आम तौर पर समाज के लोगों ने पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति के कारण यही सीखा है कि हमारी मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है। परंतु वास्तव में हमारी मूलभूत आवश्यकता क्या है ?
राष्ट्र की पहली आवश्यकता
सुप्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं “राष्ट्र की तीन मुख्य जरूरतें होती हैं – सेना, अनाज और आस्था। इनमें भी आवश्यकता पड़ने पर सेना और अनाज को छोड़ा जा सकता है लेकिन आस्था को नहीं। आस्था नहीं रहने से देश नहीं रह सकता। एक सच्चा राष्ट्र अपनी आस्था से ही चिरंजीवी हो सकता है, वही उसकी पहचान है।” और वह आस्था, श्रद्धा जीवित रहती है संतों के कारण। अतः देश की मूलभूत आवश्यकता है ब्रह्मवेत्ता संत !
मानव-जीवन की मूलभूत माँग क्या ? उसे कौन पूरी करेगा ?
20वीं सदी के महान संत श्री उड़िया बाबा जी बारम्बार एवं जोर देकर कहा करते थेः “संत ही समाज का जीवन हैं, कोई भी संतजनशून्य समाज जीवित नहीं रह सकता।”
संतों की महिमा से बेखबर अज्ञ समाज को चेताते हुए परम करुणावान संत कबीर जी कहते हैं-
आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार। संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।।
विश्व में अमेरिका की पहचान डॉलर से है, चीन की पहचान सबसे लम्बी दीवाल से है, कुवैत की पहचान पेट्रोलियम से है किंतु इन सभी को वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की गुलामी से रहित सुख-शांति व वेदांत-ज्ञान की प्राप्ति के लिए जिस भारत का सहारा लेना पड़ता है, उस भारत की पहचान जानते हैं किससे है ? वह है उसके ब्रह्मवेत्ता संतों से !
‘गुप्त भारत की खोज’ पुस्तक के लेखक जाने-माने पाश्चात्य विद्वान पॉल ब्रंटन ने कहा हैः “भारतमें अब भी ऐसे श्रेष्ठ ऋषि पैदा होते हैं, इसी एक बात के बल पर भारत पश्चिम के बुद्धिमानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का दम भर सकता है।”
भारत ‘विश्वगुरु’ कहलाया ऐसे महापुरुषों की वजह से और आगे भी विश्वगुरु बनेगा इन्हीं के संकल्प एवं सत्प्रयासों से।
अमिट और पुर्ण सुख यह मानव जीवन की मूलभूत माँग है उसे पूर्ण करने वाले ब्रह्मवेत्ता संत आज भी समाज में विद्यमान हैं। ब्रह्मवेत्ता संत श्री आशाराम जी बापू ने पिछले 50 वर्षों में देश विदेश में ऋषियों का प्रसाद बाँटा-बँटवाया, गाँव-गाँव व नगरों-महानगरों में ‘मधुर मधुर नाम हरि हरि ॐ’ की पवित्र ध्वनि गुँजायी, हजारों बाल संस्कार केन्द्र खुलवाये तथा 14 फरवरी को ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ और 25 दिसम्बर को तुलसी पूजन दिवस’ की क्रान्तिकारी पहल की। होली खेलने के लिए प्रयुक्त होने वाले रासायनिक रंगों से कई बीमारियाँ फैलती थीं व उन्हें लगाने संबंधी कुरीतियों से उत्तेजना फैलकर होली जैसा त्योहार दूषित होता था। दूरद्रष्टा बापू जी ने उसे नया मोड़ देते हुए रासायनिक रंगों के स्थान पर पलाश के हितकारी फूलों का रंग व कुरीतियों की जगह सुरीतियाँ शुरु करवायीं। पलाश के फूलों का पवित्र रंग जो उत्तेजना, विकारों व रोगों को थामने में, मिटाने में सक्षम है, उससे होली खेलना प्रारम्भ कराया और होलिका-प्रह्लाद की कथा का तात्त्विक रहस्य बताकर सत्संग, सेवा, प्रभु-प्रेम में सराबोर हो के होलिकोत्सव मनाना सिखाया।
संत श्री गरीबों-आदिवासियों को भोजन व रोजमर्रा की चीजें, भजन-सत्संग व दक्षिणा में रुपये देने की योजना चलायी, लाखों लोगों को व्यसन मुक्त किया एवं भगवद्भक्ति का रस चखाया। हजारों गौओं को हत्यारों से बचाया। जागो… भारतवासियो ! जागो….. समझ की आँख खुली रखो, ऐसे महापुरुष को पहचानो तथा उन संत की हयाती में ही उनसे अपना, समाज का तथा देश एवं विश्व का मंगल करा लो।
सबका मंगल सबका भला।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 2, अंक 301
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