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गुरुसेवा क्या है एवं क्यों व कैसे करें ?


ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु व्यापक ब्रह्मस्वरूप होते हैं । उनकी सेवा क्या है, कैसे करें व उसका क्या माहात्म्य है ? आइये जानते हां शास्त्रों व महापुरुषों के वचनों में-

ऐसी है गुरुसेवा की महिमा !

भगवान ब्रह्मा जी देवर्षि नारद जी से कहते हैं-

गुरुशुश्रुषया सर्व प्राप्नोति ऋषिसत्तम ।।

‘उत्तम ऋषि ! गुरुसेवा से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है ।’ (स्कन्द पुराण, वैष्णव खंड, का. मा. 2.2)

स पण्डितः स च ज्ञानी स क्षेमी स च पुण्यवान् । गुरोर्वचनस्करो यो हि क्षेमं तस्य पदे पदे ।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण (1.12.7) में आता है कि ‘वही पण्डित, ज्ञानी, कल्याण का अधिकारी और पुण्यवान है जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है । पग-पग पर उसका कल्याण होता है ।’

संत ज्ञानेश्वर जी ने कहाः “गुरुसेवा समस्त भाग्यों की जन्मभूमि है क्योंकि गुरुसेवा ही शोकग्रस्त जीव को ब्रह्मस्वरूप बनाती है ।”

श्री उड़िया बाबा जी कहते हैं- “आत्मविचार की उत्पत्ति गुरुसेवा से होती है । जैसे भृंगी का ध्यान करते-करते कीड़ा तद्रूप हो जाता है, इसी प्रकार गुरु की सेवा में तत्पर रहने से शिष्य में गुरु के गुण आ जाते हैं ।”

शास्त्रों में आता है कि ‘गया तीर्थ में श्राद्ध करने से पितरों की सद्गति होती है ।’

पर भगवान शिवजी बताते हैं कि ‘गुरुसेवा गया प्रोक्ता…’ गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है ।

अतः नित्य गुरुसेवा करने वाले को गया तीर्थ का फल ऐसे ही प्राप्त हो जाता है । उसके पितरों की सद्गति में तो शंका ही नहीं है ।

स्वामी मुक्तानंद जी कहते हैं- “शास्त्रमार्ग पर चलने वाला तो कोई विरला ही तरता है परंतु गुरुमार्ग से जाने वाले सब के सब तर जाते हैं । जो भगवान को ढूँढने जाता है, वह भगवान को ढूँढता ही रहता है पर जो गुरु की सेवा करता है, उसको भगवान ढूँढने आते हैं कि वह कहाँ सेवा कर रहा है ।

सुतीक्ष्ण बड़ा गुरुभक्त था । गुरुभक्ति की महिमा को समझ के राम जी सुतीक्ष्ण के गुरु के साथ उसकी कुटी में उससे मिलने आये । राम जी को देख के उसे कुछ विस्मय नहीं हुआ । सद्गुरु उसके लिए भगवान राम से भी बहुत ज्यादा बड़े थे । उसने पहले सद्गुरु को ही नमन किया, फिर राम जी को । राम जी उसे सच्चा गुरुभक्त जान के बड़े प्रसन्न हो गये ।”

गुरुसेवा का वास्तविक अर्थ

श्री आनंदमयी माँ से किसी भक्त ने पूछाः “माँ ! गुरुसेवा क्या है ?” तब उन्होंने गुरुसेवा की परिभाषा स्पष्ट बताते हुए कहाः “बिना विचारे गुरु के आदेश का पालन करना ।”

गुरुभक्तियोग का सिद्धान्त है कि सद्गुरु जो आज्ञा करें वह कार्य बिना विचारे हृदयपूर्वक करना चाहिए और जिस कार्य की मना करें वह कदापि नहीं करना चाहिए । अपनी अल्प मति के तर्क-कुतर्क का शिकार नहीं होना चाहिए ।

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता है कि “जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चार पुरुषार्थों को पाना चाहता है वह आत्मज्ञानी संत महापुरुष की सेवा करे ।

सेवा क्या है ? बाबा जी के पैर दबायें यह सेवा है ? क्या पंखा हाँकें, चँवर डुलायें ?… नहीं-नहीं….. अग्या सम न सुसाहिब सेवा । वे जैसी आज्ञा करें, संकेत करें उसके अनुसार करना यह उनकी सेवा है ।

तो उनकी आज्ञा क्या है ? उनकी आज्ञा यही है, उनका संकेत यही है कि आप तरो, औरों को तारो । आप जपो, औरों को जपाओ । आप दुःखमुक्त हो जाओ, दूसरों को दुःखमुक्त करो । आप बेईमानी-मुक्त हो जाओ, दूसरों को बेईमानी-मुक्त होने में सहायता करो । आप चिंतारहित बनो, दूसरों को चिंतारहित करने में सहायक बनो । ब्रह्मवेत्ता महापुरुष जैसे भी संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं वह सब कार्य करने में आप सफल होते हैं तो आपने दुनिया में बड़े-से-बड़ा, ऊँचे-से-ऊँचा सौदा पक्का कर लिया । ब्रह्मवेत्ता के हृदय को प्रसन्न करने के लिए आपने थोड़ा समय लगा दिया तो आपने बहुत लाभ पा लिया, आपने बहुत कमाई कर ली अपनी, और ऐसी कमाई का मेरा निजी अनुभव है इसलिए आपसे कहता हूँ ।

दुनियादारों को रिझाते-रिझाते बाल सफेद हो जाते हैं और खोपड़ी घिस जाती है फिर भी लोगों को वह लाभ नहीं होता जितना लाभ एक ब्रह्मवेत्ता श्री लीलाशाह जी भगवान को रिझाने से मुझे हुआ है, यह मुझे ज्ञात है । श्री रामकृष्ण को रिझाने से नरेन्द्र को, तोतापुरी जी को रिझाने से रामकृष्ण को, गुरु नानक जी को रिझाने से अंगददेव जी को, विसोबा खेचर जी को रिझाने से नामदेव जी को, इनायत शाह को रिझाने से बुल्लेशाह जी को, संत रैदास जी को रिझाने से मीराबाई को, गुरु रामानंद जी को रिझाने से कबीर जी आदि को जो लाभ हुआ उसका वर्णन कैसे किया जाय !”

गुरुसेवा है आत्मसेवा, कैसे ?

स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती कहते हैं– “एक बार हमारे सेवक ने पूछा कि ‘स्वामी जी ! हम आपके साथ रहे न रहें तो आपका काम चल जायेगा ?’

असल में सेवा अपने कल्याण के लिए की जाती है, गुरु के कल्याण के लिए नहीं । उस सेवा से जो विशेषता उत्पन्न होती है, वह गुरु में उत्पन्न नहीं होती है, वह शिष्य के अंतःकरण में उत्पन्न होती है । तो यदि शिष्य द्वारा अपने अंतःकरण की शुद्धि की दृष्टि से सेवा की जाती है तो वह उसका कल्याण करती है और यदि गुरु का उपकार करने के लिए सेवा की जाती है तो वह शिष्य के अंतःकरण में अभिमान उत्पन्न करती है । तो सेवा अभिमान उत्पन्न न करे – इसके लिए सेवा करने के बाद अपनी एक आलोचना (समीक्षा) करो । तुम्हारे मन में क्या आया कि ‘हमने आज बड़ी सेवा की !….’ तो बोलें कि ‘नहीं जी, हमसे कितनी कम सेवा हुई !’ माने अपनी सेवा में जो न्यूनता है, उस पर जब दृष्टि जायेगी तब तुम्हारा कल्याण होगा और अपनी सेवा की अधिकता पर जब दृष्टि जायेगी तब तुम्हारा अमंगल होगा ।”

स्वामी शिवानंद जी महाराज ने ‘गुरुभक्तियोग’ में लिखा है कि ‘जो शिष्य गुरु की सेवा करता है वह वास्तव में अपने-आपकी ही सेवा करता है ।’

पूरणपोडा, संत एकनाथ जी, संत ज्ञानेश्वर जी, सहजोबाई, तोटकाचार्य, संत कबीर जी, भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज, पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू तथा और भी नामी-अनामी जो सत्शिष्य हो गये, उनके जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तो पता चलता है कि उन्हें गुरुसेवा से किस अवर्णनीय लाभ, आत्मलाभ की प्राप्ति हुई है ।

आत्मलाभ पाकर शिष्य कृतकृत्य हो जाते हैं और जिन गुरुदेव की कृपा से उन्हें परम पद की प्राप्ति हुई है उनके प्रति उनका हृदय कृतज्ञता से भरा रहता है ।

गुरुभक्त सुतीक्ष्ण को जब आत्मज्ञान हो गया तब वे अपने गुरुदेव श्री अगस्त्य ऋषि से कहते हं- “भगवन् ! आपके असीम अनुग्रह से मैं ज्ञातव्य तत्त्व का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त कर उसमें स्थित हूँ । हे गुरुवर ! मैं कृतार्थ हो गया हूँ, आपके सम्मुख भूमि पर दंडवत् पड़ा हूँ । शिष्य गुरु के उपकार (ऋण) से किस प्रत्युपकार द्वारा उऋण हो सकते हैं ? किसी से भी नहीं हो सकते । इसलिए शिष्यों को चाहिए कि मन, वचन और कर्म से गुरु के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दें । वही उनका गुरु के उपकार से निस्तार है । अन्य किसी भी कर्म से गुरु जी के उपकार से निस्तार नहीं हो सकता ।” (श्री योगवासिष्ठ महारामायण, निर्वाण प्रकरण, सर्ग 216, श्लोक 21-23)

हम सभी साधक-भक्तों का परम सौभाग्य है कि इस कलिकाल में भी हमें ब्रह्मवेत्ता महापुरुष पूज्य बापू जी सद्गुरुरूप में प्राप्त हुए हैं और उनके दैवी कार्यों में सहभागी होने का हमें सुअवसर मिल रहा है । इस स्वर्णिम अवसर का सदुपयोग करके हम गुरुदेव के ज्ञान से, गुरु-तत्त्व से एकाकारता का अनुभव कर लें यही गुरुसेवा का परम फल है और यही पूर्ण आत्मसेवा है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 2, 28, 29 अंक 316

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कैसी हो शिक्षा ?


बच्चे ही भविष्य के स्रष्टा हैं । वे ही भावी नागरिक हैं । वे ही राष्ट्र के भाग्य-विधायक हैं । उन्हें शिक्षित करो, अनुशासित करो, उचित ढाँचे में डालो । प्रत्येक बच्चे के भीतर उत्साह व साहस है । उसे अपने को व्यक्त करने का सुअवसर प्रदान करो । उनके उत्साह, साहस को कुचलो नहीं बल्कि उचित दिशा दो । शिक्षण तथा अनुशासन की सफलता का रहस्य बच्चों की उचित शिक्षा पर निर्भर है ।

शिक्षा का उद्देश्य

छात्रों को वास्तविक जीवन से अवगत कराना ही शिक्षा का उद्देश्य है । मन का संयम, अहंकार-दमन, दिव्य गुणों का अर्जन तथा आत्मज्ञान ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है । छात्रों के शरीर तथा मन को स्वस्थ बनाना, उनमे आत्मविश्वास, नैतिकता, उत्साह एवं सच्चरित्रता की स्थापना करना – यही शिक्षा का लक्ष्य होनी चाहिए । बौद्धिक शिक्षण एवं आत्मविकास – ये दोनों साथ-साथ होने चाहिए ।

आध्यात्मिक शिक्षण के अनुसार ही सांसारिक एवं व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त होना चाहिए । मनुष्य की मानसिक तथा नैतिक उन्नति उसकी वैज्ञानिक तथा यांत्रिक उन्नति के कारण नहीं हुई है । सांसारिक सफलता द्वारा शिक्षा का माप-तौल न करो । शिक्षा में जो नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति का वास्तविक लक्ष्य है, उसका ह्रास कदापि न होना चाहिए ।

शिक्षा का लक्ष्य छात्रों के दैनिक जीवन में सादगी, सेवा तथा भक्ति के आदर्श का आरोपण करना है, जिससे वे सदाचारी एवं बलवान बनें और अपनी शिक्षा का उपयोग निर्धनों एवं विवशों के उपकार तथा देश एवं साधु-संतों की सेवा में करें । जीवन का वास्तविक मूल्यांकन न कर छात्र पदवी एवं सम्पत्ति पर ही आर्थिक ध्यान रखते हैं । मनुष्य को निर्भय, अहंकाररहित, निःस्वार्थ, निष्काम बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए । आधुनिक छात्रों की शिक्षा कुछ अधिक पुस्तकीय हो गयी है । वे व्यावहारिक उपयोगी ज्ञान की अपेक्षा डिग्री-प्राप्ति के पीछे ही परेशान रहते हैं । छात्र अपने कॉलेज-जीवन में भी लक्ष्यरहित रहता है । उसका कोई निश्चित कार्यक्रम तथा लक्ष्य नहीं रहता । आत्मविकास तथा निज देश-जाति को वैभवशाली बनाने में हाथ-बँटाना ही शिक्षा का उचित अर्थ होना चाहिए ।

प्राच्य पद्धति लाने की आवश्यकता

ये ही आदर्श हैं जिनको उत्तरोत्तर अधिक उत्साह के साथ व्यावहारिक रूप में छात्र-छात्राओं के सम्मुख रखने की आवश्यकता है । शिक्षा विभाग में प्राच्य पद्धित लाने की आवश्यकता है । छात्रगण ऋषियों एवं संतों के प्रमुख संदेशवाहक बनें और उनकी ज्ञान-ज्योति से दुनिया के कोने-कोने को आलोकित कर दें ।

स्कूल तथा कॉलेजों में शुद्धता, सद्ज्ञान, सच्चरित्रता, निष्काम सेवा की भावना, भक्ति, वैराग्य आदि गुणों से विभूषित शिक्षक ही नियुक्त किये जायें । तभी शिक्षा में सुधार हो सकेगा । विज्ञान धर्मविरोधी नहीं है, उसका अंग है । विज्ञान का अतिक्रमण कर आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करो । वास्तविक विवादातीत है, उसका प्रकटीकरण एक प्रकार से जीवन में ही किया जा सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 19 अंक 316

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बिना किसी शर्त के ईश्वर का दर्शन !


– स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती

जिसमें वैराग्य नहीं है वह अपने शरीर को सुरक्षित रखकर ईश्वर को देखना चाहता है । एक बाबू जी कहते थेः “मैं ईश्वर को तब मानूँगा जब वह मेरे सामने सम्पूर्ण सृष्टि का प्रलय करके फिर से सृष्टि बनाये ।”

एक साधु ने पूछाः “ईश्वर प्रलय करेगा इसे आप कैसे देखना चाहते हो ? आप अपना शरीर बचाकर देखना चाहते हो या अपने शरीर का भी प्रलय देखना चाहते हो ?”

बाबू जी बोलेः “मेरा शरीर तो बचा ही रहेगा । नहीं तो मैं देखूँगा कैसे ?”

ऐसा नहीं हुआ करता । शरीर में अहंभाव ही राग है और वही तो बंधन है । देहाध्यास भी बना रहे और ईश्वर भी मिल जाय, यह सम्भव नहीं है । यह जो हड्डी, मांस, रक्त, पित्त, कफ, मल, मूत्र की देह है, इसे लेकर भगवान से नहीं मिला जा सकता । यह भगवान से मिलने योग्य नहीं है । हम कई मित्र एक महात्मा के पास गये । उन्होंने उस दिन मौज में आकर कहाः “वरदान माँगो !”

किसी ने भक्ति माँगी, किसी ने वैराग्य । सांसारिक विषय किसी ने नहीं माँगा । हममें से एक ने कहाः “मुझे अभी और बिना किसी शर्त के ईश्वर का दर्शन कराइये ।”

उन महात्मा ने स्वीकार कर लिया । सबको भगवन्नाम-संकीर्तन करने को कहा । वे स्वयं भगवान से प्रार्थना करने लगे । खूब रोये । वातावरण बड़ा गम्भीर और पवित्र बन गया । हम सब उत्सुक हो गये । थोड़ी देर में वे महात्मा बोलेः “भगवान आ गये हैं और दर्शन भी देना चाहते हैं किंतु वे कहते हैं कि “इसने मेरे दर्शन के लिए कोई साधन भजन तो किया नहीं है । मैं इसे दर्शन दूँगा तो इसके सब पुण्य समाप्त हो जायेंगे । मेरा दर्शन ही सब पुण्यों का फलभोग बनकर मिल जायेगा । फिर शेष जीवन में इसे बचे हुए पापों का ही फल भोगना पड़ेगा । इसके सारे शरीर में कुष्ठ हो जायेगा । इसकी सब निंदा करेंगे, इस पर थूकेंगे । रोग, शोक, कष्ट, अपमान ही इसे पूरे जीवन भोगना पड़ेगा । इससे पूछ लो, यदि यह स्वीकार करे तो मैं इसके लिए प्रकट होता हूँ ।”

यह बात सुनते ही सज्जन का मुख पीला पड़ गया । नेत्र फटे से  हो गये । हाथ-पैर ढीले पड़ गये । वे बोलेः “मुझे सोच लेने दीजिये !”

महात्मा ने पूछाः “तुम चाहते क्या थे ?”

वे बोलेः “मैं तो समझता था कि भगवान का दर्शन हो जाने पर मैं भी आपके समान महात्मा हो जाऊँगा । मेरा भी सब लोग सम्मान करेंगे । मेरी पूजा होगी । मुझे बिना माँगे सब सुविधाएँ मिलती रहेंगी ।”

इस प्रकार शरीर के सुख-सम्मान के लिए ही लोग ईश्वर को भी चाहते है । ऐसे परमात्मा नहीं मिला करता । ईश्वर को प्राप्त करके भी जो देह का महत्त्व चाहता है उसे ईश्वर कैसे मिल सकता है ? देह को ‘मैं’ समझना ही तो ईश्वर की प्राप्ति में बाधक है ।

ईश्वर को प्राप्त करना है तो देह से ऊपर उठना होगा । तुम प्रेम, भक्ति, ज्ञान कुछ भी चाहो, देह से ऊपर उठे बिना इनमें से किसी की प्राप्ति सम्भव नहीं है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 25 अंक 316

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