आत्मसाक्षात्कारी गुरु इस जमाने में सचमुच बहुत दुर्लभ हैं। जब योग्य साधक आध्यात्मिक पथ की दीक्षा लेने के लिए गुरु की खोज मे जाता है। तब उसके समक्ष ईश्वर गुरु के स्वरूप मे दिखते हैं और उसे दीक्षा देते हैं।
जो मुक्त आत्मा गुरु हैं वे एक निराली जागृत अवस्था मे रहते हैं।
जिसे तुरीयावस्था कहा जाता है। जो शिष्य गुरु के साथ एकता स्थापित करना चाहता हो उसे संसार की क्षणभंगुर चीजो के प्रति संपूर्ण वैराग्य का गुण विकसित करना चाहिए।
मुक्त आत्मा गुरु की सेवा, उनकी लिखी हुई पुस्तको का अभ्यास और उनकी पवित्र मुर्ति का ध्यान यह गुरू भक्ति विकसित करने का सुनहरा मार्ग है।
विट्ठल पंत को अत्यंत वैराग्य था इस संसार से। इसलिए वह काशी चले गए और सन्यास की दीक्षा लेकर वहीं रहने लगे। अपने पति विट्ठल पंत के चले जाने के बाद रुक्मणी बड़े दुःख मे थी। दुखी रुक्मणी ने अपना जीवन ईश्वर भक्ति मे रमा दिया। वह प्रतिदिन सूर्योदय के समय इन्द्रायणी नदी मे स्नान करके मंदिर जाती और ईश्वर से प्रार्थना करती रहती। वे ईश्वर से यही पूछती कि आखिर मेरे जीवन का क्या अर्थ है क्योंकि संतान और पति के बिना उन्हे अपने जीवन की कोई उचित दिशा दिखाई नही दे रही थी।
एक बार सद्गुरु रामानंद स्वामी अपने शिष्यो के साथ रामेश्वर की यात्रा करने जा रहे थे। तो संयोग से वे आलंदी के एक मंदिर मे रूक गये और संयोग से रुक्मिणी भी उस समय मंदिर मे ही थी। उन्होंने संत प्रवर को प्रणाम किया ।प्रणाम के जवाब मे गुरुदेव ने उन्हे आशीर्वाद दिया कि #संत संतानवती भवः ।
दरअसल इस आशीर्वाद मे रुक्मणी के जीवन का अर्थ छिपा था यह आशीर्वाद सुनकर रुक्मणी की आंखे भर आई। वह कहने लगी महाराज मेरे पति तो काशी जाकर सन्यासी बन चुके हैं अतः आपका आशीर्वाद फलित नही होगा। रुक्मणी की यह बात सुनकर रामानंद स्वामी को आश्चर्य हुआ क्योंकि यह आशीर्वाद फलित नही होना था तो उनके मुख से कैसे निकला क्योंकि वे तो ब्रह्म मे स्थित हैं वे स्वअनुभव पर स्थापित हैं उनके वचन स्व से आने वाले वचन थे।
वे जान गए कि जरूर उनके आशीर्वाद मे ईश्वर की कोई दिव्य योजना छिपी है तभी ऐसा आशीर्वाद निकला है। जरूर यह कोई ईश्वरीय संकेत ही है। रामानंद स्वामी ने रुक्मणी से उनके पति के बारे मे सारी जानकारी ली। सभी बाते सुनकर वे समझ गए कि उनका शिष्य विट्ठल पंत ही इस स्त्री का पति विट्ठल है।
वे अपनी रामेश्वर यात्रा छोड़कर तुरंत काशी लौट गये। गुरु के पूछने पर विट्ठल ने अपना कपट स्वीकार किया और वह माफी मांगते हुए अपने गुरु के पैर पकड़ लिये तब गुरूदेव ने विट्ठल को घर वापस जाने और वैवाहिक जीवन प्रारंभ करने की आज्ञा दी।
गुरूदेव ने उनसे कहा मैने तुम्हारी पत्नी को #संत संतान भव: का आशीर्वाद दिया है । तुम्हे वैवाहिक जीवन मे वापस लौटकर जाना है और ईश्वरीय वचनो को पूरा करना है गुरू की यह आज्ञा और उपदेश पाकर विट्ठल आलंदी लौट आए।
उस समय के समाज मे एक ग्रहस्थन स्त्री के जीवन का यही अर्थ होता था कि बच्चो का लालन पालन, पति की सेवा यही अर्थ समझाकर माता पिता अपनी पुत्री का विवाह करते थे। मगर रुक्मणी के जीवन का यह अर्थ छीन चुका था। वह नि:संतान थी पति भी चला गया था तो वह अब उसके जीवन का क्या अर्थ बचा यही सवाल लेकर वह ईश्वर के सामने रोज जाया करती।
परंतु स्वामी रामानंद के वचनो के अनुसार उनको चार संत संतानो के आगमन का निमित्त बनना था। इन संतानो को आत्मसाक्षात्कारी संत बनने की यात्रा मे मदद करनी थी। उनको इतना प्रेम देना था कि उन्हे अभाव मे भी सुखी और संतुष्ट रहने का हौसला आ जाय।कष्टो मे आनंदित होने की कला आ जाय। उनके जीवन का उद्देश्य ईश्वर की भक्ति।
उस भक्ति की क्रिया मे अभिव्यक्ति बन जाय। गुरु की आज्ञा मानकर विट्ठल पंत ने संन्यास छोड़कर वापस ग्रहस्थ धर्म अपना लिया। इस कारण से उन्हे सपरिवार समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना सहनी पड़ी। उस समय की सामाजिक मान्यता के अनुसार एक सन्यासी का वापस ग्रहस्थ हो जाना एक महान पाप था जिसका प्रायश्चित भी संभव न था। अतः ब्राह्मण समाज ने विट्ठल पंत और उनकी पत्नी को अपने समाज से बाहर निकाल दिया।उन्हे सपरिवार अशुद्ध घोषित कर दिया गया ।
समाज से मिल रही प्रताड़नाओं के बावजूद भी विट्ठल और रुक्मणी घबराये नही क्योंकि उन्हे गुरु आज्ञा मे ही अपने जीवन का अर्थ मिल गया था।उन्हे अपने जीवन की भूमिका का संपूर्णतः गुरु आज्ञा पर ही और गुरु ज्ञान पर ही आश्रित रहना था।उनकी दृष्टि मे यह ईश्वर की दिव्य योजना और गुरु आज्ञा थी। अतः कठिन परिस्थितियो मे भी पूरे स्वीकार भाव मे जीकर अपनी साधना कर रहे थे।
कुछ समय बाद दो-दो वर्ष के अंतर से उनके घर मे चार संतानो का अवतार हुआ। सबसे पहले निवृत्ति का जन्म हुआ, फिर दो साल बाद ज्ञानदेव का, इसके दो साल बाद सोपान का अंत मे मुक्ता का जन्म हुआ।
उन बच्चो के अंदर गर्भकाल से ही ज्ञान एवं वैराग्य से भरपूर गर्भसंस्कार हुए। बहिष्कृत होने के कारण विट्ठल और रुक्मणी का ज्यादातर समय घर पर ही बीतता था इस समय का उपयोग वे अपने बच्चो को वेद वेदांत और शास्त्रो का गहरा ज्ञान देने मे करते थे।अपने बच्चो के लिए वे माता पिता के साथ साथ शिक्षक भी थे। उनकी संताने तेजस्वी थी और बहुत ही सहजता से सारा ज्ञान ग्रहण कर रही थी।
समाज के लोग उनके परिवार से कोई संबंध नही रखते थे। और उन्हे निम्न व हीन दृष्टि से देखा जाता था। उन्हे हर कदम पर अपमानित किया जाता था । लोग उन बच्चो को सन्यासी का बेटा कहकर चिढ़ाते थे। ऐसे विपरीत माहौल मे पूरा परिवार हर रोज लोगो का अपमान सहकर कठिनतम जीवन जीता रहा। और इसे हरि की इच्छा मानकर भक्ति और साधना करता रहा।
विट्ठल रुक्मणी के परिवार का समाज मे तो कोई नही था। मगर वे सभी एक दूसरे के सहारे थे।उनके पास नि:स्वार्थ और आपसी प्रेम, सरलता, सच्चाई, निश्छलता, निष्कपटा, ज्ञान, भक्ति, संतोष और सब्र की अमूल्य दौलत थी।समाज एवं गांव से बहिष्कृत होने के कारण इन बच्चो को अन्य किसी का संग नही मिला बच्चो को यह कहने वाला कोई नही था कि ईश्वर प्राप्ति या आत्म बोध कठिन है। इतनी कम आयु मे संभव नही है। यह बहुत बड़ा है यह कहने वाला कोई न था । दरअसल इंसान के मन मे यह मान्यताए बचपन से डाल दी जाती है कि फलाना कार्य बहुत ही कठिन या असंभव है। फलतः बड़े होने के बाद भी व्यक्ति उस कार्य को कठिन या असंभव मानता है जब कि बच्चो मे ऐसी कोई मान्यता नही होती। और यदि उनमे कोई मान्यता न डाली जाए तो ऐसे बच्चे बड़े होकर कुछ अलग प्रयास कर असंभव लगने वाले कार्य भी कर गुजरते है।
देखा जाए तो विट्ठल- रुक्मणी के परिवार का जो जीवन चल रहा था उसमे सभी की इच्छाए या प्रार्थनाए पूरी हो रही थी।
विट्ठल पंत ने कभी भी आम इंसानो की भांति सुख सुविधाओ की कामना न की थी। वे ईश्वर भक्ति मे लीन रहकर सन्यासी जीवन जीना चाहते थे। अतः समाज ने उन्हे बहिष्कृत कर संसार मे ही उन्हे सन्यासियों का जीवन दे दिया। लोग तो समाज से ही दूर जंगल मे जाकर सन्यास लेकर भक्ति करते है जबकि विट्ठल और परिवार समाज मे रहकर ही सन्यासी जीवन का लाभ ले रहा था।
रुक्मणी अपने पति और बच्चो का संग चाहती थी। उनके प्रेम और सेवा में जीवन बिताना चाहती थी।वो उसकी भी इच्छा पूरी हो रही थी। साथ ही वे दोनो यह चाहते थे कि उनके बच्चे सुसंस्कारी ज्ञानी संत बनकर स्वअनुभव करे। और उसकी भी तैयारी हो रही थी। और इस तरह दुखो और अभावो मे भी कुदरत उनकी इच्छा पूरी कर रही थी। दरअसल यह परिवार पूरी समझ के साथ गुरू आज्ञा पर अपना जीवन यापन कर रहे थे। और यह परिवार आध्यात्मिक रूप से बहुत उन्नत था। और अध्यात्मिक ज्ञान को संसारी जीवन मे भलि भाति उतार भी रहा था। इसलिए वे सभी कष्टो मे भी सुखी और संतुष्ट थे।
अब दूसरा पहलू देखा जाय तो यहाँ विट्ठल पंत और उनके समस्त परिवार पर दृष्टि डाले तो इनकी यह कष्ट और पीड़ायुक्त दशा गुरु की आज्ञा पालन के कारण मिली थी। परंतु यह एक संसारी की दृष्टि है कि विट्ठल का परिवार गुरु के कारण कष्ट मे था। वही साधक विट्ठल की समझ सांसारिक दृष्टि के पार है उन्होंने अपने जीवन मे गुरु आज्ञा को ही महत्त्व दिया।
एक तरफ पूरा समाज, गांव खड़ा है और दुसरी तरफ विट्ठल और उनका परिवार। लेकिन गुरु की आज्ञा और गुरु के वचन सदैव जनकल्याण के कारण ही होते है। जब साधक ही गुरू वाक्यो के प्रति दृढ़ होता है। वही अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गुरु आज्ञा के प्रति दृढ़ता हम अपने गुरुदेव के प्रति प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
बापूजी को तीव्र तड़प थी ईश्वर प्राप्ति की। सांई लीलाशाह जी महाराज के आश्रम मे पहुंचे और वहाँ भी सत्तर दिनो के बाद महाराज के दर्शन हुए। दर्शन के बाद गुरूदेव ने पूज्य श्री से कहा वापस घर लौट जाओ। अब यहाँ सांसारिक की दृष्टि से देखें तो बड़ी ही कठोरता और निष्ठुरता दिखेगी महापुरुषो मे गुरु मे।
परंतु जिसने गुरु आज्ञा और गुरु को ही महत्त्व दिया वही कृत्य हुआ। बापूजी गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर वापस लौट आये। ऐसे अनेक प्रसंग गुरु की दृढ़ता के बारे मे हम पूज्य श्री के जीवन मे देख सकते हैं । पूज्य श्री सात वर्षो तक डीसा के विपरीत माहौल मे डटे रहे। यह गुरू आज्ञा मे दृढता ही है । आज भी पूज्य श्री हमारे बीच मे हैं तो वह भी गुरु आज्ञा के कारण ही हैं। अतः गुरु के वचन, गुरु की आज्ञा यह परिणामस्वरूप सदैव कल्याणकारी और साधक की उन्नति के लिए ही होती है।