बड़ौदा में प्रतापसिह राव गायकवाड़ का राज्य था । उनकी महारानी शांतादेवी स्वामी शांतानंद जी के दर्शन करने गयीं । आश्रम में जाकर उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति गौशाला में सफाई कर रहा है । शांतादेवी ने उससे कहाः “मुझे पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने हैं ।”
उसने कहाः “यहाँ कोई गुरुदेव नहीं रहते ।”
आगे जाकर उन्होंने किसी दूसरे से पूछाः “स्वामी शांतानंदजी महाराज क्या इधर नहीं हैं ?”
वह बोलाः “इधर ही हैं । क्या आपने उन्हें गौशाला में नहीं देखा ?”
“वे तो मना कर रहे हैं ?”
“गौशाला में सेवा करने वाले स्वयं ही पूज्यपाद स्वामी शांतानंद जी महाराज है ।”
यह सुनकर वे पुनः गौशाला की ओर गयीं एवं प्रणाम करते हुए बोलीं- “मुझे पता नहीं था कि आप ही परम पूज्य गुरुदेव हैं और गौशाला में इतनी मेहनत कर रहे हैं ।”
स्वामी शांतानंदः “तो क्या साधु या संन्यासी वेश परिश्रम से इन्कार करता है ?”
“आज मैं आपके दर्शन करने एवं सत्संग सुनने के लिए आयी हूँ ।”
“अच्छा ! सत्संग सुनना है तो सेवा कर । ले यह लकड़ी का टुकड़ा और मिट्टी का तेल । इन छोटे-छोटे बछड़ों के खुरों में कीड़े पड़ गये हैं । उन्हें लकड़ी से साफ करके तेल डाल ।”
शांतादेवी ने बड़े प्रेम से बछड़ों के पैर साफ किये और हाथ पैर धोकर स्वामी शांतानंद जी के चरणों में सत्संग सुनने जा बैठीं । उनके दो वचन सुन के शांतादेवी ने कहाः “महाराज ! आज सत्संग से मुझे जो शांति, जो लाभ मिला है ऐसा लाभ, ऐसी शांति जीवन में कभी नहीं मिली ।”
स्वामी शांतानंद जीः “आज तक तूने मुफ्त में सत्संग सुना था । आज कुछ देकर फिर पाया है इसीलिए आनंद आ रहा है ।”
गुरु तो अपना पूरा खजाना लुटाना चाहते हैं किंतु…. शिष्य को चाहिए कि तत्परता से सेवा करके अपना भाग्य बना ले तो वह दिन दूर नहीं, जब वह गुरु के पूरे खजाने को पाने का अधिकारी हो जायेगा । सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय भी हो तो फिर उतने परिश्रम की आवश्यकता भी नहीं होती । सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 21, अंक 312
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