भय मृत्यु है, निर्भयता जीवन है । नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः… (मुंडकोपनिषद् 3.2.4)
यह आत्मशांति, आत्मशक्ति की प्राप्ति या आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार दुर्बल मन वाले को नहीं होता । दुर्बल मन वाला व्यक्ति संसार के व्यवहार में जल्दी से सफल नहीं होता । इसलिए मनोबल कमजोर नहीं करना चाहिए ।
रोग या दुःख थोड़ा सा आता है लेकिन मन अगर दुर्बल है तो रोग, दुःख बढ़ जाता है । बीमारी थोड़ी हो लेकिन आप घबराये तो बीमारी बढ़ जाती है । जैसे बाहर के जगत के एटम बम काम करते हैं, ऐसे ही ॐकार अंदर की दुर्बलता के लिए एटम बम है । नहा-धोकर अथवा ऐसे ही भगवान, इष्ट, सद्गुरु को प्रणाम कर के फिर 10-20-50 बार ॐकार का दीर्घ जप (लम्बा उच्चारण) करना चाहिए । महिलाएँ 10-20 बार करेंगी तो भी फायदा होगा ।
मैं छुईमुई का पौधा नहीं, जो छूने से मुरझा जाता है ।
मैं वो माई का लाल नहीं, जो हौवा से डर जाता है ।।
कोई कभी किधर से गुज़रे, कभी इमली के पास से गुज़रे, कभी कोई कब्रिस्तान से गुज़रे और डरे कि ‘कुछ होगा तो नहीं….?’ अरे, जिंदा आदमी तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सका तो मुर्दा क्या बिगाड़ेगा ! भय जैसा दुनिया में और कोई पाप नहीं और निर्भयता जैसा कोई पुण्य नहीं । तुमने देखा होगा, कोई पदार्थ – शहद हो, घी हो, दूध हो, उसे एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालना हो और मन में होता हो, ‘अरे ढुल तो नहीं जायेगा, ढुल तो नहीं जायेगा…. !’ तो जरूर ढुलेगा । और ‘नहीं ढुलेगा’ सोच के डाल दो तो धड़ाक धुम… नहीं ढुलेगा ।
जाते हो काम करने को और सोचते हो कि ‘यह काम होगा कि नहीं…. होगा कि नहीं होगा ?…’ तो नहीं होगा । और ‘होगा ही’ – ऐसा अंदर से आयेगा तो होकर रहेगा ।
आपका शरीर इधर है और मन का दृढ़ संकल्प है तो ऐसे का ऐसा शरीर दूसरी जगह दिख सकता है । श्रद्धा में, मन में इतनी शक्ति है कि अगर तुम पहाड़ को कहो, ‘हट जा !’ तो हटने को तैयार है, इतनी शक्ति तुम्हारे अंदर भगवान ने दे रखी है ।
जा के मन में खटक है, वही अटक रहा ।
जा के मन में खटक नहीं, वा को अटक कहाँ ।।
संकल्प में विकल्प न मिलाओ और दृढ़ रहो तो संकल्प के अनुसार परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं । और ‘अनुकूलता-प्रतिकूलता सपना है, उनको जानने वाला चैतन्य आत्मा मेरा अपना है’ – ऐसा नज़रिया रखो तो यह तो बहुत ऊँची स्थिति है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 20 अंक 317
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