Monthly Archives: June 2020

गुरुजी से आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी


महाराज जी मैं कई सालों से सेवा कर रहा हु पहले तो बड़ी आसानी से हो जाती थी पता ही नही चलता था कब शुरू हुई और कब खत्म लेकिन आजकल सेवा के दौरान बहुत सी दिक्कते आती है परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ऐसा क्यों? महाराज जी ने कहा- क्योंकि अब तुम खुद को बड़ा समझने लगे हो पहले तुम बालक की नाई सेवा करते थे खुद को अबोध,आकर्ता मानते थे लेकिन अब तुम्हे लगने लगा है कि मुझमे सेवा करने की क्षमता सामर्थ्य आ गया है सेवा का अभ्यासी हो गया हूं खुद करने के काबिल हो गया हूं इस मैं-मैं में गुरु कहि पीछे छूट गए है जब गुरु छूट जाएंगे तो उनकी कृपा कैसे होगी? कृपा नही होगी तो परेशानियां तो आएंगी ही इसलिए जब कभी सेवा में दिक्कत आने लगे तो समझ जाओ कि गुरु से कनेक्शन टूट गया सो तुरंत सब छोड़कर पहले गुरु से प्रार्थना, अरदास करो उनसे संपर्क स्थापित करो फिर सारी परेशानियों का समाधान मिलता चला जायेगा कहि कोई दिक्कत नही रहेगी।महाराज जी मैने सेवा का बहुत महात्म्य सुना और पढा है इसलिए मैं तन-मन से सेवा करता हु फिर भी मुझे अपनी कोई आध्यात्मिक उन्नति होती महसूस नही होती ऐसा क्यों गुरुदेव? जानते हो अर्थशास्त्र का एक नियम होता है जितना कमाई पर ध्यान दिया जाता है उतना ही खर्च पर भी क्योंकि यदि कमाई और खर्च समान है तो जमापूंजी हमेशा शून्य ही रहेगी इसलिए यदि आप बचत करना चाहते है तो कमाए ज्यादा और खर्च करे कम ठीक यही नियम अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है परन्तु विडम्बना है कि बहुत से साधक केवल एकतरफा पहलू पर ही ध्यान देते है यानी कमाई पर।जैसे कि आपने कहा मैं सेवा तो बहुत करता हु परन्तु साथ ही खर्च कितना करते हो, कभी विचार किया? आप सोचेंगे कि खर्चे से क्या मतलब है तो देखिए जब- जब भी आपके भीतर कोई नकारात्मक विचार आता है किसी गुरुभाई के प्रति द्वेष की बुद्धि होती है दुर्भाव पैदा होता है किसीको हानि पहुंचाने की इच्छा होती है तब-तब समझो कि हम अपना कमाया हुआ धन फेंक रहे है,कोई विकार रूपी सर्प अपना फन उठाये और हम उस तरफ ही चल पड़े तब समझना कि धन का नाश हो रहा है।साधक,सेवक एक कंजूस बनिया होना चाहिए जैसे कंजूस बनिया अपना धन के बड़ी ही सतर्कता से सम्भाल रखता है एक-एक पाई-पाई का सम्भाल सब हिसाब-किताब रखता है वैसे ही साधक को भी अपनी की हुई कमाई की सम्भाल रखनी चाहिए। मूर्ख जिज्ञासु सेवक अपनी कमाई खर्च करके अध्यात्मभ्र्ष्ट हो जाते है और दोषारोपण करते हुए कहते है कि यह मार्ग तो अर्थहीन है,ऐसे तो है नही। गुरु तो खजाना अनंत युगों से लुटाते आ रहे है और मूर्ख जिज्ञासु अर्थ शून्य ही रह जाते है।

किसे पता था, वर्षा में भीगता वह सन्यासी आज किसी का जीवन बदलने वाला था….


गुरु की सेवा करके आशीर्वाद प्राप्त करने के इच्छुक साधको को कुसंग से अवश्य दूर रहना चाहिये। इस माया का रहस्य कौन जान सकता है ? जो कुसंग का त्याग करते है, जो उदार हॄदय वाले गुरु की सेवा करते है, जो अहम भाव से मुक्त है और जो ममता रहित है वे इस माया का रहस्य जान सकते है, जो भक्तिभाव पूर्वक गुरु की सेवा करता है। वह जीवन के परम तत्व को प्राप्त करता है। राग द्वेष से मुक्त ऐसे गुरु का संग करने से मनुष्य आसक्ति रहित बनता है, उसे वैराग्य प्राप्त होता है उसमें गुरु के चरण कमलों के प्रति भक्ति जागती है।

महफ़िल थम चुकी थी सभी सेठ साहूकार गणिका के नृत्य का आंनद ले अपने-अपने घरों की ओर लौट चुके थे। संगीतज्ञ भी अपने वाद्य यंत्रों को यथोचित स्थान पर रखकर प्रस्थान कर चुके थे गणिका भी पांव से घुंघरू निकाल भोजन कर रही थी अचानक तेज बिजली चमकी बादलो में जोरदार गर्जना हुई फिर मुसलाधार बारिश भी शुरू हो गई।

गणिका भोजन ग्रहण कर हाथ धोने के लिए जब खिड़की के पास पहुंची तो अचानक उसकी नज़र नीचे सड़क पर एक छज्जे की ओट में खड़े युवा सन्यासी पर पड़ी। भगवा वस्त्र धारण किये वह सन्यासी ठंडी हवाओं व बौछारों से थर-थर कांप रहे थे। गणिका एक पवित्र भाव से टकटकी बांधे उस सन्यासी की ओर निहारती ही रह गयी सोचने पर मजबूर हो गयी आखिर यह युवा, एक सन्यासी क्यों हो गया ? संसार का सौंदर्य इसे क्यों न भाया, क्यों यह सब छोड़कर ईश्वर के सम्मुख हो गया ? ठंड से थर-थर कांपते उस सन्यासी के प्रति गणिका के मन मे आदर व दया के भाव उमड़े और उसने अपनी दासी को आदेश दिया- सामने जो महात्मा जी बारिश में भीग रहे है उन्हें अंदर आदर सहित ऊपर लिवा लाओ ।

दासी ने आदेश का तुरन्त पालन किया। शीघ्रता से सीढिया उतरकर सन्यासी के पास पहुंची और कहा- चलिए महात्मन ! ऊपर चले मालकिन ने आपको बुलाया है। सन्यासी दासी की बात को अनसुना कर पिंजरे में बंद अपने तोते को बारिश की फुहारों से बचाने का प्रयास करने लगे। दासी ने आग्रह पूर्ण स्वर में फिर बात दुहराई।

सन्यासी ने कहा- यह एक नाचने वाली गणिका का कोठा है न फिर मैं कैसे इसकी सीढियाँ चढ़ सकता हूँ ? कहां मैं प्रभु में मग्न रहने वाला और कहां ये भोग विलासिता के गर्त में डूबा कोठा। इस पाप के घर मैं चरण नही डाल सकता।
दासी लज्जित हो अपने आँचल को सम्भालती हुई तुरन्त लौट गई।

मालकिन को सन्यासी का संदेश देने ज्यो ही आगे बढ़ी तो उसके कदम थम गये उसने देखा कि गणिका बड़े हर्ष से आरती की थाली में कपूर, अगरबत्ती, तिलक, पुष्प, देशी घी का दिया तैयार कर सन्यासी का स्वागत करने के लिए खड़ी है। दासी को समझ नही आया कि मालकिन को कैसे कहे कि महात्मा जी ने उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया है.. तभी गणिका ने पूछा- महात्मन आ रहे है न दासी, मैं जानती थी कि वे जरूर आएंगे मैने बचपन से अपनी भक्ति के फल के रूप में सन्तो की सेवा मांगी है ईश्वर से। यह सुनते ही दासी का अश्रुओं पर लगा बांध टूट गया और उसने रोते-रोते सारी बात गणिका को बता दी। जैसे ही दासी ने बात पूरी की गणिका के हाथो से आरती की थाली गिर गयी वह दासी की ओर धीमे कदमो से बढ़ी और पूछा ऐसा क्यों कहा उन्होंने ?

सन्यासी जी ने कहा आप…. आप गणिका है देह का व्यापार करते हुए विलासिता के गर्त में डूबी हुई, इससे पहले दासी कुछ और कह पाती गणिका ने अपने दोनों कानो पर हाथ रख लिए बस..बस… मैं और नही सुन सकती अश्रु की धाराएं गंगा की तेज़ प्रवाह की तरह गणिका के कपोलो पर उमड़ पड़ी बादलो की तेज गर्जना चमकती हुई बिजली उसके ऊपर सन्यासी के वचनों का प्रहार। यह वचन प्रहार गणिका पर वैसा ही प्रभावशाली सिद्ध हुआ जैसा कि हनुमान जी का मुष्टिका प्रहार लंकिनी पर हुआ था।

गणिका सोचने पर विवश हो गयी ठीक ही तो कहा उन सन्यासी ने क्या मैं सारा जीवन यूँ ही लोगो के लिए मनोरंजन का साधन बनी रहूँगी ? क्या मैं इतनी पापिनी हूँ, क्या मैं इतनी पापिन हो चुकी हूं कि सन्त चरण तक छूने का मुझे कोई अधिकार नही ?? जिस सौंदर्य को देखने के लिए लोग दूर-दूर से मेरे कोठे पर आते है क्या वही सौंदर्य सन्त की सेवा करने में बाधक बन गया है ? क्या मैं इतनी मलिन हो चुकी हूं कि दर-दर प्रभु का अलख जगाने वाले मेरे अन्तःकरण में उस प्रभु की अलख नही जगा सकते।

गणिका इन्ही प्रश्नों में उलझी हुई अपने शयन कक्ष के साथ बने छोटे से कृष्ण मंदिर में पहुंच गई भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति के आगे सिर झुकाकर रोने लगी, सिर पटक- पटक कर बोली- हे कृष्ण ! मुझे अपनी जोगन बना, मेरे नाचने की कला का, गायन की कला का सदुपयोग हो माधव परन्तु.. पर यह कैसे हो पायेगा ? मलिन को स्वच्छ तो सन्त ही बनाते है, तुझ तक पहुंचने के द्वार भी तो वही खोलते है यह क्षमता तो उन्ही में होती है लेकिन आज वही सन्त मेरे कोठे पर आने को तैयार नही, हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? गणिका के मन मे एक तूफान उठ गया प्रभु प्राप्ति का परन्तु प्रभु प्राप्ति के लिए चाहिए सन्त, सन्त की शरणागति जो बारिश की बौछारों का आनंद ले रहे थे, दूर खड़े हुए भी गणिका के मन को प्रेरित कर रहे थे अपनी रूहानी बूंदों से।

गणिका श्री कृष्ण की प्रतिमा के आगे रोते हुए बारम्बार यही पुकार करने लगी – हे कृष्ण ! हे माधव ! मेरा भी उद्धार करो इन सन्त महात्मा से कहो कि इस पापिन के मैंले वस्त्र को भी पावन करे.. तभी गणिका के मन मे एक पंक्ति गूंज गई जो कभी बचपन मे उसने सुनी थी इसी के साथ उसके निढाल शरीर मे जैसे जान आ गई,स्फूर्ति आ गई वह तेजी से उठी एक हाथ मे मैला वस्त्र और दुसरे हाथ मे स्वच्छ वस्त्र ले तीव्र गति से सीढिया उतर गई सीधे महात्मा जी के पास जा उनके चरणों मे गिर पड़ी बारिश मे भीगती गणिका व गणिका के अश्रुओं से भीगते नयन सन्तो के चरण प्रक्षालन करने लगे।

सन्त ने कहा- हे देवी ! उठिए आप भीग रही है, अपने तन को कष्ट मत दीजिये भीतर जाइये। गणिका भूमि से उठी फिर कराह उठी कष्ट.. कष्ट यह बारिश मुझे क्या देगी महात्मन कष्ट तो आपने मुझे दिया है मेरे निमन्त्रण को अस्वीकार कर, आप क्यों नही आये ऊपर ? माना कि मैं एक वैश्या हु, मलिन हु, पापिन हुं परन्तु मैं भी अब एक सुंदर जीवन जीना चाहती हु, विषय विकारो की बीमारी को जो खत्म कर दे ऐसी ज्ञानरूपी दवा चाहती हुं। वह ब्रम्हज्ञान रूपी औषध जो आप जैसे सन्तो के पास ही होती है, फिर उसने अपने दोनों हाथ आगे किये एक मे मैला व एक मे स्वच्छ वस्त्र था दोनों को सन्त के सामने कर प्रश्न किया महात्मन आप मेरी एक बात का उत्तर दीजिये धोबी के पास कौन सा वस्त्र जाता है मैला या स्वच्छ ?

संत ने कहा- यह तो सर्वविदित है कि धोबी के पास मैला वस्त्र ही जायेगा भला स्वच्छ क्यों जाए।
गणिका ने कहा- फिर मैं भी तो एक मैला वस्त्र के समान ही हु, मैंने सुना है गुरु धोबी शिष्य कपड़ा साबुन सर्जनहार इसलिए कृपया मेरी प्रार्थना स्वीकार करे मुझ मैले वस्त्र को भी प्रभु भक्तिरूपी साबुन से पावन कर दे।

संत जी ने तो यह लीला यही सब प्रक्रिया घटाने के लिए की थी, वे गणिका के मर चुके अन्तःकरण को पुनर्जीवित करने के लिए ही तो ठीक उसकी कोठे के सामने आकर खड़े हुए थे और उसकी दासी को इतने कटु शब्द कहे थे। प्रयोजन सिद्ध होने पर बोले चलिए देवी हमे आपका निमन्त्रण स्वीकार है। गणिका प्रसन्न मुद्रा से ऊपर की ओर दौड़ी झट से आरती का दीपक जलाया महात्मा जी की आरती उतारी और लोटे के जल से चरण पखारे फिर महात्मा जी से आसन पर विराजमान होने के लिए कहा उसके बाद शुद्धतम भावो व सामाग्री से भोजन बनाया। महात्मा जी ने भोजन ग्रहण किया अब बारी आई गणिका के भोजन करने की अर्थात उसके आत्मा के भोजन की।

गणिका ने कहा- महात्मन ! मैंने सुना है कि संतो के पास ज्ञान की चाबी होती है जिससे अज्ञानरूपी ताले को खोलकर वे घट भीतर ही प्रभु के अलौकिक प्रकाश का दर्शन करा देते है। मैं भी प्रभु प्रकाश को पाकर अपने जीवन की कालिमा को नष्ट कर देना चाहती हूँ। राग रंग की छिछली मस्ती से दूर सदा-सदा के लिए प्रभु आंनद की अनुभूति चाहती हूँ मुझपर कृपा करें।

महात्मा जी ने गणिका के सच्चे भावो को देख उसी क्षण उसे दीक्षा प्रदान कर दी। गणिका ने दिव्य प्रकाश का दर्शन किया अनहद कीर्तन घण्टे, शंख, नगाड़ो की ध्वनि सुन नाम व अमृत का भी अनुभव किया जिस कृष्ण के लिए वह बचपन से तड़पती रही आज घट भीतर ही केशव के दर्शन पाकर वह कृत कृत्य हो गयी उसने बारम्बार महात्मा जी से प्रार्थना किया व प्रणाम किया फिर खुशी से उसके कदम थिरक गए नाचते हुए उसने वही बात दुहराई जो कृष्ण दीवानी मीरा गाती थी
पायो जी मैंने नाम रत्न धन पायो

उधर बारिश थमी इधर नाचती हुई गणिका के कदम। जब महात्मा जी ने गणिका को कहा- देखो देवी ! अब तुम सुबह-शाम नियमित ध्यान साधना किया करना लोगो को ईश्वर की तरफ प्रेरित करना, ईश्वर के भक्ति की तरफ प्रेरित करना। तुम्हारा मधुर कण्ठ तुम्हे प्रभु की देन है इस कण्ठ से प्रभु के लिए गीत गाना, अपने आपको पूर्णतः सेवा में अर्पित कर दो सुंदर भावपूर्ण भजनों द्वारा लोगो के मन मे भक्तिभाव भरो, उन्हें देह के क्षणिक सौंदर्य की ओर नही बल्कि सौंदर्य के रचयिता उस प्रभु की ओर अग्रसर करो उसके बाद महात्मा जी पिंजरे सहित तोता सौंपते हुए गणिका से बोले- और हां ! कभी खुद को खाली मत छोड़ना जब कभी कुछ करने को न हो तो पिंजरे के इस तोते को राम नाम सिखाया करना।

महात्मा जी को मालूम था कि गणिका का जीवन किन हालातो से गुजरा है अथवा तो आगे किन हालातो से गुजरेगा साधना, सुमिरन, सत्संग के बाद कभी यदि ये खाली होगी तो इसका मन इसे पीछे की ओर अपनी वासनाओ की ओर ले जाएगा, बुरे विचारों की ओर अवश्य खींचेगा इसलिए उसके मन को व्यस्त रखने के लिए उसकी सेवा तोते को राम नाम सिखाने की लगा दी ततपश्चात गणिका को आशीर्वाद देकर महात्मा जी मन्दिर की सीढिया उतर गए। जी हां संत के चरण पड़ने से अब वह कोठा नही मन्दिर बन चुका था उसमें वास करने वाली वैश्या नही अब भक्ति मति हो चुकी थी। चाहे सबरी हो, चाहे मीरा हो, चाहे गार्गी आदि जो भी पूज्य माताएं हुई है वे ब्रम्हवेत्ता सद्गुरुओं की प्रसादी से हुई है। उन्हें स्व में स्थिति प्राप्त हुई है और साक्षात देवी का स्वरूप बन चुकी है, आदरणीय बन चुकी है और वे जगत में पूजनीय बन चुकी है ऐसे सद्गुरुओं को शत-शत प्रणाम !

🌿🙏👣🙏🌿🌿🙏👣🙏🌿🙏

अघोर तंत्र के महान सिद्ध बाबा किन्नाराम जी के जीवन का अदभुत प्रसंग


आचार्य से प्राप्त की हुई सेवा से तीक्ष्ण बनी हुई ज्ञानरूपी तलवार एवं ध्यान की सहायता से शिष्य मन, वचन , प्राण और देह के अहंकार को काट देता है। तथा सब राग-द्वेष से मुक्त होकर इस संसार में स्वेच्छापूर्वक विहार करता है।

तीव्र गुरुभक्ति के शक्तिशाली शास्त्र से मन को दूषित करनेवाली आसक्ति को मूलसहित काट न दिया जाय तबतक विषयों का संग त्याग देना चाहिए। गुरु का आश्रय लेकर जो योग का अभ्यास करता है, वह विविध अवरोधों से पीछे नहीं हटता। जो अपने गुरु के चरणों की पूजा निरपेक्ष भक्तिभावपूर्वक करता है, उसे गुरूकृपा सीधी प्राप्त होती है।

सिद्धों और संतो के बीच बाबा किन्नाराम का नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है। बाबा किन्नाराम का ज्यादातर समय काशी में बीता। वह अघोर तंत्र के महान सिद्ध हो गये। उनके चमत्कारों और अतिप्राकृत रहस्यों के बारे में ढेरो किवदंतियाँ कहि-सुनी जाती हैं। बाबा किन्नाराम उत्तरप्रदेश राज्य के गाजीपुर के रहनेवाले थे। उनमें जन्म-जन्मांतर के साधना संस्कार बीजरूप में पड़े थे।

विवेकसार ग्रन्थ में उनकी जीवनकथा विस्तार से वर्णित है। उसमें लिखा है कि जब वह जूनागढ़ के परमसिद्ध पीठ गिरनार गये तो उन्हें स्वयं भगवान दत्तात्रय ने दर्शन दिये और उन्होंने किन्नाराम को एक कुबड़ी देते हुए कहा कि जहाँ यह कुबड़ी तुमसे कोई लेले वही तुम स्थायी रूप से रहना तथा उन्हीं को अपना गुरु बनाना।

इसीके साथ भगवान दत्तात्रेय जी ने उन्हें स्कंद पुराण में वर्णित महामंत्रो के रहस्यों को समझाते हुए उनको गुरूमहिमा के बारे में भी बताया कि-

तस्से दिशे सतत मंजली रेष आरिये।
प्रक्षिप्यते मुखरितो मधु पैर बुधेश्च।
जागृति यत्र भगवान गुरु चक्रवर्ती।
विश्वोदय प्रलय नाटक नित्य साक्षी।

अर्थात गुरुदेव सृष्टि में चल रहे उत्पत्ति एवं प्रलयरूप नाटक के नित्य साक्षी है। वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के चक्रवर्ती स्वामी है। ऐसे गुरुदेव भगवान जिस दिशा में विराजते हो, उसी दिशा में विद्वान शिष्य को मन्त्रोच्चारपूर्वक सुगंधित पुष्पों की अंजली समर्पित करनी चाहिए।

श्रीनाथादी गुरु त्रयं
गणपति बिठत्रयं भैरवं।
सिद्धोघम बटुक त्रयम
पदयुगम धृतिघम मंडलम ।।

श्रीगुरुदेव ही परमगुरु एवं परात्पर गुरु है। उनमें तीनो नाथ गुरु आदिनाथ, मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ समाये है। उन्हीं में भगवान गणपति का वास है। उन परम प्रभु में तंत्र साधना के तीनों रहस्यमयी पीठ ,कामरूप पूर्णगिरी एवं जालन्धरपीठ स्थित है। मन्मत आदि अष्टभैरव, सभी महासिद्धियों के समूह,तंत्रसाधना में सर्वोच्च कहा जानेवाला बिरंचि चक्र गुरुदेव में ही है।

स्कंदादि बटुकत्रय यौन्याम बादे ।

दुतिमण्डल, अग्निमण्डल सूर्यमण्डल, सोममण्डल, आदिमण्डल प्रकाश और विमर्श के युगल पद के रहस्य गुरुदेव में ही है।

विरान द्वयेष्ट चतुष्क षष्टी
नवकं विरावली पंचकम।
श्रीमन मनालिनी मंत्रराजसहितम
वंदे गुरूमण्डलम।।

दशवीर, 64 योगिनियाँ, नवमुद्रायै ,पंचवीर तथा अशिक्षा तक सभी मातृकायै एवं मालिनी यंत्र गुरुदेव के चेतना मंडल में ही स्थित है। सभी गुरुतत्वों से युक्त गुरूमण्डल को मेरा बारंबार प्रणाम है। इस प्रकार
दत्तात्रेय जी ने किन्नाराम जी को गुरु की महिमा से अवगत कराया।

गुरु की महिमा को हृदय में धारण करते हुए
किन्नाराम जी जब काशी पहुंचे, तो वहाँ हरिश्चंद्र घाट पर बाबा कालूराम से उनकी भेंट हुई। पहली भेंट में संत कालूराम ने उनकी तरह-2 से अनेकों परीक्षायें ली। बड़ी कठिन और रहस्यमय परीक्षाओं के बाद वह किन्नाराम जी को अपना शिष्य बनाने को तैयार हुए।

किन्नाराम जी बड़े ही प्रसन्न हुए कि उन्हें गुरु की प्राप्ति हुई। शिष्य बनने के बाद तंत्रसाधना का एक परम दुर्लभ एवं अति रहस्यमय अनुष्ठान किया जाना होता है। इस अनुष्ठान के लिए कई तरह की तंत्र सामग्री आवश्यक होती है।

जिन्हें साधना का थोड़ा भी ज्ञान है, वे जानते हैं कि तंत्रसाधना में उपयोग की जानेवाली सामग्री बड़ी दुर्लभ होती है। अब प्रश्न यह था कि, यह सामग्री कहा से लायी जाये?

उस समय किन्नाराम जी के पास ऐसी कोई व्यवस्था न थी कि वे सामग्री एकत्रित कर सके। तंत्र अनुष्ठान के इस श्रृंखला में उन्हें अनेक देवों, योगिनियों को संतुष्ट करना था। यह एकसाथ सब कैसे हो? इन प्रश्नों ने किन्नाराम को आकुल कर दिया।

शिष्य की चिंता से शिष्यवत्सल गुरुदेव कालूराम द्रवित हो उठे। उन्होंने कहा, “चिंता किस बात की रे! मैं हूँ ना! तू मेरी ओर देख, मुझमें देख।”

उनके इस तरह कहने पर बाबा किन्नाराम को दत्तात्रेय जी के गुरूमहिमा विषयक वचन स्मरण हो आये और उन्होंने अपने गुरुदेव की ओर खूब श्रद्धा और भक्तिपूर्वक निहारा।

आश्चर्य! परम आश्चर्य! तंत्र साधना की सभी अधिष्ठात्री देवशक्तियाँ महासिद्ध गुरुदेव में ही विद्यमान दिखने लगी । सभी तंत्रपीठ गुरुदेव में ही समाहित थे, ऐसा नजर आने लगा। गुरुदेव सद्गुरु चेतना में तंत्र साधना के समस्त तत्व दिखाई दे रहे थे।

शिष्यवत्सल गुरु की यह अद्भुत कृपा देखकर किन्नाराम भक्तिविव्हल हो गए और गुरुकृपा ही केवलम… कहते हुए अपने गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। फिर किन्नाराम जी को अलग से मंत्र और तंत्र की सिद्धि हेतु कोई विशेष साधना नहीं करनी पड़ी। अपने सद्गुरु के पूजन से ही उन्हें तंत्र की समस्त शक्तियाँ, सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो गई।

गुरु में निष्ठा और गुरुकृपा ने उन्हें अघोर तंत्र का महासिद्ध बना दिया। सद्गुरु में निष्ठा का ही प्रताप था कि लोगों में यह कहावत प्रचलित हो गई कि जो न करे राम, वो करे किन्नाराम।