बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -7)

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -7)


बुल्लेशाह कुछ ऐसा करना चाहता था कि घरवाले और समाज के लोग उसका पीछा छोड़ दे और वह अपने गुरु के चरणों में अपना सहज जीवन यापन कर सके।इसलिए आज वह निकल पड़ा।लम्बे डग भरता हुआ वह सीधा पहुँचा धोबी घाट पर।धोबी भी हजरत इनायत का एक शिष्य ही था। इसलिए आश्रम से आये अपने गुरुभाई को देखकर धोबी खिल उठा। बुल्लेशाह ने उसे अपने मनसूबे खुलकर बता डाले। पहले पहल तो धोबी घबराया, परन्तु फिर खिलखिला उठा। बुल्लेशाह का साथ देने को राजी हो गया। उसने योजना अनुसार बुल्लेशाह को अपनी सारी गधहियां दे दी। बस अब क्या था! बुल्लेशाह उनमें से एक गधी पर सवार हो गया। बाकी सब को भी साथ-2 हाँकने लगा उँची-2 आवाज में बेधड़क काफ़िया भी गाने लगा। इस तरह निकल पड़ी इस अलबेले बाँके मुरीद की शोभायात्रा!बुल्लेशाह ने जान-बूझकर अपना रुख़ जान-पहचानवाले इलाकों की ओर किया। जहाँ उसके शोहरत के चर्चे थे,लोग उसे सय्यदजादा कहकर पुकारते थे, बस उन्हीं कस्बों की ओर गधहीयों पर बैठकर वह बढ़ चला। उसका यह रौनक जुलूस जिस-2 गली या कुचे से गुजरा वहीं हुजूम के हुजूम इकठ्ठे हो गए। जगह-2 लोगों का जमघट नजर आने लगा।”तौबा-2 यह क्या? सय्यद नवाब गधही पर!” मुँह खुले की खुले रह गए।धीरे-2 लोग कानाफूसी करने लगे। कोने-2 में खुसर-फुसर होने लगी। दुनियादार ख़ूब खुलकर बुल्लेशाह की निंदा करने लगे। थू-2 कर उठे। एक ने कहा कि लगता है, “शर्म-हया घोलकर पी चुका है यह। कोई दीन-ईमान रहा है नहीं।”बुल्लेशाह ने यह सुना तो बुल्लेशाह कह उठा की,”नहीं, कस्बोवालो नही! मेरा दीन भी है और ईमान भी है। बस उनकी अब तासीर बदल गई है। मेरा दीन भी इनायत है अर्थात गुरु है, ईमान भी गुरु है, मेरी दुनिया भी गुरु है, मेरी पसन्द भी गुरु है, मेरा शौक़ भी गुरु है, मेरा फक्र भी गुरु है, मेरी आन-बान भी गुरु है, मेरी बिसाद भी गुरु है, मेरी आबरू, जाहो-जलाल सब गुरु ही है। गुरु ही है -2 और बस गुरु ही है।बुल्लेशाह की काफ़िया खड़ताल बजा-2 कर इनायत नाम का, अपने गुरु के नाम का कीर्तन करने लगी। उसपर बेफिक्री का अनोखा आलम छा गया। गधही पर हिचकोले खाते रहा और खाते हुए आँखे मूँदकर काफ़िया गुनगुनाने लगा कि-*अपनी पगड़ी ही अपना ही कफ़न बना,**मैं आया कूचे यार में।**ताला लगाले जिसका जी चाहे,**मुझे ऐसे-वैसों की परवाह भी नहीं।**हम मस्ती के आलम में हर वक्त डूबा करते हैं।**फाँसी का फंदा चूम-2 सूली अपनाया करते हैं।**छोड़ो मत दुनियावालों तुम हमराही उस मंजिल के हैं,**जहाँ शहंशाही को कदमों से हररोज़ उड़ाया करते हैं।-2*दुनियावालों मैं रौंद चुका हूँ अपनी पिछली शहंशाही और हस्ती को।इसलिए तुम भी मुझे भूल जाओ कि सय्यदों की सुल्तानी हवेली में बुल्लेशाह नाम का कोई नवाबजादा हुआ था । भूला डालो उस शख्स को उसके अक्स तक को। अगर भूल नही सकते तो फिर उसे गधहियाँ हाँकनेवाला बावरा मानकर उससे किनारा कर लो। उसे पागल करार देकर अपनी सोच से बेदखल कर दो। छी-2! करके उससे घिन करो। बेअदब, वाहयात, गुस्ताख़, निकम्मा कुछ भी कहो, कुछ भी!बस, उसका पीछा छोड़ दो। ताकि उसके कतरे-2 पर इनायत की सिर्फ सद्गुरु की मलकियत हो सके। जुबाँ का एक लब्ज़ भी तुमसे बेकार की बात करने में ना खपे। साँसों की तार-2 पर मेरे इनायत के नाम की धुन बज सके।बुल्लेशाह के मनसूबे पूरे होने लगे। वह जो चाहता था वही हुआ। कस्बेवाले सोचने लगे कि, बुल्लेशाह मानसिक असंतुलन का शिकार हो गया है। उसकी दंगई हरकतें किसी दिमागी रोग से उपजी है। कूचे और बाजारों में बुल्लेशाह के नाम पर क़हक़हे लगने लगे। उसे उन्मादी दीवाना या धुनि पागल कहा जाने लगा।परन्तु क्या सच में यह पागलपन था? दुनियावी आँखों के लिए जरूर यह पागलपन हो सकता है। ऐसी नज़रे और समझ क्या जाने कि, यह पागलपन नहीं, पागलपन को महज़ ओढ़ना है। इसमें शिष्यत्व की उँची मिसाल है। एक शिष्य की गुरु के कदमों में लीन होने की बेजोड़ कोशिश है।दरअसल गुरु और शिष्य की नस्ल ही कुछ ऐसी होती है। जहाँ एक संसारी होठों पर नुमाइशे, मुस्कान और बाते सजाकर रिश्ते जोड़ने-गढ़ने में लगा रहता है।मतलबी मक़सद लिए एक-दूसरे को मनाने-रिझाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। वही एक दीवाना शिष्य कभी-2 खुद को अल्हड़पन से सजा-धजा लेता है, ताकि संसार की तमाशबीन फ़ौज उससे दूर रहे। जिसने प्रेमी का बाणा पहन लिया और इश्क़ के शहनशाह अर्थात सद्गुरु के हाथों प्रेम का प्याला पी लिया वह समझो सांसारिक तौर-तरीकों से बेनिहाज़ हो गया। फिर उसके लिए संसारिक तौर-तरीके नहीं रह जाते। उसके जीवन में गुरु ही गुरु होते है। हालाँकि अक्सर देखने में लगता है कि संसार ने शिष्य का बहिष्कार कर दिया। उसे नालायक या नाकाबिल जानकर उससे रास्ता काँट लिया। परन्तु ऐसा नहीं है।एकबार चम्पा के फूल से किसी ने पूछा कि-*”चम्पा,तुझमें तीन गुण रूप,रंग और बास!**अवगुण तुझमें कौनसा जो भँवरा ना आवे पास?”*सवाल सुनते ही चम्पा ने बेखटक जबाब दिया-*”माली,मुझमें तीन गुण रूप,रंग और बास!**पर गली-2 के मीत को कौन बिठाये पास?”*अरे! कमी मुझमें नहीं जो भँवरा मेरे पास नहीं आता। बात तो यह है कि, मैं उस मतलबी मधुचोर को पास भटकने ही नहीं देती। ठीक यही रवैय्या बुल्लेशाह जैसे गुरुभक्तों का होता है। ये प्रेमी खुद दीन दुनिया को ठोकर मारते है।जमाने भर के मौकापरस्तों से खुद दामन छुड़वाते है। मकसद सिर्फ एक है कि उन्हें अपने गुरु के प्रेम की पूरी और खरी लज्जत मिल सके। उनकी बक्षीसो का बेमिलावट स्वाद मिल सके। उनकी नूरे नजर मिल सके।इसलिए शिष्यों की धड़कनों में हरदम यही तराना बजता है कि-*सारी दुनिया से हाथ धोकर देखो,**जो कुछ भी रहा-सहा है उसे खोकर देखो।**क्या अर्ज करूँ की, उसमें क्या लज्जत है?**एक मर्तबा क़ामिल सद्गुरु के होकर देखो।।*एक फारसी गुरुभक्त ने तो यहाँ तक ऐलान किया कि मैं अपने नाखूनों से छाती फाडूंगा ताकि राहखुले और वहाँ रहनेवाले भाग खड़े हों। तभी तो मेरे प्रियतम सद्गुरु के साथ मेरा अकेला रहना हो सकेगा। कुछ इसी इरादे से बुल्लेशाह ने भी गधहीयों पर जुलूसे-जश्न मनाया। इसका अंजाम क्या हुआ कि,*पत्थर लेकर गलियों-2 लोग मुझे पुछा करते हैं।**हर बस्ती में मुझसे आगे शोहरत मेरी पहुँचती है।*लोग बुल्लेशाह को पागल जानकर उनपर पत्थर फेकते और हु-हल्ला करकर जहाँ भी जाते वहाँ से लोग उन्हें भगा देते। जहाँ से गुजरते सभी उचक-2 कर एक-दूसरे के कंधो के उपर से झाँकते ,यह देखने को उतावले होते कि उनके नवाबजादे जो रंगीन ठाठदार बग्गियों में घूमा करते थे, आज एक कीच सनी गधही पर कैसे सजे-धजे बैठे है।जिन पर कढाहियों में कढ़ी, शेरवानी और नोकदार जूतियाँ जँचती थी आज गुदड़-लथो में कितने जँच रहे है।एक दिन बुल्लेशाह को कहीं ढोलकी की थाप सुनाई दी। उन्होंने जब देखा कि किन्नरों की बिंदास टोली मस्त मिजाज में नाच रही है। फिर बस,अब क्या था?सद्गुरु का रूहानी हुस्न को बुल्लेशाह ने अपने नैनों में कैद कर लिया और पलकें गिरा दी। *जिसपे उदखाना तसद्दुक अर्थात न्यौछावर -2,**जिसपे काबा भी निसार।**आसमानी झरोखों ने पाया* *सूरती सद्गुरु का ऐसा दीदार।* कि बुल्लेशाह आंखे बंद कर उन किन्नरों के साथ ही ठुमकने लगे।बिना सूर के, बिना ताल के नाचने लगे और गाने लगे कि-*जिस दिन लगाया इश्क़ कमाल।**नाचे बेसुर ते बेताल।ओहो -2**जदो हजरों प्याला पित्ता**कुछ न रिह्या सवाल-जबाब**जिस दिन लगाया इश्क़ कमाल**नाचे बेसुर ते बेताल ।।**जिसदी अन्दर बसया यार**उठया यारों यार पुकार।**न ओह चाहे राग न ताल**एने बैठा खेड़े हार।**जिस दिन लगया इश्क़ कमाल* *नाचे बेसुर ते बेताल।।*जिसने सद्गुरु से रूहानी इश्क का पैमाना भर भी पी लिया – 2 वो मेरी ही तरह बेसुर, बेताल ताता- थैया करता है यारों। लेकिन बुल्लेशाह की यह मदहोशी क्या -2 गुल खिलायेगी? हिजड़ों के बीच उसका यह मस्त नाच सय्यदों की आलीशान हवेली पर कैसा असर डालेगी? अब यही देखना है, इसपर परिवारवालो की क्या प्रतिक्रिया होगी?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

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