उधर कई दिन बीत गए जब बुल्लेशाह हवेली नहीं लौटा तो उसके परिवार वाले चिंतित हो उठे। किसी को नहीं पता था कि वह कहाँ और क्यों गया है।इसलिए गहरी खोजबीन शुरू हो गई। हर मुमकिन ठौर-ठिकानें पर उसे ढूँढा जाने लगा। खोज की इस दौर में वे जा पहुँचे बुल्लेशाह के उसी दोस्त के घर जिसके सलाह पर वह लाहौर के लिए रवाना हुआ था। इस दोस्त ने उन्हें बताया कि बुल्लेशाह रब की खोज में लाहौरी फ़क़ीर इनायत शाह के आश्रम पर गया है।कुटुम्बी पहले ही बुल्लेशाह के वैरागी रंग-ढंग देखकर दहशत में रहते थे। सय्यद खानदान के छोटे नवाब कहीं फ़कीर की राह ना चुन बैठे, यह डर उनके दिल के किसी कोने में हरपल बना ही रहता था।अब जब बुल्लेशाह के किसी फ़कीर के आश्रम पर जाने की बात सुनी तो एक पल के लिए तो उनकी साँसे ही अटक गई। उन्होंने उसी क्षण बुल्लेशाह को लीवा लाने के लिए उसके मित्र को लाहौर भेज दिया।मित्र भी पूछता-2 आखिर आश्रम पहुँच ही गया, परन्तु जैसे ही उसने भीतर प्रवेश किया उसके कदम रुक गए। क्योंकि आँखो देखी पर उसे विश्वास नहीं हुआ। क्या सामने देहाती लिबास में खड़ा नौजवान बुल्लेशाह ही है? नहीं-2 ,लेकिन शक्ल तो हुबहू बुल्ले से ही मिल रही है। परन्तु ये साहबजादे क्या कर रहे है- भैंसों की मालिश? छी-छी! समीप जाकर धीरे से बोला, “बुल्ले ,वाह बुल्ले! यहाँ तो काफी ठाट-बाठ से रह रहे हो!”मित्र का स्वर कटाक्षपूर्ण था, परन्तु बुल्लेशाह को होश ही कहां था। वह तो अपनी मस्ती में, सेवा में मग्न था। आनंदरस में लबालब डूबा था। इसलिये बस अपनी ही धुन में कह उठा,”हाँ यार , क्या बताऊँ? मुझे यहाँ कौन से ठाट-बाठ मिले हैं ,कैसा सुकून मिला है, लब्जों में तो ताकत ही नहीं है, कैसे बयाँ करूँ?”मित्र उत्साहित होते हुए बोला कि, “सब छोड़ ,पहले बता इनायत मिले या नहीं? क्या तेरा काम बना? जो नूरानी दीद के लिए तू मारा-2 फिरता था? वह हासिल हुआ या नहीं?”बुल्लेशाह बोले, *इनायत का मैं मोहताज़ हुआ**महाराज मिले मेरा काज हुआ**दर्शन पियादा मेरा इलाज हुआ**आप में आप समाया है**मेरे सद्गुरु अलख लखाया है।*हाँ, यहाँ महाराज इनायत भी मिल गए और उनका रहमों-करम भी।उन्होंने मेहरबान होकर मेरी बेकरार रूह को क़रार दे दिया।ख़ुदा का नूरानी दीद करा दिया।जो रूहानी नज़ारे आजतलक नहीं लखे थे उन्हें लखा दिया। जो अन्तःकरण सूखकर कुम्हला चुका था वह अमृतसुधा से सराबोर हो गया है। जहाँ विकारों की दुर्गंध बसी थी वहाँ सुमिरन की सुगन्ध बिखर गई है। आनन्द की कमल खिल उठे हैं। अब तो हर ओर आनन्द ही आनन्द है, रूहानी सुरूर है।मित्र बुल्लेशाह के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला ,”बस, बस बुल्ले!सचमें आज बरसों बाद मैने तुझेे यूँ ख़ुशदिल देखा है। पर पता है? हवेली में तेरे वालिद, अम्मी, भाईजान सब कितने परेशान हैं?उन्होंने ने ही तुझे लौटा लाने को मुझे यहाँ भेजा है।””लौटूँगा तो मैं हरगिज़ नहीं और लौटूँ भी क्यों उस कसुमबड़ेे के बाग में?”मित्र ने कहा, “कसुमबड़े का बाग! क्या मतलब?”हाँ बिल्कुल! यह संसार कसुमबड़े का बाग ही तो है! तूने कसुमबड़े के फूल देखे है ना, कितने सुन्दर और आकर्षक होते हैं। लेकिन छूने पर पता चलता है कि, उसका रंग कितना कच्चा है, कितने बारीक काँटे छिपे हैं उनमें? कैसे जहरीले डंक मारते हैं वे? कोई समझानेवाला नहीं था इसलिए मैं ताउम्र उन्हीं की फुहीयाँ चुगता रहा, उन्हीं की कँटीली झाड़ी में अपना दामन उलझाता रहा। पर अब,अब मैं यह नादानी नहीं करनेवाला। साईंजी ने मुझे रूहानियत के बाग में ला खड़ा किया है। अब तो मैं यहाँ इबादत के फूल सँजोऊँगा ,पाके इश्क़ की कलियाँ चुमूँगा।अच्छा!तो अब नवाबजादे यहीं रहेंगे! परन्तु शायद आपको पता नही कि,यह आपका दो दिन का बुख़ार है! यह दो दिन का नशा है!जब गर्मियों से इस छप्पर से छनकर अँगारे गिरेंगे और जाड़े में कहर बरसेगा तब पता चलेगा? सारी ख़ुमारी चुटकियों में ही उतर जायेगी। जब रोज-2 रूखी-सूखी खाने को मिलेगी ना तो इनायत के शक्ल में ख़ुदा नहीं गरीबी के दर्शन होंगे। सख्त ज़मीन पर सोकर जब शरीर अकड़ेगा तब उनके क़दमों में जन्नत नहीं धूलि-कंकड़ बिखरे दिखेंगे।बुल्लेशाह मुस्कुराते हुए बोले, “नहीं यार ! यह कोई चंद रोज़ का नशा नहीं है। मेरे सद्गुरु इनायत तो अब मेरी ज़िन्दगी बन चुके हैं।”*समाँ गए हैं मेरे जिस्म में वे जाँ की तरहा!**है जज्ब मेरे रूह में वे नबी ख़ुदा की तरहा!बस उनकी रहमतों की साये में ज़िन्दगी गुज़र जाएँ,मुझे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए?**उनके क़दमो में आए गर मौत भी आए, ये एक एहसान बस मौत का भी चाहिए!*मित्र ठिनककर बोला, “ठीक है बुल्ले! अगर तूने इस डगर पर चलने की ठान ही ली है, तो मेरे कुछ कहने का अब क्या फायदा?तुझे तेरी रूहानियत का बाग मुबारक हो! मैं तो चला अपने उसी कसुमबड़े के बाग में फ़ुहीये चुनने , ख़ुदा हाफ़िस!”मित्र ने यहाँ से सीधा बुल्लेशाह की हवेली का रास्ता लिया। वहाँ परिवारवाले बड़ी बेसब्री से उसकी बाँट जोह रहे थे। इसलिये जैसे ही उसने आँगन में क़दम रखा पूरा का पूरा सय्यद खानदान वहीं उमड़ आया। सबके पूछने पर मित्र ने बताया कि,”बुल्लेशाह नहीं आयेगा। वह उस अराई जाति के फ़कीर का शागिर्द हो गया है।उसने उन्हीं के आश्रम पर जिन्दगी गुजारने का फैसला किया है।इसलिए वह वापस नहीं लौटेगा।”यह सुनते ही भाइयों की तो तोरियाँ तन गई, नथुने फड़कने लगे, मुठ्ठियाँ भिच गई । गुर्राकर वे बोले, “उसकी यह हिमाक़त! देखते हैं कैसे नहीं लौटेगा? पहले तो रब का भूत सवार था, अब फ़कीरी का चढ़ा लिया। लगता है उसके ये भूत उतारने ही पड़ेंगें!”वहीं बुल्लेशाह के पिता की आँखों में बदनामी का डर तैर गया।ऊँच-नीच, जातिभेद की सैकड़ों दलीलें उनके भीतर कोहराम मचाने लगी। इन्हीं दलीलों को बुलन्द करते हुए वे बोले कि, “उसे कुल-मर्यादा का कोई लिहाज़ है की नहीं? एक अराई जातिवाले की झुग्गी में जाके बैठ गया!समाज क्या कहेगा? किस-2 को जबाब देते फिरेंगे? कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़के ने?”माँ छाती पीट-2 कर रोते हुए बोली,” कैसा पत्थर का ज़िगर है उसका? अपनी अम्मी का भी ख़याल नहीं आया? क्या यही दिन देखने के लिए उसे जना था?दुलार के आँचल में झुलाया था?उससे कहो, पहले यह कर्ज़ा उतारे नहीं तो मेरी लाश को लाँघकर जाये!”बुरखे की आड में से भाभीयाँ बोली,”भाईजान की कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी तो हैं कि नहीं? जरा तो सोचा होता, घर में जवान बहनें बैठी हैं? कल को इनका निक़ाह भी करना है? 36 बातें बनेगी, किस-2 का मुँह बन्द करते फिरेंगे?”देखते ही देखते बुल्लेशाह का सद्गुरु को समर्पित होना एक संगीन जुर्म क़रार दे दिया गया। कल तक जो खानदान का जगमग चिराग़ था, आज अचानक कलंक घोषित कर दिया गया।”नामाकुल, बेग़ैरत, एक पैसे का लिहाज़ बाकी नहीं रहा उसे। जो जी में आया करता है। कम्बख्त! अब उस अराई जातिवाले के छप्परखाने में जाकर बैठ गया। अब तो हमें उसकी वह आवारागर्दी, मनमर्जी तोड़नी ही पड़ेगी। चलो लाहौर चलते हैं।देखते है कैसे नहीं लौटेगा? हम भी सय्यद जाती के हैं!” बुल्लेशाह के भाइयों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। बौखलाहट सिर चढ़कर बोल रही थी। इसी गर्मजोशी में उन्होंने इनायत शाह के आश्रम जाने का फ़ैसला किया।पर रवाना होने के लिए जैसे ही उठे, उनकी पत्नियों ने उन्हें टोका,”अरे-2! आप सभी तो आपे से बाहर हो रहे हैं। देखिए हालात बहुत नाजुक हैं। बड़ी नज़ाकत से काम लेने की जरूरत है। इतने गर्म मिज़ाज से तो काम बनने की बजाय बिगड़ सकता है।डराने-धमकाने या ज़ोर -जबरदस्ती करने से तो कुछ होने-जानेवाला नहीं। वे अपने इरादों से नहीं हिलेंगे। हाँ, फ़कत रिश्तों का वास्ता देकर उन्हें कमजोर किया जा सकता है।विवाह योग्य बहनों की सौगन्ध देकर लौटाया जा सकता है। उनसे निहायत ही जज़्बाती ढ़ंग से बात करनी होगी। जो आप भाइयों के बस की बात नहीं ।इसलिए हम जाएगी भाईजान को लिवाने।”भाभियों का परामर्श भाइयों को जँच गया। माता-पिता ने भी उसे एकमत से स्वीकार किया। करते भी क्यूँ ना?आखिर अहम मुद्दा तो खानदान के चिराग को आँगन में वापस लाने का था? उसके लिए फिर मार्ग चाहे कोई भी अपनाना पड़े। ऐसे नहीं तो वैसे ही, कठोरता नहीं तो भावनात्मक दबाव डालकर ही सही।अगले दिन ही बुल्लेशाह की भाभीयाँ और बहने उसके मित्र के साथ लाहौर के लिए चल पड़े।परन्तु क्या विरोध की यह विक्राल आँधी बुल्लेशाह को डिगा पायेगी? प्रेमडगर के इस मतवाले को मोहनगरी में लौटा सकेगी?ए आँधियों! तुमने दीवारों को गिराया होगा! क्या गुल से लिपटे एक भँवरे को गिरा पाओगी……..?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …
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बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग – 3
हजरत इनायत ने देखा कि बुल्लेशाह का जूनून परवान चढ़ चूका है। ईश्वर प्राप्ति बस उसकी एक अभिलाषा नही है, जीवन का मकसद बन चुका है। बुल्लेशाह की तड़प देख कर हजरत इनायत ने बुल्लेशाह को दीक्षा दे दी।दीक्षा पाते ही बुल्लेशाह के भीतर रूहानी रास प्रकट हो गया। वह अलौकिक दौलत से मालामाल हो गया। शाह इनायत ने एक लम्हे से भी कम देरी मे उसकी गैबी आँखें अर्थात दिव्य दृष्टि खोल दी। बुल्लेशाह के नैन एक बार फिर जल से भर आए उनसे आसुओं की धाराए बह निकली परंतु अब ये आसूँ वियोग मे नही झर रहे थे तड़प या विरह के वेदना को संजोए हुए नहीं थे, इनमे तो मिलन की सुनहली चमक थी, परमानंद का मौन इजहार था, जिस अपार खुशी को वाणी व्यक्त नही कर सकती थी ये बिन बोले कह रहे थे। बुल्लेशाह की इन सजग आँखों मे झांककर इनायत शाह हँसे और बोले “अब?” “अब क्या? कुछ नहीं साईं, अब और कुछ नहीं सब मिल गया। निराकार भी मिल गया और साकार भी मिल गया, निराकार को दिखा देने वाले आप मेरे साकार खुदा है।” इतना कहकर बुल्लेशाह इनायत के चरणों से लिपट गया। इनायत शाह ने कहा, “बुल्ले जो रुहानी ज्ञान आज तुमने पाया है वह सबसे सर्वोत्तम है, सब इल्मो का सुल्तान है। दोनों जहाँ मे इससे उमदा कुछ नहीं। परंतु, होशियार ध्यान रहे अभी सफर का केवल आगाज़ हुआ है, नुरे इलाही का दीद भर हुआ है उसमे टीकना अभी बाकी है। इसमें एकमिक होना शेष है, मंजिल अभी बहुत दुर है। उसे पाने के लिए तुम्हे ब्रह्म ज्ञान की डगर पर चलना होगा पुरे हौसले के साथ और विश्वास रखकर बढ़ना होगा।”आजतक बुल्लेशाह ने सिर्फ ग्रंथो मे पढा था कि गुरु अनंत कृपा के दाता होते है उनकी महिमा बेहिसाब होती है करुणा अपरंपार होती है वे शिष्य को जिलाते हैं एक नया रुहानी जीवन बख्शते है, पालते हैं, कदम कदम पर संभालते है और अंततः मंजिल उसके कदमों तले ला बीछाते हैं, परंतु आज ग्रथों मे दर्ज ये बातें उसके आत्म अनुभव बन रहे थे ।इनायत शाह ने बुल्लेशाह को विविध प्रकार के उपदेश दिए ,सेवा सुमिरन, समर्पण के अध्यायो पर भी उन्होंने रौशनी डाली। बुल्लेशाह एक एक हिदायत को धारण कर रहे थे,उनके ह्रदय से एक ही अरदास उठ रही थी कि, *जानता हुँ कि काबिल नही हुँ मैं, परंतु देना हौसला कि काबिल बन सकु।* *इन राहो पर चलना है बड़ा मुश्किल, पर दिना जज़्बा की हुक्म की तालिम कर सकूं।*आखिर मे इनायत बोले “अच्छा बुल्ले सांझ होने को है अब तुम घर लौट जाओ…।” “लौट जाऊं?पर कहाँ,क्यों ? साईं… जन्नत से भला कोई पीठ करता है क्या ? जिस मुल्क मे साक्षात रब मिला उसे कैसे छोड़ जाउ.. मेरे साईं मेरे मौला मै लौट जाने के लिए यहाँ नही आया हूँ, सदा सदा के लिए आपका बन जाने आया हूँ, आपको अपना बनाने आया हुँ तन मन से अपने सर्वस्व से आपका हो जाने आया हूँ कि,*अब तुझी मे समाने को जी चाहता है,**तुझमें मिल जाने को जी चाहता है।**ये हकीकत है कि तू आफताब है गगन का,* *मेरा बस एक किरण बन जाने को जी चाहता है।* *अब तो आपके पाक कदम ही मेरा ठीकाना है..,**आपका आश्रम ही मेरा आशियाना है।*सच कहता हूँ साईं… ये जो आपकी दहलीज है, न इससे अब बुल्ले का जनाजा ही निकलेगा, जीते जी तो यह दर छुटने वाला नही।”इनायत शाह भी ये जानते थे परंतु फिर भी ठीठोली करते हुए बोले “परंतु बुल्ल्या ! तू तो ठहरा ऊंची सय्यत जाती का और हम है एक साधारण से अराई जाती हमारे पास न हवेली के शाही ठाटबाट है न लजीज पकवान यहां तो सोने को सख्त जमीन है और खाने को रुखा सुखा, सोच लो क्या तुम मेरे आश्रम मे रह पाओगे? बुल्लेशाह भीगे गले से बोले कि “हे गरीब नवाब ! क्यूँ मुझ गरीब की हसीं उडा रहे हो आज मैं आपकी शहनशाही का जलवा देख चूका हूँ ,आपकी दरबार की शानोशौकत तो हवेली से कहीं आला है..यहाँ का तो जर्रा-जर्रा दौलत खाना है… ऐसी लज्जत है यहां कि रुह की भूख मिट जाती है ,जीगर की प्यास बुझ जाती है और इस रुहानी भूख प्यास के आगे जीस्मानी की क्या औकात है। कौन बेअक्ल उसकी कीमत डालेगा। दूसरा यह जमीन जो हरपल आपके चरणों को चूमती है यह सख्त नही साईं…सख्त नहीं… खूशनसीब है। इसमे लोटकर मै भी किस्मत का धनी हो जाऊंगा। हे खुदाबंध ! रहम करो.. मुझसे यह खुदाई दौलत मत छीनो.. पड़ा रहने दो मुझे अपने आश्रम के एक कोने मे। वाह रे शाहो के शाह सदगुरू.. तेरे नुरानी खजाने के सदके आज एक सय्यत खानदान का राजकुँवर भिखारी बना दामन फैला रहा है तेरी छत पर पड़ी कुटिया की पनाह चाह रहा है।” उसका अब एक ही भाव था कि *मिली है बांग रसूल दी, फुल खिडिया मेरा।* *सदा होया मैं हाजीरी हा हाजीर तेरा,**हरपल तेरी हाजरी ए हो सजदा मेरा।* अर्थात ए मेरे ओलिया ! तेरी रहमत के बाग ने मेरे दिल की बंजर जमीन पर फुल खीला दिए है अब तो हर पल हर लम्हा तेरे कदमों में हाजिर रहूं यही मेरी आरजू यही मेरा सजदा है। इनायत भी इस सबका भरपुर आनंद ले रहे थे अब उनके चहरे पर एक नटखटी मुस्कान फैल गई। शोख अंदाज में बोले, “और.. और वे तेरे अब्बू अम्मी क्या उनके मोहपाष को तोड़ पाएगा तू? “अब यह सूनकर तो बुल्लेशाह मचल उठा बालक की तरह ठीनकता हुआ बोला, “बस करो साईं क्यूँ दील्लगी करते हो भीतर से भर भर इश्क की प्याले पीला रहे हो और बाहर से अलग-अलग दुहाइयाँ देकर दूर करना चाहते हो। इन चंद लम्हो मे मैंने आपके पाक इश्क का इतना रस पी लीया है कि सांसारिक रिश्तों का मोह जहर लगने लगा है।” *पीया बस कर बहुती होई, तेरा इश्क़ मेरी दिल जोई।**मेरा तुझ बिन अवर न कोई, अम्मा बाबल बहन न भाई।* अम्मा बाबुल भाई बहन मुझे सब रीश्ते आपमें दिख रहे है साईं …बाहरी बधंन टूटने लगे है दिल की हर डोर आपके कदमो से जुड़ती जा रही है, *इस जहाँ को क्या दूँ तवज्जू, जो तू हुआ है हासिल।**ये जहाँ गमें जमी है, मै इसको भूल रहा हूँ।* *यू आपकी नजर मे मुझको पनाह मिली जो, मै आजतक जहाँ था उस घर को भुल रहा हूँ।*इनायत शाह राजी हो गए हाथ उठाकर उन्होंने बुल्लेशाह को अपनी रजामंदी दी इस तरह बुल्ले के ह्रदय में इनायत शाह का और इनायत के आश्रम मे बुल्ले का घर बन गया। परंतु बुल्लेशाह के परिवार वाले जिन्हें बुल्लेशाह बिना बताए ही निकल गये थे वे क्या सोच रहे होंगे।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …
बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग – 2)
आज बुल्लेशाह सूर्य की पहली किरणों के साथ ही हवेली से निकल पड़े गुरु की तलाश में। उपर सूर्य तप रहा था और यहाँ बुल्लेशाह भी अतप्त न रहा। एक तो सीने की दाह और उपर से सूर्य का आक्रोश। भूख-प्यास से व्याकूल बुल्लेशाह एक इमली के पेड़ के नीचे बैठ गए। तन की तपन शांत तो हुई परन्तु मन, उसकी व्याकुलता ज्यों की त्यों रही। बुझती भी कैसे? वह तो इनायत शाह की नंदन छत्रछाया की खोज में था। लेकिन वे मिलेंगे कहाँ? बुल्लेशाह के सामने यही सबसे बड़ा सवाल खड़ा था।लाहौर कोई छोटा शहर तो ना था।कई मीलों तक पसरा हुआ था।अपार जनसमुदाय था वहाँ और फिर शाह इनायत का कोई अता-पता भी तो नहीं था। ऐसे में किधर जाएँ? क्या करें? कैसे ढूँढे उन्हें? *कैसे की पतझड़ में बसन्त की तलाश करूँ? इस अन्धी सुरंग की अंत की तलाश करूँ?* *जिधर देखूँ दीद रहे हैं बाणे ही बाणे,**इन बाणों के भीतर कैसे शाह की तलाश करूँ?* हे परवरदिगार! रहम कर! मेरे मौला, अपने बंदे पर करम कर! दुनिया तो तेरे आगे ऐशोआराम के लिए दामन फैलाती हैं, तू उन्हें वह भी बक्ष देता है। मुँह माँगी मुरादे देता है। मेंरे नयन कटोरे तो सिर्फ तेरे दीदार के प्यासे हैं। रूह तेरे लिए तड़प रही है। क्या मेरी यह दिली फ़रियाद पूरी नहीं होगी?कदम यूँही दरबदर भटकते रहेंगे? डगर-2 की ख़ाक छानते रहेंगे? क्या कभी इनके तले मन्ज़िल नहीं बिछेगी? मेरे मालिक! अब तो मेहरबानी कर! सद्गुरु कोई राह दिखा दे! मैं जानता हूँ, तेरे निर्गुण रूप का दीद करानेवाला तेरा ही कोई सगुण रूप होगा। उसके क़दमों की धूलि चूमने को मेरे ज़िगर में हजारों जिहदे तड़प रहे हैं। *अब ए हक़ीक़ते मुमतजर* *नजर आ लिबासे मज़ाज में,**कि हजारों सिजदे तड़प रहे हैं, मेरी जबिनी निज़ाज में।* बुल्लेशाह रोके हुए कदम फिर से गतिमान कर दिए। दीवानों की मानिन्द वह इनायत की राह टोहने लगा। खोज का यह सिलसिला एक या दो दिन नहीं कई दिनों तक चलते रहा। कड़ाके की धूप में बुल्लेशाह इधर-उधर सद्गुरु की खोज करते रहे। “भाई! इनायत शाह का आश्रम कहाँ है ,जानते हो?””नहीं।””इनायत शाह का नाम सुना है?””नहीं।”पूछते-2 बुल्लेशाह को कई दिन बीत गए। लेकिन आखिरकार राह मिल ही गई। प्यासे को रूहानी कुएँ का पता लग ही गया। बुल्लेशाह पूछते-2 शाह इनायत की पाक दहलीज़ तक पहुँच गए। वह नहीं जानता था कि सामने बिछी यह दहलीज़ उसके लिए नवजीवन का आह्वाहन है। इससे गुज़रकर उसका जीवन आमूल बदल जायेगा। इनायत शाह का आश्रम उसके जीवनभर का आशियाना हो जाएगा। वह सोच भी नहीं सकता था कि आज जिस इनायत शाह को वह ईश्वरप्राप्ति का माध्यम बनाने आया है आनेवाले समय में वे ही सद्गुरु उसकी मंज़िल बन जायेंगे। साधन ही साध्य हो जायेगा। वह इनायत की क़दमों में बसेगा और इनायत उसकी श्वासों में। इनायत के रूप में उसे केवल मुर्शिद नहीं मिलेंगे, सर्वस्व मिलेगा। मुँदी आँखो को, निराकार अपलक आँखों को साकार, प्राणों को आधार बिन्दू, मस्तक को पाक क़दमों का ठौर, रगो में दौड़ते लहू के कतरे-2 को एक लक्ष्य, उसका कोई अपना वजूद नहीं रहेगा। वह सिर्फ एक शिष्य होगा। उसकी शिष्यत्व की यही पहचान होगी। बुल्लेशाह दहलीज पार कर आश्रम में प्रवेश कर गया। आश्रम लगभग 1200 गज का फैला हुआ था। बीचोंबीच एक छाँवदार बरगद का वृक्ष खड़ा था। उसके तने के चारों ओर एक पक्का चबूतरा बना था। दाई तरफ एक से एक सटी हुई 10-11 कुटिरें थी। आखिरी कुटीर से 30 का कोन बनाता हुआ एक कुंड था पानी से लबालब भरा हुआ।बरगद से बाँई ओर कुछ गज में बड़े सलीक़े से बाग़वानी की गई थी। अलग-2 तरह के वृक्ष झूम रहे थे। नीचे क्यारियों में तरकारिओ और साग-पात की पौध लगी थी।बुल्लेशाह पहले पहल कुटिर की ओर बढ़ा। ठिठके कदमों से उसका दिल जोर-2 से धड़क रहा था। इतना कि वह अपनी धड़कनों को साफ सुन सकता था। आज सद्गुरु से मिलन होगा। यह खयाल लिए बुल्लेशाह आगे बढ़ा। उसने एक-2 कुटिर में झाँककर देखा परन्तु कहीं कोई न मिला। नितान्त नीरवता, और सन्नाटा था वहाँ। एक बार फिर निराशा ने उसे आ घेरा। वह भारी मन से निकास द्वार की ओर मुड़ गया। लेकिन तभी एक युवक ने अन्दर प्रवेश किया। बुल्लेशाह ने उससे झट पूछा, “हजरत इनायत कहाँ मिलेंगे?”युवक ने बगीचे की ओर संकेत कर दिया। बुल्लेशाह ने ग़ौर से इंगित दिशा में देखा। पौधों के झुंड बीच एक मानवीय आकृति हिलती-डुलती दिखाई दी। वह बेसब्र कदमों से उस ओर बढ़ा।पास पहुँचने पर पाया कि, वे प्याज़ की पनिरी बो रहे थे। सफेद बाल, कमजोर शरीर, त्वचा पर झुर्रियाँ, अंग-2 पर वृद्धावस्था के निशान! उन्हें देखते ही बुल्लेशाह के अन्दर संशयों का तूफ़ान खड़ा हो गया। उसने अपने मानस पटल पर गुरु का जो दिव्य चित्र खिंचा था, इनायत उससे बिल्कुल अलग थे।उसने तो सोचा था कि ,”खुदाए नूर को दिखानेवाला ख़ुद भी नूरानी व्यक्तित्व होगा! परन्तु यह क्या? अधेड़ उम्र, कीचड़ से लथपथ काया, पसीने से तरबतर बदन। “बुल्लेशाह के भीतर अहम की नागफ़नी नाचने लगी। देखते ही देखते उसने अनेकों सवाल फुफकार डाले। इस दीन-हीन में क्या रूहानियत होगी? प्याज़ की पनिरी बोनेवाला यह वृद्ध क्या मुझे नूरे ईलाही दिखायेगा? क्या इस वृद्ध के पास शास्त्रों का ज्ञान होगा?”वाह रे इन्सानी फ़ितरत! गुरुसत्ता को भी बाहरी आवरण के आधार पर परखने चली है ! नहीं जानती कि,गुरु तो ईश्वरत्व का विराट पुंज होते हैं। देहातीत सत्ता है। किसी वेष-भेष का गुलाम नहीं। किसी विशेष कर्म में बँधा हुआ नहीं। ऐसा नहीं कि उसका रूप मनभावन ही हो। वह उँची जाति और संपन्न कुल से संबंध रखता हो। उसकी पहचान तो उनकी ज्ञान निष्ठा होती है। उनकी नूरानी दृष्टी होती है। फिर भी मनुष्य उन्हें कैसे पहचाने?बुल्लेशाह एक आलिम फाजिल, शास्त्रवेत्ता ,महान ग्रंथक्य, रिद्धि-सिद्धियों का स्वामी इस सूक्ष्म सूत्र से अंजान था। इसलिए फटे हाली के बाने के अन्दर छिपे एक शहनशाह को पहचान नहीं पाया। अहम में सराबोर होकर लगा अपनी करामाती शक्तियों का प्रदर्शन करने। सामने एक आम का पेड़ था। बुल्लेशाह ने बिस्मिल्लाह कहा और आमों से लदी टहनियों पर एक नज़र डाली। दृष्टि पड़ने की देर थी कि 3-4 आम डालियों का हाथ छोड़कर धड़धड़ उसकी झोली में आ गिरे। शाह इनायत तुरन्त मूड़े और अल्हड़ शेख अन्दाजी से बोले, *सुन तू मर्दा रहिया, अम्ब चुराया तुद असाडा।* *देदे से सानो भाईयाँ।* “ओ भाई! तूने हमारे आम क्यों चुराये? इसी पल वापस कर दे।” बुल्लेशाह भी तुनककर बोले, “न में तुम्हारे पेड़ों पर चढ़ा और न ही आमों पर कंकड-पत्थर मारे। यह तो हवा के एक मस्त झोंके की शरारत है। नाहक़ मुझपर क्यों बिगड़ते हो?””वाह! चोरी भी और चतुराई भी!”इनायत बोले , *बिस्मिल्ला पड़ अम्ब उतारियाँ कित्ती है तू चोरी* मैं जानता हूँ कि, बिस्मिल्लाह कहकर तूने ही मेरे आमों की चोरी की है। बात करते-2 शाह इनायत बुल्लेशाह को भाँप रहे थे। बातों ही बातों में बुल्लेशाह पर अपनी नूरानी दृष्टी डाल दी। अपनी नजरें पाक से ऐसे तीखे बाण छोड़े जो सीधे बुल्ले के अंतःकरण में जा लगे। क्या कशिश थी इन निगाहों में? सद्गुरु की निगाहों में क्या जादू होता है यह एक शिष्य ही जानता है। यह वही जादूई दृष्टि थी जो जब निजामुद्दीन औलिया ने अमीर ख़ुसरो पर घुमाई थी। तो वह सदा-2 के लिए उनका मुरीद हो गया था। मस्ती में छका हुआ पगले की नाई थिरक-2 कर गा उठा था- *छाप-तिलक सब छिनी रे मोसे नैना मिलाइके*यह वही मोहिनी नज़र थी। जो जब कान्हा ने गोपीयों पर डाली थी। तो वे भी सुध-बुध खोकर घायल विरहिणी बन उठी थी।आज बुल्लेशाह भी ठगा सा रह गया। शाह इनायत की एक ही नज़र ने उसे कायल कर दिया। वह बेमोल बिकनेपर मजबूर हो गया। उसका रोम-2 पुलककर कह उठा, बुल्लेशाह भी जन लया, है बरकत ईह विच होरी ये कोई साधारण बाबा नहीं पूर्ण पीर हैं। इसके नयन प्याले ,ओह! कितने आला है! ईलाही नूर के झरोखे बुल्लेशाह के अहम पर करारी चोट लगी। इठलाती नागफ़नी झुक गई। गर्दन की ऐठन ढिली पड़ गई। सिर भी तना न रह सका और वह उसी पल सद्गुरु के चरणों मे लोट गया। उन्हीे कीचड़ से सने कदमो में दण्डवत प्रणाम करते हुए आत्मा की गहनुमत गहराई से बोला, “महाराज मैं बुल्लेशाह हूँ। रब को पाने आया हूँ। मेरी रूह रो-रोकर थक चुकी है। अब इस ग़रीब को यह दात बक्ष दो। मेरे मौला, नजरें इनायत कर दो!”इनायत शाह बिना कुछ बोले मूड़े और क्यारियों से बाहर निकल आये। बरगद की इर्दगिर्द बनी मुँड़ेर पर जा बैठे। बुल्लेशाह भी सम्मोहित सा हुआ, उनके पीछे-2 चला आया। उनके चरणो में नीचे कंकड़ीली ज़मीन पर ही बैठ गया। इसपल उसे न तो अपने सय्यद होने का मान था, न रिद्धि-सिद्धियों का ध्यान था। न ही विद्वत शास्त्रवेत्ता होने का भान था। भान था तो बस इस बात का कि वह बेहद प्यासा है और सामने सद्गुरु के रूप में अमृत का सोता है। वह चातक है और सामने अथाह जल बिन्दुए लिये स्वाती नक्षत्र चमक रहा है। रूह ने दावे से कहा कि, उसकी जन्म-जन्मांतरों पिहू-2 बस इन्हीं चरणों में थमेगी। बुल्लेशाह गुरु के सामने बैठ प्रार्थना करने लगे कि,अवगुण वेख न भूल मियाँ राँझा,याद करि उस कारेनु ,दिल लोचे तख्त हजारेनु”मेरे औलिया ! मेरे हिमाक़तों और अवगुणों को बिसार दो, याद करो अपने उस अज़्ल के कार्य अर्थात आदिकाल के वायदे को। उसे निभा दो । मेरी रूह मुद्दत से परवरदिगार के लिए तड़प रही है।अब उसका नूरानी दीद करा दो।”यहां बुल्लेशाह किस वायदे की ओर संकेत कर रहा है ? सूफ़ी संत, सूफ़ी मत के अनुसार जब ख़ुदा ने सृष्टि की रचना की तो जीवात्मा उससे अलग होकर धरा पर आना नहीं चाहती थी। ऐसे में सृष्टिकर्ता ने उनसे वादा किया तुम चलो, मैं भी तुम्हारे पीछे-2 साकार रूप धारण कर ज़मीन पर उतरूँगा। पीर, औलिया, मुर्शिद, सद्गुरु बनकर तुम्हें वापस लीवा ले आऊँगा। अपने में पुनः समा लूँगा। इसी कलाम की आज बुल्लेशाह हजरत इनायत को याद करा रहे हैं। ढेरों युक्तियाँ देकर निहोर कर रहा है और हर निहोर, हर तर्क ,हर युक्ती में फ़क़त एक ही पिर है, “साँई मैं रबनु पावना है। मुझे उससे मिला दे ।”अबतक इनायत शाह मौन थे। बुल्लेशाह बोल रहा था। वे सुन रहे थे। वैसे भी वह कौनसी घड़ी या पल था जब उन्होंने उसकी अनकही पिर को नहीं सुना था।उसकी निःशब्द वेदना को नहीं समझा था। वे तो उसकी शब्दहीन गुहार से तबतक तब भी परिचित थे। जब वह उन्हें जानता तक नहीं था। उन्होंने उसकी हर सिसकियों भरी धड़कनों को गिना था। वे उसकी ह्रदय में बैठी ईश्वर जिज्ञासा की पूरी ख़बर रखते थे।आज फ़र्क बस इतना था कि, बुल्लेशाह अपनी अन्दरूनी दर्द को शब्दों का रूप देकर उनके सामने रख रहा था। जब बुल्लेशाह कह चुका, तब शाह इनायत मुस्कुराये । क्यारिओ की तरफ़ मुँह किया और बोले ,”बुल्ल्या, रबदा की पाना? ऐधरो पुटना तै उधर लाना?”अर्थात ,”बुल्लेशाह! रबका भी क्या पाना? इधर से उखाड़ कर उधर रोपना। “बाग़वानी की शैली में एक सादी-सी पंक्ति थी यह परन्तु एक गहरे सूत्र को सँजोये हुए रूहानियत के सार को लिए हुए । इसके जरिए इनायत ने रहस्योद्घाटन कर दिया कि, “बुल्ले! अगर ईश्वर को पाना है तो अपने मन को बाहर से समेटकर अन्दर रोप दे। अन्तर्मुखी हो जा।मायारूप इस बाहरी संसार में ईश्वर को चाहे तो कहीं भी और किसी भी तरह ढूँढ ले, तेरी खोज फल नहीं देगी। भीतर जा अन्दर झाँक ! नुराहे ईलाही वहीं मिलेगा!”शाह इनायत ने जब यह रूहानी उपदेश दिया बुल्लेशाह तुरन्त उसके मायने को समझ गया। उनके बारीक़ इशारे और मार्गदर्शन को उसीपल भाँप गया।ऐसा भी नहीं था कि यह आध्यात्मिक सूत्र उसके लिए नया था। वह शास्त्र अध्ययन से भलीभाँति जानता था कि खुदा मिलेगा तो भीतर से ही। परन्तु भीतर जाएँ कैसे? अन्तर्मुखी हुये किस तरह ? यही तो असली सवाल था?—————————————-आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जाएगा….