा में सफल होने की शक्ति अर्जित करने का आपके द्वारा महायज्ञ होगा।

आज तक मैं कहता था कि ‘मुझे दक्षिणा की कोई जरूरत नहीं है’ पर अब मुझे हाथ पसारने का अवसर आया है, मुझे दक्षिणा की जरूरत है। मुझे आपके रूपये पैसे नहीं चाहिए बल्कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए आप रोज 11 प्राणायाम करके अपना संकल्प वातावरण में फेंको। इसमें विश्वमानव का मंगल है। ॐ….ॐ….ॐ….. हो सके तो सुबह 4 से 5 बजे के बीच करें। यह स्वास्थ्य के लिए और सभी प्रकार से बलप्रद होगा। यदि इस समय न कर पायें तो किसी भी समय करें, पर करें अवश्य। कम के कम 11 प्राणायाम करें। ज्यादा भी कर सकते हैं। अधिकस्य अधिकं फलम्।

हम चाहते हैं सबका मंगल हो। हम तो यह भी चाहते हैं कि दुर्जनों को भगवान जल्दी सद्बुद्धि दे। जो जिस पार्टी में है…. पद का महत्त्व न समझो। पद आज है, कल नहीं है लेकिन संस्कृति तो सदियों से तुम्हारी सेवा करती आ रही है। ॐ का गुंजन करो, गुलामी के संस्कार काटो ! दुर्बल जो करता है वह निष्फल चला जाता है और लानत पाता है। सबल जो कहता है वह हो जाता है और उसका जयघोष होता है। आप सबल बनो !

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। (मुण्डोपनिषद् 3.2.4)

विधिः सुबह उठकर थोड़ी देर शांत हो जाओ, भगवान के ध्यान में बैठो। ॐ शांति…. ॐ आनंद…. करते आनंद और शांति में शांत हो जायें। सुबह की शांति प्रसाद की जननी है, सद्बुद्धि और सामर्थ्य दायिनी है। खूब श्वास भरो, त्रिबंध करो – पेट को अंदर खींचो, गुदाद्वार को अंदर सिकोड़ लो, ठुड्डी को छाती से लगा लो। मन में संस्कृति की रक्षा का संकल्प दोहराकर ॐकार, गुरुमंत्र या भगवन्नाम का जप करते हुए सवा से पौने दो मिनट श्वास रोके रखो (नये अभ्यासक 30-40 सैकेंड से शुरु कर अभ्यास बढ़ाते जायें)। अब ॐॐॐॐॐॐ….. ओऽ…म्ऽऽऽ….. – इस प्रकार ॐकार का पवित्र गुंजन करते हुए श्वास छोड़ो। फिर सामान्य गति से 2-4 श्वासोच्छ्वास के बाद 50 सेकंड से सवा मिनट श्वास बाहर रोके रखते समय मानसिक जप चालू रखें। इस प्राणायाम से शरीर में जो भी आम (कच्चा, अपचित रस) होगा। वह खिंच के जठर में स्वाहा हो जायेगा। वर्तमान की अथवा आने वाली बिमारियों की जड़ें स्वाहा होती जायेंगी। आपकी सुबह मंगलमय होगी और आपके द्वारा मंगलकारी परमात्मा मंगलमय कार्य करवायेगा। आपका शरीर और मन निरोग तथा बलवान बन के रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 5 अंक 299

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सर्व सफलतादायिनी गौ


गोपाष्टमी 28 अक्तूबर 2017

देशी गाय मानव जाति के लिए प्रकृति का अनुपम वरदान है। जिस घर में गाय की सेवा हो, वहाँ पुत्र-पौत्र, धन, विद्या, सुख आदि जो भी चाहिए मिल सकता है। महर्षि अत्रि ने कहा हैः “जिस घर में सवत्सा धेनु (बछड़े वाली गाय) नहीं हो, उसका मंगल-मांगल्य कैसे होगा ?” गाय का घर में पालन करने से घर की सर्व बाधाओं और विघ्नों का निवारण हो जाता है। विष्णु पुराण में आता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना के विषयुक्त दुग्ध का पान करते समय उसके प्राणों को भी पा लिया तब वह महाभयंकर रूप धारण कर मर के पृथ्वी पर गिर पड़ी। इससे भयभीत यशोदा माँ ने गाय की पूँछ घुमाकर श्रीकृष्ण की नज़र उतारी और सबके भय का निवारण किया।

महाभारत (अनुशासन पर्वः 51.323) में कहा गया हैः

निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुञ्चति निर्भयम्।

विराजयति तं देशं पापं चास्यापकर्षति।।

‘गौओं का समुदाय जहाँ बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है उस स्थान की शोभा बढ़ा देता है और वहाँ के सारे पापों को खींच लेता है।’

गौ से विविध कार्यों की सिद्धि

वास्तुदोषों का निवारणः जिस घर में गाय होती है, उसमें वास्तुदोष स्वतः ही समाप्त हो जाता है। इस संबंध में वास्तुग्रंथ ‘मयमतम्’ में कहा गया है कि ‘भवन-निर्माण का शुभारम्भ करने से पूर्व उस भूमि पर ऐसी गाय को लाकर बाँधना चाहिए जो सवत्सा (बछड़े वाली) हो। नवजात बछड़े को जब गाय दुलाकर चाटती है तो उसका फेन भूमि पर गिर के उसे पवित्र बनाता है और वहाँ होने वाले समस्त दोषों का निवारण हो जाता है।’

इससे कार्य भी निर्विघ्न पूरा होता है और समापन तक आर्थिक बाधाएँ नहीं आतीं।

यात्रा में सफलताः यदि यात्रा के प्रारम्भ में देशी गाय सामने दिख जाय अथवा अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई दिख जाय तो यात्रा सफल होती है।

यदि रास्ते में जाते समय देशी गाय आती हुई दिखाई दे तो उसे अपनी दाहिनी बगल से जाने देना चाहिए, इससे यात्रा सफल होगी।

पितृदोष से मुक्तिः देशी गाय को प्रतिदिन या अमावस्या को रोटी, गुड़, चारा आदि खिलाने से पितृदोष समाप्त हो जाता है।

दीर्घायु-प्राप्तिः देशी गाय के घी का एक नाम ‘आयु’ भी है। आयुर्वै घृतम्। अतः गाय के दूध-घी से व्यक्ति दीर्घायु होता है। हस्तरेखा में आयुरेखा टूटी हुई हो तो गाय का घी काम में लें तथा गाय की पूजा करें।

साक्षात्कार (इन्टरव्यू) में सफलताः किसी भी साक्षात्कार हेतु या उच्च अधिकारी से भेंट आदि के लिए जाते समय गाय के रँभाने की ध्वनि कान में पड़ना शुभ है।

उत्तम संतान का लाभः इसके लिए घर में देशी गाय की सेवा अच्छा उपाय कहा गया है।

यम के भय से मुक्तिः शिव पुराण व स्कंद पुराण में कहा गया है कि गौ-सेवा करने और सत्पात्र को गौदान करने से यम का भय नहीं रहता।

पाप-ताप से मुक्तिः जब गायें जंगल से चरकर वापस घर को आती हैं, उस समय को गोधूलि वेला कहा जाता है। गाय के खुरों से उठने वाली धूलराशि समस्त पाप-तापों को दूर करने वाली है।

ग्रहबाधा-निवारणः गायों को नित्य गोग्रास देने तथा सत्पात्र को गौ दान करने से ग्रहों के अनिष्ट-निवारण में मदद मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 25 अंक 298

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श्री अष्टावक्र गीता पर पूज्य श्री एक अमृतवचन


अष्टावक्र जी कहते हैं-

धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।

न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।

‘ओ अनंत (व्यापक) ! धर्म-अधर्म एवं सुख-दुःख का केवल मन से ही संबंध है, तुमसे नहीं। तुम न कर्ता हो और न भोक्ता हो। तुम स्वरूपतः नित्य मुक्त ही हो।’ (अष्टावक्र गीताः 1.6)

सुख-दुःख, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप – ये सब मन के भाव हैं, उस विभु आत्मा के नहीं। तू मन भी नहीं है। ये भाव भी तू नहीं है। तू विश्वसाक्षी है। …..मुक्त एवासि सर्वदा। ऐसा नहीं कि तू कल मुक्त होगा अथवा परसों मुक्त होगा।

मदालसा अपने बच्चों को उपदेश देती थीः ‘न कर्ताऽसि…. न भोक्ताऽसि…. शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनो नारायणोऽसि।’

जो मूढ़ अपने को बंधन में मानता है वह बँध जाता है और जो अपने को मुक्त मानता है वह मुक्त हो जाता है। अष्टावक्र जी बहुत ऊँची बात कह रहे हैं। कुछ करना नहीं है केवल जानना है। कोई मजदूरी करने की जरूरत नहीं है, चित्त की विश्रांति पानी है। जहाँ-जहाँ मन जाता है, उसको देखो। जितना अधिक तुम शांत बैठ सको, उतना तुम महान होते जाओगे। कीर्तन करते-करते देहाध्यास को भूलना है, जप करते-करते इधर-उधर की बातों को भूलना है। जब इधर-उधर की बातें भूल गये तो जप भी भूल जायें तो कोई हर्ज नहीं। शांत भव….. सुखी भव।

भगवान विष्णु की पूजा में आता हैः शान्ताकारँ भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं…. विष्णु भगवान को गगनसदृश क्यों कहा ? व्यापक चीज हमेशा गगनसदृश (आकाश की तरह नीलवर्ण) होती है। समुद्र का पानी नीला दिखता है। ऐसे ही जो परमात्मा हैं, जो विष्णु हैं, जो सबमें बस रहे हैं, वे व्यापक हैं, इसलिए उनको नीलवर्ण बताया गया । शिवजी का, विष्णु जी का, राम जी का, कृष्ण जी का चित्र नीलवर्णीय बनवाया है इस देश के मनीषियों ने। सच पूछो तो परमात्मा किसी वर्ण के नहीं हैं लेकिन उन परमात्मा की व्यापकता दिखाने के लिए नीलवर्ण की कल्पना की गयी है। तो ऐसे ही तुम्हारा आत्मा किसी वर्ण का नहीं, किसी आश्रम का नहीं लेकिन जिस शरीर में आता है उस वर्ण का लगता है, जिस आश्रम में आता है स्वयं उस आश्रम का मानने लगता है। ऐसा मानते-मानते सुखी-दुःखी होता है और जन्मता-मरता है। मान्यता बदल जाय तो मनुष्य के अंदर इतना खजाना छुपा है, मनुष्य इतना-इतना गरिमाशाली है कि उसको सुखी होने के लिए न स्वर्ग की जरूरत है, न इलेक्ट्रॉनिक साधनों की जरूरत है, न दारू की जरूरत है। किसी चीज की जरूरत नहीं सुखी होने के लिए। शरीर को जिंदा रखने के लिए पानी की, हवा की रोटी की जरूरत है लेकिन सुखी होने के लिए किसी वस्तु की जरूरत नहीं और मजे की बात है कि बिना वस्तु के कोई सुखी दिखता ही नहीं। जब आती है कोई वस्तु तो सुख से हर्षित होता है। किंतु वास्तव में वस्तुओं से सुख नहीं मिलता है, उनसे तो केवल बेवकूफी बढ़ती जाती है। जब चित्त अंतर्मुख होता है तब शांति मिलती है, जो एक बार परमात्मा के सुख की झलक मिलती है उसके बाद फिर जगत के पदार्थ आकर्षित नहीं कर सकते। एक बार  तुमको सम्राट पद मिल जाय, एक बार तुम खीर खा लो तो भिखारिन के टुकड़े तुम्हें आकर्षित नहीं करेंगे। एक बार तुम सम्राट बन जाओ तो फिर चपरासी की नौकरी तुम्हें आकर्षित नहीं करेगी। ऐसे ही मन को एक बार परमात्मा का सुख मिल जाय तो फिर मन तुम्हें धोखा नहीं देगा। मन का स्वभाव है कि जिससे उसको सुख की झलक मिल जाती है उसी का चिंतन करता है, उसी के पीछे तुमको दौड़ाता है। तो जगत में जो सुख की झलकें मिलती हैं वे अज्ञानवश इन्द्रियों के द्वारा मिलती हैं इसलिए अज्ञानवश बेचारे जीव क्षणिक सुख के पीछे भाग जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 298

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