सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं कि जब भगवान नारायण के नाभिकमल से ब्रह्माजी का प्राकट्य हुआ तब ब्रह्मा जी दिङ्मूढ़ (कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ, जब कोई मार्ग नहीं दिखाई दे) की स्थिति में पड़ गये। वे समझ नहीं पा रहे थे कि ‘मेरा प्रादुर्भाव (प्राकट्य) क्यों हुआ ? मुझे क्या करना है ?’ तभी आकाशवाणी हुईः ‘तप कर… तप कर….’
तत्पश्चात् ब्रह्माजी समाधि में स्थित हुए। उससे सामर्थ्य प्राप्त करके उन्होंने अपने संकल्प से इस सृष्टि की रचना की। अर्थात् हमारी सृष्टि की उत्पत्ति ही तप से हुई है। इसका मूल स्थान तप है।
वास्तविक कल्याण में सबसे बड़ी बाधा और उसका निर्मूलन
हमारे सत्शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप बताये गये हैं। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण तप है निष्काम कर्म, सेवा, परोपकार। इसी तप को भगवान ने गीता में ‘कर्मयोग’ कहा तथा ज्ञान, भक्ति और योग की भाँति इस साधना को भी भगवत्प्राप्ति, मोक्षप्राप्ति में समर्थ बताया।
व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के प्रति तो उदार रहता है परंतु दूसरों की उपेक्षा करता है। वह स्वयं को दूसरों से भिन्न मानता है। इसी का नाम अज्ञान, माया है। जन्म-मरण का, शोक-कष्ट का, उत्पीड़न व भ्रष्टाचार आदि पापों का यही मूल कारण है। भेदभाव और द्वेष ही मृत्यु है तथा अभेद भाव, अनेकता में एकता, सबमें एक को देखना, सबकी उन्नति चाहना ही जीवन है।
समस्त बुराइयों का मूल है स्वार्थ और स्वार्थ अज्ञान से पैदा होता है। स्वार्थी मनुष्य जीवन की वास्तविक उन्नति एवं ईश्वरीय शांति से बहुत दूर होता है। न तो उसमें श्रेष्ठ समझ होती है और न ही उत्तम चरित्र। वह धन और प्रतिष्ठा पाने की ही योजनाएँ बनाया करता है।
मनुष्य के वास्तविक कल्याण में स्वार्थ बहुत बड़ी बाधा है। इस बाधा को निःस्वार्थ सेवा एवं सत्संग के द्वारा निर्मूल किया जाता है। स्वार्थ में वह दुर्गुण है कि वह मन को संकीर्ण तथा हृदय को संकुचित बना देता है। जब तक हृदय में ‘मैं’ और ‘मेरे’ की लघु ग्रंथि होती है तब तक सर्वव्यापक सत्ता की असीम सुख-शांति नहीं मिलती और हम अदभुत, पवित्र प्रेरणा प्राप्त नहीं कर पाते। इन्हें पाने के लिए हृदय का व्यापक होना आवश्यक है। इसमें निःस्वार्थ सेवा एक अत्यंत उपयोगी साधन है।
परम लक्ष्यप्राप्ति हेतु पहली सीढ़ी
निष्काम कर्म जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है। इसके अभ्यास से चित्त की शुद्धि होती है तथा भेदभाव मिटता है। सबमें ईश्वर की भावना दृढ़ होते ही ‘अहं’ की लघु ग्रंथि टूट जाती है और सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता से जीव का एकत्व हो जाता है। भगवद्भाव से सबकी सेवा करना यह एक बहुत बड़ा तप है।
ईशावास्योपनिषद् में आता हैः
ईशावास्मिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।
अखिल ब्रह्मांड में जो कुछ भी जड़-चेतनरूप जगत है वह समस्त ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुए (सदा-सर्वदा ईश्वर का स्मरण करते हुए। इसे त्यागपूर्वक भोगो (अर्थात् त्यागभाव से केवल कर्तव्यपालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपयोग करो)। किसी भी धन अथवा भोग्य पदार्थ में आसक्त मत होओ क्योंकि यह किसका है ? अर्थात् किसी का भी नहीं।
यहाँ पर ‘त्याग’ पहले है और ‘भोग’ बाद में। यदि व्यक्ति अपने परिवार में ही आसक्त रहे तो विश्वप्रेम विकसित नहीं कर सकेगा, विश्वभ्रातृत्व नहीं पनपा सकेगा। सभी के बच्चे अपने बच्चों के समान नहीं लगेंगे। व्यक्ति का प्रेम, जो व्यापक ईश्वर-सत्ता को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है, वह प्रेम नश्वर परिवार के मोह में ही फँसकर रह जायेगा।
वे तो धरती पर साक्षात् भगवान हैं !
परमार्थ को साधने के लिए, कलह, अशांति तथा सामाजिक दोषों को निर्मूल करने के लिए विश्वप्रेम को विकसित करना होगा। संकुचितता को छोड़कर हृदय को फैलाना होगा। सुषुप्त शक्तियों को प्रकट करने का यही सबसे सरल उपाय है।
जिनका प्रेम विश्वव्यापी हो गया है उनके लिए सभी समान हैं। समस्त ब्रह्मांड उनका घर होता है। उनके पास जो कुछ है, सबके साथ बाँटकर वे उसका उपयोग करते हैं। दूसरों के हित के लिए अपना हित त्याग देते हैं। कितना भव्य व्यक्तित्व है उन महामानव का ! वे तो धरती पर साक्षात् भगवान हैं !
सरिताएँ सबको ताजा जल दे रही हैं। वृक्ष छाया, फल तथा प्राणवायु दे रहे हैं। सूर्य प्रकाश, ऊर्जा एवं जीवनीशक्ति प्रदान करता है। पृथ्वी सभी को शरण तथा धन-धान्य देती है। पुष्प सुगन्ध देते हैं। गायें पौष्टिक दूध देती हैं। प्रकृति के मूल में त्याग की भावना निहित है।
निःस्वार्थ सेवा के द्वारा ही अद्वैत की भावना पैदा होती है। दुःखियों के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दिखाने वालों से तो दुनिया भरी पड़ी है परंतु जो दुःखी को अपने हिस्से में से दे दें ऐसे कोमल हृदय लोग विरले ही होते हैं।
….इसी से मनुष्य जन्म सार्थक कर सकते हैं
निःस्वार्थ सेवा चित्त के दोषों को दूर करती है, विश्वचैतन्य के साथ एकरूपता की ओर ले जाती है। जिसका चित्त शुद्ध नहीं है, वह भले ही शास्त्रों में पारंगत हो, वेदांत का विद्वान हो, उसे वेदांतिक शांति नहीं मिल सकती।
सेवा का हेतु क्या है ? चित्त की शुद्धि… अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि कुभावों की निवृत्ति… भेदभाव की समाप्ति। इससे जीवन का दृष्टिकोण एवं कर्मक्षेत्र विशाल होगा, हृदय उदार होगा, सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होंगी, विश्वात्मा के प्रति एकता के आनंद की झलकें मिलने लगेंगीं। ‘सबमें एक और एक में सब…’ की अनुभूति होगी। इसी भावना के विकास से राष्ट्रों में एकता आ सकती है, समाजों को जोड़ा जा सकता है, भ्रष्टाचार की विशाल दीवार को गिराया जा सकता है। हृदय की विशालता द्वारा वैश्विक एकता को स्थापित किया जा सकता है तथा अखूट आनंद के असीम राज्य में प्रवेश पाकर मनुष्य-जन्म सार्थक किया जा सकता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 4-5 अंक 311
शाकों में बथुआ श्रेष्ठ है। इसमें पौष्टिक तत्त्वों के साथ विविध औषधिय गुणधर्म भी पाये जाते हैं। यह उत्तम पथ्यकर है।
आयुर्वेद के अनुसार बथुआ त्रिदोषशामक, रूचिकारक, स्वादिष्ट एवं भूखवर्धक तथा पचने पचाने में सहायक, बल वीर्य वर्धक, पेट साफ लाने वाला एवं पित्तजन्य विकारों को नष्ट करने वाला है।
आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार बथुए में विटामिन ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘के’, व कैल्शियम, मैग्नेशियम, पोटैशियम, फॉस्फोरस, सोडियम, लौह, मैंगनीज आदि खनिज तत्त्व प्रचुरता से पाये जाते हैं।
बथुए के नियमित सेवन से रक्त मांसादि शरीर की समस्त धातुओं का पोषण होता है तथा नेत्रज्योति बढ़ती है। खून की कमी, कृमि, रक्तपित्त, बवासीर, उच्च रक्तचाप, यकृत के विकारों में इसका सेवन लाभदायी है। पित्त प्रकृतिवालों के लिए यह विशेष रूप से लाभदायी है। पित्त के कारण सिरदर्द, अम्लपित्त, चर्मरोग, सर्वशरीरगत जलन आदि में यह लाभदायी है। पेटदर्द तथा कब्ज के कारण उत्पन्न वायु-विकार (गैस) में इसका सेवन हितकारी है। पीलिया में बाथु का साग उत्तम पथ्यकर है।
तिल्ली के विकार दूर करने में बथुआ अद्वितिय है। यह आमाशय को ताकत देता है। कब्ज की तकलीफ होने पर नित्य कुछ दिनों तक इसका साग खाना चाहिए।
मंदाग्नि, कब्ज, आँतों की कमजोरी, अफरा आदि पेट की समस्याओं में लहसुन का छौंक लगाकर बथुए का रसदार साग खाने से अथवा काली मिर्च, जीरा व सेंधा नमक मिलाकर इसका सूप पीने से पेट साफ होता है, भूख खुल के लगती है, आँतों को शक्ति मिलती है।
बथुए का साग कम से कम मसाला व बिना नमक मिलाये ही खाया जाय तो ज्यादा फायदा करता है। आवश्यक हो तो थोड़ा सेंधा नमक मिला सकते हैं।
बथुए के औषधिय प्रयोग
1.याद्दाश्त की कमीः बथुए के चौथाई कटोरी रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर रात को सोने से पूर्व पियें। 15 दिन तक नियमित प्रयोग करने से लाभ होता है।
2.बवासीरः इसमें बथुए का साग व छाछ का सेवन लाभदायी है।
सावधानीः बथुए में क्षारों की मात्रा अधिक होने के कारण पथरी के रोग में इसका सेवन नहीं करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 31 अंक 311
मन के शिष्य इतना शांति नही रख सकते, मन के गुलाम इतने संयमी नही हो सकते, इतनी संख्या मन के गुलामों की हो तो क्या-क्या हो जाए? ये तो गुरुभक्तों का परिचय है। अभी थोडा परिचय और देना। जो नए-नए है, वो पुराने साधकों से प्राणायाम की विधि सीख ले और घर में ये दस प्रणायाम करके फिर श्वास अंदर गया “ॐ” बाहर आया तो गिनती। और भी पुराने साधक है तो श्वास अंदर गया तो “सोह” सोह माना वह चैतन्य जिसकी शक्ति से हाथ उठता है, जिसकी शक्ति से मन सोचता है, जिसकी कभी मौत नही होती। वह चैतन्य “सोह”। श्वास बाहर आया तो “हम”, वो मैं हूँ, बस ! साक्षात्कार का एकदम सीधा रास्ता है, फिर उसके लिए ज्यादा समय नही लगता ईश्वर प्राप्ति का, फिर उसको दुःख नही दबा सकता है, उसको संसार की चिंता नही दबा सकती है, उसके ऊपर ग्रह-नक्षत्र बाहर का प्रभाव नही पड़ सकता है। जैसे भगवान नारायण निर्लिप्त है ऐसे वो निर्लिप्त नारायण का स्वरूप बन जाएगा। उसको बोलते है अपर ईश्वर। वो ईश्वर चतुर्भुजी चार हाथ नही है अथवा शंभ सदाशिव जैसा डमरू और ये नही है, फिर भी शिवजी जिसमें टिके है, भगवान नारायण जिसमें टिके है वो सच्चा शिष्य गुरु का उसी पद में टिक जाता है। ऐसे महापुरुष के लिए अष्टावक्र संहिता में लिखा है –
“तस्य तुलना केन जायते ।।“ ऐसे आत्मरामी सोहं स्वरूप में टिके हुए पुरुष की तुलना कौन कर सकता है?
“तस्य तुलना केन जायते ।।“ किससे तुलना करोगे?
“धीरो न द्वेष्टि संसारं।।“ फिर वो संसार की किसी परिस्थिति से द्वेष नही करता।
”आत्मानं न दिक्षति।।“ फिर वो आत्मा परमात्मा को चाहता नही है, परमात्मा जिससे परमात्मा है उसी आत्मा का ज्ञान तो उसको हो गया है।
“आत्मानं न दिक्षति।।“ “हर्षम अंहर्ष।।“
हर्ष के समय हर्षित भी होगा, नाराज के समय नाराज भी होगा। फिर भी एक ऐसी सोहम की अनुभूति में डटा रहेगा कि देखेगा कि ये व्यवहार चलाने के लिए मन कर रहा है, मैं उससे न्यारा हूँ। मौत भी आ जाए तो समझेगा कि ये मेरी मौत नही हो रही है, ये जन्म जिसका हुआ वो शरीर मर रहा है, मैं शरीर के पहले था, अब भी हूँ और बाद में रहूँगा। दुःख के पहले भी मैं सोहम साक्षी था, दुःख के समय भी वो दुःखी नही होगा, दुःख का भी साक्षी हो जाएगा। वाहवाही के समय, वो वाहवाही में फूलेगा नही, वाहवाही का भी साक्षी हो जाएगा। तो दुःख, सुख, मान, अपमान सब उसके आगे छोटे हो जाएँगे। वह सबसे ऊँचे अनुभव में विराजेगा।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति॥
मरते समय वो अपनी मौत नही मानता है। और शरीर के जीने से अपना जीवन नही मानता है। ये तो अज्ञानता से निगुरे लोग मानते है कि शरीर का जीवन को अपना जीवन मानते है। शरीर के रोग को अपना रोग मानते है। निगुरे लोग, मन के दुःख को अपना दुःख मानते है निगुरे लोग। निगुरे है ! क़ईयों को गुरु मिलते है तो गुरु भी, अब जैसे शिक्षक तो मिले लेकिन वो तीसरी क्लास, पाँचवी क्लास अथवा मैट्रिक पास वाला शिक्षक मिला तो विद्यार्थी भी उतना ही जाएगा। ऐसे ही आध्यात्मिकता में भी कईं कर्मकांडी गुरु होते है, कई देवी के उपासक होते है, कई कृष्ण के उपासक होते है, कई किसी के उपासक होते है, तो गुरुओं की भी अपनी-अपनी स्थिति होती है, चेला वही तक पहुँचेगा। कोई-कोई करोडो में कोई-कोई आत्मसाक्षात्कारी गुरु होता है जैसे श्रीकृष्ण थे, आत्मसाक्षात्कारी थे, श्रीराम थे तो
आत्मसाक्षात्कारी थे, अष्टाकवक्र आत्मसाक्षात्कारी थे। “मनुष्याणां सहस्रेषु ।।“ हजारों मनुष्यो में कोई ईश्वर के रास्ते ठीक से चलते है। बाकी तो अपना मनमाना चिल्लाते रहते है, जैसा मन में आया ऐसे ही करते रहते है।
“मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।।“
हजार लोग श्रद्धा रखते है उसमें भी कोई विरला ठीक से सिद्धि की तरफ चलता है।
“यततामपि सिद्धानां।।“
ऐसे सिद्धि की तरफ, सिद्धि माना हृदय की शुद्धि, जो संकल्प होवे वह होने लग जाए, ऐसी ऊँची अवस्था आने लगती है। तुम्हारे में भी कई साधकों की ऐसी स्थिति हो जाती है, लेकिन फिर खानपान हल्का खा लेते है, जिस किसी से हाथ मिला लेते है, जिस किसी से, फिर साधना को नष्ट कर लेते है। तो कोई-कोई सिद्धि को प्राप्त होता है और सिद्धि में भी कोई-कोई विरला तत्व को प्राप्त होता है। तो फिर उसको अनुभव होगा कि “मैं ये शरीर नही हूँ”। और मैं हृदय में रहनेवाला एक जरा सा आत्मा नही हूँ, वही चैतन्य जो हृदय में है वही बाहर है। और फिर बाहर-भीतर का भेद भी मिट जाता है, व्यापक ब्रह्म वहाँ वाणी नही जाती, ऐसी स्थिति में कोई-कोई विरला संत पहुँचता है। ऐसा संत अगर गुरु रूप में मिल जाए तो साधकों को कितना ऊँचा लाभ होगा। मेरे को ऐसे गुरु मिल गए इसीलिए मेरे को लाभ जोरदार, नही तो तीन साल की उमर में चमत्कार होने लगे थे। मेरी दस साल की उमर थी तो रिद्धि-सिद्धियों के खेल हुए। फिर बाईस साल की उमर तक घर में जो भी साधना उपासना करते थे, कभी काली माँ आ गई ऐसा डर लगता था तो रजाई तान लेते थे, हनुमानजी की उपासना की तो हुप-हुप के पेड़ पर चढ़ जाते पत्ते खाने का भाव आवेश हो जाता। ये सब हुआ। तो दूसरों की नजर से तो लगता था कि अपने को बहुत है, लेकिन जब गुरुजी मिले तब पता चला कि राम राम ! जब गुरुजी की कृपा मिली और उपदेश मिला और थोड़ा उसी अनुसार सोहमस्वरूप में जग गए तो लगा कि ओहो ! अब भगवान विष्णु, भगवान ब्रह्मा, भगवान शिव और दूसरे सब भगवान आ जाए तो भी मेरे को कोई लाभ नही। और नही आते तो कोई हानि नही। वे भगवान जिससे भगवान है वही आत्मा मेरा ब्रह्म है। तो उदालक को ये साक्षात्कार हुआ था। तो उदालक राजकुमार थे। उनका राजतिलक होनेवाला था लेकिन पिताजी तिलक करके मेरे को राज्य देंगे, फिर मैं राजकाज में लगा रहूँगा। अभी पिता राजकाज का बोझा छोड़ के एकांत में ईश्वरप्राप्ति के लिए जा रहे है। अब बुढ़ापे में ईश्वर मिले ना मिले, ईश्वर प्राप्त करानेवाले बढ़िया गुरु मिले ना मिले, तो पिताजी मेरे को राज्य दे जाएँगे। इसके पहले, मैं राजकाज में पडूँ, इसके पहले मैं अपने आत्मा-परमात्मा को पा लूँ । तो उदालक रातो-रात राजतिलक होने से पहले चुपचाप रात को भाग गए घर से, दौड़ते, दौड़ते, दौड़ते सीमाओं को पार करते-करते, जहाँ सुबह होती वहाँ गिरी गुंफा में कहीं छुप जाते, घुड़सवार कहीं खोज ना ले, रात होती तो चलते-दौड़ते । इस प्रकार एकांत में किसी गुंफा में उदालक घासफूस का आसन लगाया, कंदमूल ले आए, जलवल का व्यवस्था किया और अपने मन को समझाने लगे। तूने आँख से जुड़कर कितना भी संसार देखा, संसार नश्वर है, अब जिससे आँख देखती है उस परमात्मा में तू शांत हो जा, कान से मिलकर तूने कितना कुछ सुना, अब जिससे सुना जाता है उस सोहमस्वरूप में शांत हो जा, जीभ से मिलकर कितना-कितना खाया और ये लूली लटकाकर आखिर में जल जाएगी। ऐसे ही कामविकार के इन्द्रिय से मिलकर तू सुखी होने के लिए भटका लेकिन क्या सुख मिला? बंधन ही मिले। कामविकार ! तो बकरा एक दिन में चालीस बकरियों के साथ काला मुँह करता है। तो कामी बनने से तो तेरा सत्यानाश होगा। मन ! अब मैं तेरे कहने में नही चलूँगा, अब मैं तो ज्ञान के आश्रय से, गुरुओं के उपदेश से, अपने आत्मस्वरूप में आता हूँ। ऐसे करके सोहम की उपासना, कभी कीर्तन, कभी शांत, फिर भी मन भाग जावे। पिताजी ढूँढते होंगे, घुड़सवार कहाँ पहुँचे होंगे? अरे ! ये तो सब मन की वृत्ति है। जगत तो अत्यंत तुच्छ है, इस तुच्छ जगत का चिंतन करके तुच्छ क्यों बनता है? हरि ॐ ततसत और सब गपसप। मन शांत होवे। फिर मन कभी सुन्न हो जाए तो ॐ ॐ ॐ करके मन को चेताये, फिर मन में थोड़ा हर्ष आनंद आए। ऐसे करते-करते उदालक का ध्यान यहाँ लगने लगा। कभी प्रकाश दिखे, कभी नीला वर्ण दिखे, कभी जीभ तालू में लगे, कभी हँसी आए। इस प्रकार के अनुभव होने लगे। जब साधना बढ़ गई तो एक बार मन्त्र बोले तो उसका सौ गुना हो जाए और उस मंत्र के अर्थ में शांत हो जावे। तो जितना आदमी शांत होता है, मंत्र करके उतनी उसकी शक्ति बढ़ती है। अशांतस्य कुतह सुखम। अशांत को सुख कहाँ और शांत आदमी को दुःख कहाँ? फिर उदालक को आनंद आने लगा और फिर तो एक घण्टा, दो घण्टा बीत जाए। शांतआत्मा, निःसंकल्प। जब ऐसी स्थिति हुई तो अप्सराएँ आई, गन्धर्व आए और उदालक की प्रशंसा करने लगे। स्वर्ग के देवता आए। “उदालक! आज तो तुम धनभागी हो गए हो, तुमको स्वर्ग का विचरण करना हो तो भी आ सकते हो। तुम आत्मा-परमात्मा में शांत होकर शांतमना हो गए। तुम्हारे दर्शन से हमारे पुण्य बढ़ रहे है, उदालक आपका स्वागत हो !” उदालक ने देखा कि ये स्वागत में क्यों फँसना? निंदा में क्यों फँसना? ये स्वागत भी मरनेवाले शरीर का, निंदा भी मरनेवाले शरीर की । शरीर से पहले जो था, शरीर के बाद जो रहता है, वह मैं आत्मा में परमात्मा में विश्रांती पाए। वो जैसे आए, उदालक की सराहना करनेवाले यक्ष, गंधर्व, किन्नर, देवता वैसे ही करकरा के चले गए, उदालक अपनी मस्ती में ज्यों के त्यों। ऐसे करते-करते भगवान ब्रह्माजी प्रगट हुए कि आज जीव तू ईश्वर रूप हुआ। हम भगवान जिससे भगवान है उस आत्मा में तूने स्थिति पाई। भगवान विष्णु प्रगट हुए, भगवान शिव प्रगट हुए। उदालक ने अपना शरीर पंचभौतिक है और वो दिव्य शरीर है इस हिसाब से उनका स्वागत किया, पूजन किया तब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आपस मे प्रसन्न होकर कहे कि आज ये जीव हमारा रूप बन गया है। आज इन्होंने अपनेआप को जान लिया है, अपने स्वभाव को जान लिया है। “स्व” “भाव” ! लोग मन के स्वभाव को बोलते है मेरा स्वभाव बिगड़ा है, नही नही ! मन का स्वभाव बिगडता है, अपना स्वभाव तो शंकरस्वरूप सहज संभारा , लागे समाधि अखंड अपारा ।।
आत्मा तो नित्य है। आत्मा को कोई बिगाड़ नही सकता। बिगाड़ता है तो मन, ज्यों-ज्यों संसार की इच्छा करता है, संसार का चिंतन करता है, त्यों-त्यों मन हल्का हो जाता है और जो संसार के चिंतन में भी अपने साक्षीस्वरूप का चिंतन करता है, त्यों-त्यों मन उन्नत होता है और ज्यों-ज्यों साक्षी स्वभाव में शांत होता है, त्यों-त्यों मन अमानी हो जाता है और ब्रह्म बन जाता है। जैसे वाष्प है, पानी है और बर्फ है, तो बर्फ पराधीन हो जाती है, उसको कोई उठाए तब चले क्योंकि जड़ हो गई। पानी थोड़ा स्वाधीन है, लेकिन वाष्प तो और भी स्वाधीन है। ऐसे ही मन ज्यों-ज्यों संसार का चिंतन करता है, त्यों-त्यों स्थूल हो जाता है। और ज्यों साधना करता है, त्यों-त्यों सूक्ष्म हो जाता है और साधना में टिकता है तो सूक्ष्मतम हो जाता है, नारायण स्वरूप हो गया। पचास साल नही हुए “पचास वर्ष थई गया पच्ची पोताणु हाथ संसार ना व्यवहार मा था धीरे धीरे खीँच लहे” साधना में ही ज्यादा समय लगाना चाहिए। संसार ने किसी को सुख नही दिया। संसार भले-भलों को रुला देता है। भगवान रामजी के पिताजी थे, उनको भी संसार ने पूरा सुख नही दिया और जितना भी सुख मिलेगा या तो नाक से मजा आएगा परफ्यूम या जीभ से मजा आएगा या तो काम इन्द्रिय से आएगा। इन मजा में तो सजा ही छुपी है। अपनी शक्ति का ह्रास होता है।
जप करते-करते जब ध्यान में जाते है, ब्रह्मस्वरूप आत्मा में स्थिति होने लगती है और प्रभात काल बहुत अच्छा होता है। सुबह का शांत वातावरण बहुत सुखदाई होता है और उस शांत वातावरण में श्वासोश्वास की गिनती। अपनी तरफ से श्वास खेंचे नही, श्वास चल रहा है, आँख खुली रखे, नाक के आगे हिस्से पर नजर रखे, श्वास अंदर गया तो “सोह”, सोह माना वह चैतन्य जिसमें उदालक टिके थे, जिसमे शिवजी टिके है, जिसमें भगवान नारायण टिके है, जिसमें ज्ञानवान टिकते है, वह “सोह” श्वास अंदर गया तो “सोह” बाहर आया तो “हम” “सोहम”, तो बुद्धि के अनुकूल होता है, तो बुद्धि में जिसका प्रतिबिंब पड़ने से आनंद आता है वो मैं हूँ। मन के अनुकूल होता है तो मन में जिसकी झलक पड़ती है वो मैं हूँ, झलक को देखनेवाला मैं हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं अमर हूँ। जिसकी सत्ता से आँख देखती है, जिसकी शक्ति से हाथ उठता है वह मैं हूँ चैतन्य हूँ। हाथ को पता नही ये हाथ है लेकिन मुझ चैतन्य को पता है कि ये हाथ है। मन को पता नही मैं मन हूँ लेकिन मैं जानता हूँ मेरा मन दुःखी है, मेरा मन सुखी है।
सोहम, इससे आखरी सिद्धि मिल जाती है आत्मा परमात्मा को।
प्राणायाम करके हम थोड़ा ध्यान करते थे फिर चलते थे, तो थोड़ा यूँ चले तो आकाश में उड़ने की सिद्धि आ गई ऐसा लगता था, लेकिन फिर वो छोड़ दिया हमने। आकाश में तो पक्षी भी उड़ते है, उड़ने की सिद्धि मिल गयी तो क्या है? पानी में चलने की सिद्धि आ जाती है। लेकिन वो तो मछलियाँ भी चल रही है। वो सिद्धि जहाँ से पैदा होती है उस आत्मा “सोहम” में जगो। ऐसे यूँ करके कोई चीज वस्तू निकाल के दे देवे, ऐसे लोग भी है। अच्छा है अपनी-अपनी जगह पर लेकिन आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार के आगे वो सब कुछ भी नही है।
एक ऐसा संन्यासी साधू था। कुछ वर्ष पहले की बात है, तो कोई भी आए, तो उसको यूँ करके वस्तू निकाल के दे दे, तो वो खुश हो जाते, प्रभावित हो जाते, तो कोई खास भगत हो तो वो जो माँगे तो वो चीज उसको दे देते थे। कोई तांत्रिक थे, अच्छे। अखंडानंद सरस्वती नौ सन्यासियों को लेकर, दसवे वह गए, रात को कि आज ऐसी चीज माँगे कि वो अपने प्रेत से मंगा के देने में समर्थ न हो, तो रात को दस बजे संत लोग गए। बोले हम तुम्हारे अतिथि है महाराज !
बोले – भोजन-वोजन किया है?
बोले – भोजन किया नही है। तुम्हारे यहाँ ही भोजन करेंगे आप मनचाहा भोजन करा देंगे न?
तो बोले – क्या खाना है बोलो?
बोले – मालपुए खाने है।
अब सोचा की दस आदमी के रात को मालपुए कहाँ से मँगा के देखे प्रेत से।
बोले – दस बजे रात को मालपुए ? वाह साधू लोग ! ठीक है !
बातों में रखा और जो कुछ उसको संकल्प करना था अपना विधि करना था मन से किया, जैसा भी, थोड़ी देर में उसने यूँ हाथ हिलाया तो उसके हाथ में एक तगारी (तसला) और दस आदमी खाए उतने मालपुए ! तो अखंडानंद सरस्वती बोलते है कि हमने वो मालपुए खाए, भूख भी मिटी, स्वाद भी आया, रात को नींद भी अच्छी आई। फिर सुबह लोटा लेके मालपुए खाली करने को गए। आप समझ गए न। लोटा लेके, मालपुए खाली, ऐसा कोई चीज नही जो मिली और खाली न करनी पड़े, छोड़नी न पड़े। बचपन मिला तो छोड़ना पड़ा, जवानी मिली वो भी चली गई खाली हो गई, बुढापा आता है वो भी चला जाता है, मौत आती है वो भी चली जाती है। लेकिन सदा रहता है अपना सोहम स्वभाव। उसको छोड़ के जो भी मिलेगा वो सब माया का खेल है। तो जब लोटा लेके मालपुआ खाली करने गए, मतलब डबल गए, अब तो समझ गए न, लैट्रिन गए जंगल में, तो हरिजनों की बस्ती में माईयाँ लड़ रही थी। एक माई बोलती है कि “रांड ! दस आदमी खाए उतने मालपुए, मैं बरातियों के यहाँ से उठा लाई थी। पत्तल-वत्तल में से कैसे भी और मैंने संभाल के घर में रखे, अब तसला भी नही और मालपुए भी नही। रांड! तू ही ले गई होगी !”
बोली- “मुझे अपने बेटे की सौगंध है जो मालपुए ले गई हूँ”
तो बोली – तो क्या भूत ले गए क्या? तू नही गई तो दूसरा पड़ोस में कौन है? बाहर के चोर आके थोड़े ही मालपुए की जगह खोज लेंगे और ले जाएँगे! तू ही ले गई होगी रांड ! सच बता ?
उसने बोला मेरे बेटे की कसम है मैंने तेरे मालपुए देखे ही नही !
“क्या बेटे की कसम है? रांड ! तेरे को कीड़े पड़ेंगे। ऐसा होगा…”
वो माईयाँ अपनी-अपनी भाषा मे। अखंडानंद लिखते है कि हमको बड़ी ग्लानि हुई कि धत तेरे की ! ये ही वो प्रेत, इनका साधा हुआ प्रेत वो मालपुए उठा के लाया, हमने खाए। अब मालपुए तो खाली कर दिए, लोटे गए, मालपुए तो खाली हो गए लेकिन ग्लानि खाली नही हुई कि धत तेरे की!
ऐसे ही कहीं अंगूठियाँ बनवा के रख दी, कहीं कुछ रख दिया, कंकू की डिबिया रख दिया अपने निवास के पास में और वो फिर कोई भगत आया तो मन में बोला कि तू ये ले आ वो ले आ, प्रेत दिखता नही सूक्ष्म शरीर होता है उनका, वो ला के अपने हाथ मे रख देता है तो अपने यूँ करके दे दिया तो सामनेवाला बड़ा प्रभावित हो जाता है कि गुरुजी ने ये दे दिया, गुरुजी ने ये दे दिया, लेकिन इसमें कोई एक प्रकार की विद्या है। इससे सामनेवाले की आत्मा का उद्धार तो नही होगा न, वो इम्प्रेस हो गया।